ठीक 40 बरस पहले यानी जुलाई 1982 में मुंबई के ब्रीचकेंडी अस्पताल में जिंदगी और मौत से जूझ रहे  हिंदीं फिल्मों के महानायक अमिताभ बच्चन से मिलने "हिंदुत्व" का एक महानायक जाता है और उन्हें गुलदस्ता भेंट करने के साथ अपने हाथों से बनाये एक कार्टून की तस्वीर देता है.उसके नीचे लिखा होता है--"हार गये तुमसे यमराज." ये कहने का हौंसला रखने वाले कोई और नहीं,सिर्फ बाल ठाकरे ही थे.


बाल ठाकरे के दौर में शिवसेना का रुतबा
देश में आज हिंदुत्व के जो सबसे बड़े झंडाबरदार बने हुए हैं,उन्हें इतिहास की ज्यादा जानकारी भले ही न हो लेकिन  कम से कम इतनी समझ तो होनी ही चाहिए कि पांच दशक पहले जब 'हिंदुत्व' का नारा लगाने से भी लोग डरते थे, तब 1966 में बाल ठाकरे ने महाराष्ट्र में शिव सेना की स्थापना करके कट्टर हिन्दुत्व को अपनाने की राजनीति को आगे बढ़ाने की एक नई धार दी थी. तब कोई सोच भी नहीं सकता था कि मुंबई के एक अंग्रेजी अख़बार में कार्टून बनाने वाला वो शख्स एक ऐसी राजनीतिक पार्टी बना देगा, जिसकी तूती आगे चलकर सिर्फ महाराष्ट्र में ही नहीं बोलेगी, बल्कि केंद्र की सत्ता पाने के लिए साल 1980 में बनी बीजेपी को भी उसका ही आसरा लेना होगा.


मुंबई की पुरानी पीढ़ी के लोग तो शायद भूले भी नहीं होंगे कि अस्सी और नब्बे के दशक में वहां सरकार भले ही किसी भी पार्टी की रही हो, लेकिन बाल ठाकरे की मर्जी के बगैर मुंबई से लेकर पुणे, नासिक तक में कोई काम नही हो पाता था. कॉर्पोरेट जगत से लेकर समूचा बॉलीवुड हर सुबह उनके बंगले 'मातोश्री' जाकर सिर्फ यही मन्नत मांगता था कि उनका वरदहस्त उनके सिर पर बना रहे.


लेकिन बाल ठाकरे की एक बड़ी खूबी ये भी रही कि उन्होंने उस जमाने के तीन बड़े माफियाओं- हाजी मस्तान, करीम लाला और वरदराजन मुदलियार के मुंबई में काबिज एकछत्र राज को अपने शिव सैनिकों के जरिये नेस्तनाबूद करने की कोई कसर बाकी नहीं रखी थी. तब दाऊद इब्राहिम तो एक छोटा-सा गुर्गा था, जिसने 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद के विध्वंस के ठीक तीन महीने बाद मुंबई में सीरियल बम ब्लास्ट करके लाशों के ढेर लगा दिए थे. लेकिन भूलना नहीं चाहिए कि तब शरद पवार ही राज्य के मुख्यमंत्री थे लेकिन उसी बाल ठाकरे की दहशत में आकर उस दाऊद ने रातोंरात सिर्फ मुंबई नहीं, बल्कि देश ही छोड़ दिया था.


सवाल ये है कि ऐसे कट्टर हिंदुत्व को ही अपना खाद-पानी मानने वाली वही शिवसेना अब दो फाड़ क्यों हो गई है? क्या वाकई उद्धव ठाकरे ही इसके सबसे बड़े कसूरवार हैं, जिन पर बागियों के नेता एकनाथ शिंदे आरोप लगा रहे हैं कि वे हिंदुत्व के मुद्दे से भटक गए हैं? या फिर राजनीति की पारी की शुरुआत करने वाले उद्धव के बेटे आदित्य ठाकरे ने जो कहा है, उसमें भी कुछ सच्चाई है. उन्होंने शिवसेना के पार्षदों व अन्य नेताओं के सामने दो बड़ी बातें कही हैं. पहली ये कि "मेरी मां ने कहा कि जिन पर हमने सबसे ज्यादा भरोसा किया, उन्होंने ही हमें धोखा दिया और, दूसरी ये कि जहां बागी विधायकों की बोली ज्यादा लग गई,वे वहां चले गए."


