देश के सबसे प्रतिष्ठित माने जाने वाले जवाहर लाल नेहरू विश्विद्यालय में मंगलवार की देर रात तक हुए जबरदस्त बवाल ने कुछ बुनियादी सवाल खड़े कर दिये हैं. पहला तो यह कि गुजरात दंगों पर BBC की बनाई गई जिस डॉक्यूमेंट्री को केंद्र सरकार ने बैन कर दिया है उसकी अपने कैंपस में सामूहिक स्क्रीनिंग करने के छात्रसंघ के फैसले को क्या अनुशासनहीनता नहीं माना जाना चाहिये? 


दूसरा सवाल ये कि इस स्क्रीनिंग को रोकने के लिए जेएनयू प्रशासन द्वारा समूचे कैंपस की बिजली को कई घंटों तक काटे रखने का फैसला क्या जायज था? प्रदर्शनकारी छात्रों के भारी विरोध के बाद रात 12 बजे के बाद बिजली तो बहाल कर दी गई लेकिन सवाल ये भी है कि बिजली गुल होने के बावजूद अपने लैपटॉप पर फ़िल्म देख रहे छात्रों पर पथराव करने वाले तत्व कौन थे और उनके खिलाफ कार्रवाई करने के लिए वहां के वाइस चांसलर ने पुलिस को कैंपस में क्यों नहीं बुलाया? इसलिये ये कहना गलत नहीं होगा कि इस डॉक्यूमेंट्री दिखाने को लेकर अगर छात्रसंघ की जिद अनुचित थी तो जेनएयू प्रशासन का रवैया भी बेहद गैर जिम्मेदाराना देखने को मिला है.


ये सब जानते हैं कि जेएनयू को प्रगतिशील और वामपंथी विचारधारा वाले छात्रों का सबसे बड़ा केंद्र माना जाता है. लेकिन एक सच ये भी है कि साल 2014 में केंद्र में मोदी सरकार बनने के बाद से यही विश्विद्यालय विवादों का सबसे बड़ा अड्डा बन गया है और बीजेपी यही आरोप लगाती रही है कि यहीं से पूरे देश में नकारात्मकता फैलाई जा रही है. ये भी आरोप लगा कि मोदी-विरोध के चलते यहीं से देश के 'टुकड़े-टुकड़े' कर देने वाले गैंग की पैदाइश भी हुई. लिहाजा, सवाल ये उठता है कि आखिर ऐसा क्या और क्यों हुआ कि देश के अव्वल दर्जे वाला यह शैक्षणिक संस्थान राजनीति का इतना बड़ा अखाड़ा बनकर रह गया? जेएनयू की सिर्फ देश में ही नहीं, बल्कि विदेशों में भी शोहरत है और खासी साख भी है इसीलिये यहां होने वाली किसी भी असामान्य घटना पर कई मुल्कों की नजर भी रहती है.


बता दें कि डॉक्यूमेंट्री की स्क्रीनिंग मंगलवार की रात 9 बजे शुरू होने वाली थी और छात्रों ने प्रशासन की अस्वीकृति के बावजूद इसे आगे बढ़ाने की योजना बनाई थी. जेएनयू प्रशासन ने स्क्रीनिंग की इजाजत नहीं दी थी. साथ ही कहा था कि डॉक्यूमेंट्री की स्क्रीनिंग होने पर अनुशासनात्मक कार्रवाई की जाएगी. हालांकि छात्रों ने जोर देकर कहा था कि स्क्रीनिंग से विश्वविद्यालय के किसी नियम का उल्लंघन नहीं होगा और न ही इससे सांप्रदायिक सौहार्द बिगड़ेगा. उसके बाद कुछ शरारती तत्वों द्वारा छात्रों पर पत्थरबाजी की गई और उसी दौरान पूरे कैंपस की बिजली गुल कर दी गई. हो सकता है कि प्रशासन ने ऐहतियात के तौर पर ही ये कदम उठाया हो ताकि छात्रों के दो गुटों के बीच हिंसक झड़प न हो. इसलिये कि संघ के छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद यानी एबीवीपी ने इस डॉक्यूमेंट्री की स्क्रीनिंग का पहले ही विरोध कर दिया था.


दरअसल, सारा बवाल ही जेएनयू छात्रसंघ की अध्यक्ष आयशी घोष के एलान से ही बढ़ा. उन्होंने कहा था कि, "हम लोग स्क्रीनिंग करेंगे. बीबीसी की डाक्यूमेंट्री बैन नहीं है. ये फिल्म सच्चाई दिखाती है और इन्हें डर है कि सच बाहर आ जायेगा. आप लाइट छीन सकते हो, हमारी आखें, हमारा जज्बा नहीं छीन सकते, आप स्क्रीनिंग को नहीं रोक सकते. हम हजार स्क्रीन पर देखेंगे. पुलिस और बीजेपी में दम है तो हमें रोके." बता दें कि बीबीसी ने ‘इंडिया: द मोदी क्वेश्चन’ नाम से डाक्यूमेंट्री सीरीज बनाई है जो गुजरात दंगों पर आधारित है. जब नरेंद्र मोदी राज्य के मुख्यमंत्री थे. हम नही जानते कि इसमें कितना सच और कितना झूठ है लेकिन बड़ा सवाल ये है कि जिस मामले में देश की सुप्रीम कोर्ट ने मोदी को क्लीन चिट दे दी हो तो क्या एक विदेशी मीडिया संस्थान हमारे देश की सर्वोच्च अदालत से ऊपर है? जाहिर है कि जो मामला पूरी तरह से खत्म हो चुका हो उसे एक डॉक्यूमेंट्री के जरिये लोगों के जख्मों को कुरेदना और समाज में नफरत फैलाने की इस कोशिश को कोई भी सरकार भला कैसे बर्दाश्त कर सकती है.


डॉक्यूमेंट्री की ये सीरीज भारत में उपलब्ध नहीं है लेकिन यूट्यूब और ट्विटर पर इसके लिंक शेयर किए गए थे जिन्हें केंद्र सरकार ने ब्लॉक कर दिया है. साथ ही विदेश मंत्रालय ने डाक्यूमेंट्री को 'दुष्प्रचार का हिस्सा' बताते हुए खारिज कर दिया है. विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता अरिंदम बागची ने प्रेस कॉफ्रेंस में इस डॉक्यूमेंट्री से जुड़े सवाल पर कहा है कि, "मुझे ये साफ़ करने दीजिए कि हमारी राय में ये एक प्रोपेगैंडा पीस है. इसका मक़सद एक तरह के नैरेटिव को पेश करना है जिसे लोग पहले ही ख़ारिज कर चुके हैं. इसमें निष्पक्षता का अभाव है और यह एक औपनिवेशिक मानसिकता को दर्शाता है." हालांकि इस डॉक्यूमेंट्री को सरकार के अलावा कई अन्य लोगों ने भी दुष्प्रचार और औपनिवेशिक मानसिकता से प्रेरित बताया है. जबकि बीबीसी का कहना है कि यह गहन जांच-परख के बाद उसके संपादकीय मानदंडों के अनुरूप तैयार की गई है.


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