तख्तापलट में इतनी देर क्यों?
हम नहीं जानते कि आदित्य ठाकरे और उनकी मां की कही बातों में कितना सच है, लेकिन इस हकीकत को भुला भी नहीं सकते कि राजनीति और विश्वासघात का चोली-दामन का साथ है. ऐसा भी नहीं है कि देश की जनता इसे पहली बार देख रही हो. वह मध्य प्रदेश, कर्नाटक, गोवा से लेकर अरुणाचल प्रदेश में लोकतंत्र का मजाक बनाने वाले ऐसे प्रहरियों का तमाशा पहले भी देख चुकी है और अब भी देख रही है. लेकिन फर्क सिर्फ इतना है कि इस बार महाराष्ट्र से लेकर दिल्ली के सियासी गलियारों में चर्चा ये है कि तख्तापलट करने में आखिर इतनी देर क्यों हो रही है.


अभी तक जो सामने दिख रहा है, उसे लेकर कह सकते हैं कि बग़ावत की ये पूरी लड़ाई कानूनी शक्ल लेती दिख रही है और इसमें कोर्ट के सामने जो भी धुरंदर अपनी दलीलों से अपनी कार्रवाई को सही साबित करने में कामयाब हो जाएगा, वही सिकंदर कहलायेगा. शिवसेना ने अपने 16 विधायकों को अयोग्य ठहराने के लिए विधानसभा के उपाध्यक्ष को चिट्ठी लिख दी है. उपाध्यक्ष ने इस बारे में एडवोकेट जनरल से कानूनी सलाह भी ली है.जाहिर है कि इस बारे में गुवाहाटी में बैठे एकनाथ शिंदे को भी देश के नामचीन वकीलों की सलाह मुहैया करने में जरा भी देर नहीं हुई है.


डिप्टी स्पीकर की शक्तियों को लेकर सवाल
लेकिन इसे हम उद्धव ठाकरे सरकार की लापरवाही समझें या फिर जरूरत से ज्यादा आत्मविश्वास कि उन्होंने 2020 के बाद से ही विधानसभा का कोई नया अध्यक्ष चुनने की तरफ कोई ध्यान ही नहीं दिया. साल 2020 तक कांग्रेस के कोटे से नाना पटोले विधानसभा अध्यक्ष थे लेकिन कांग्रेस ने उन्हें प्रदेश अध्यक्ष बना डाला. उसके बाद से ही स्पीकर का पद खाली पड़ा है और पूरी विधानसभा का कामकाज उपाध्यक्ष के जरिये ही हो रहा है.


फिलहाल महाराष्ट्र विधानसभा के डिप्‍टी स्‍पीकर नरहरि जिरवाल हैं, डो राष्‍ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (NCP) से हैं. वह महाराष्ट्र की डिंडोरी विधानसभा से तीन बार विधायक रहे हैं. हालांकि महाराष्‍ट्र के दो निर्दलीय विधायकों ने उपाध्यक्ष नरहरि को लिखा है कि वो किसी एमएलए को सस्‍पेंड नहीं कर सकते हैं. इसकी वजह बताते हुए इन विधायकों का कहना है कि डिप्‍टी स्‍पीकर के खिलाफ पहले से ही अविश्‍वास प्रस्‍ताव लंबित है. विधानसभा उपाध्यक्ष ऐसे निर्णय नहीं ले सकते क्योंकि यह अध्यक्ष का विशेषाधिकार होता है. लेकिन राज्य विधानसभा  के पूर्व प्रधान सचिव डॉ. अनंत कलसे कहते हैं, 'संविधान के अनुच्छेद 180 में साफ तौर से कहा गया है कि विधानसभा अध्यक्ष का पद खाली होने पर उपाध्यक्ष निर्णय ले सकते हैं. मुझे नहीं लगता कि निर्दलीय विधायकों की यह मांग अदालत में टिक सकती है.'


(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)