मैं इस वक़्त दुनिया की सबसे बड़ी मस्जिदों में से एक ‘ग्रैंड चामलिजा मस्जिद’ के सेहन पर खड़ा हूं. यह तुर्की की सबसे बड़ी मस्जिद है. मैंने अपनी ज़िन्दगी में जितनी भी मस्जिदें देखी हैं उनमें से यह सबसे बड़ी मस्जिद है. आज के दौर में भी ऐसी मस्जिद तामीर की जा सकती है यह सोच पाना भी मुश्किल सा लगता है. लेकिन इसे तुर्की की दो महिलाओं ने सोचा. आपको जानकर यक़ीनन ख़ुशी होगी कि इस मस्जिद का डिज़ाइन तुर्की की दो महिला आर्किटेक्ट 'बहार मिज़राक' और 'हाइरिये गुल तोतू' ने तैयार किया है.
इस्तांबुल की सबसे ऊंची पहाड़ी 'चामलिजा' पर बनी इस मस्जिद के अंदर 25 हज़ार से अधिक मुसलमान एक साथ कंधे से कंधा मिलाकर नमाज़ अदा कर सकते हैं. हालांकि कुल मिलाकर इस मस्जिद में 63,000 से अधिक लोगों के एक साथ नमाज़ पढ़ने की गुंजाइश मौजूद है. इस वक़्त मेरी आंखों के सामने मस्जिद के कम्पाउंड में जितने लोग मौजूद हैं उसमें आधे से ज़्यादा आबादी लड़कियों और महिलाओं की है. हर कोई इस मस्जिद की ख़ूबसूरती को अपने मोबाइल कैमरे में क़ैद कर लेना चाहता है और इससे मस्जिद की तक़द्दुस (पवित्रता) क़तई भी पामाल नहीं हो रही है.
बता दें कि इस मस्जिद में महिलाओं के लिए ख़ास इंतज़ाम है. चूंकि इस मस्जिद को दो महिला आर्किटेक्ट ने डिज़ाइन किया है इसलिए यह मस्जिद पूरी तरह से ‘महिला दोस्त' है. शायद यही वजह है कि यहां महिलाओं के लिए नमाज़ की जगह मस्जिद के मर्कज़ी हॉल में स्थित है और इसमें 600 से अधिक महिलाएं एक साथ नमाज़ पढ़ सकती हैं. वहीं इस मस्जिद में इनके वुज़ू के लिए अलग जगह, नमाज़ की जगहों तक जाने के लिए अलग लिफ्ट और बच्चों की देखभाल का इंतज़ाम भी शामिल है. अगर हां, कोई महिला छोटे कपड़ों में आई है तो मस्जिद में उनके लिए गाउन रखे हुए हैं जिनको पहन कर वो नमाज़ पढ़ सकती हैं. कमोबेश इस्तांबुल की हर मस्जिद में ऐसा ही इंतज़ाम है और महिलाओं के मस्जिद में प्रवेश पर कोई पाबंदी नहीं है. और हां, यहां यह भी बता दें कि तुर्की में भारत की तरह टिक-टॉक पर भी कोई पाबंदी नहीं है.
अब मैं मस्जिद के कम्पाउंड में मौजूद कैफ़ेटेरिया में हूं. तुर्किश चाय की चुस्कियों के साथ सोशल मीडिया के पन्नों को स्क्रॉल करने से पता चल रहा है कि भारतीय मीडिया में दिल्ली की जामा मस्जिद चर्चे में है. ये चर्चा जामा मस्जिद के बाहर चिपकाया गया उस आदेश के बाद हो रहा है जिसमें अकेले आने वाली लड़कियों के प्रवेश पर पाबंदी की बात की गई थी. हालांकि ये पाबंदी अब हटा ली गई है. मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक़ दिल्ली के उप-राज्यपाल वी.के. सक्सेना ने जामा मस्जिद के शाही इमाम बुख़ारी से इस बारे में बात की और इमाम बुख़ारी ने इस आदेश को रद्द करने पर सहमति जताई.
भले ही जामा मस्जिद इंतज़ामिया ने अपना फ़ैसला वापस ले लिया हो लेकिन अकेली लड़कियों के मस्जिद में दाख़िल होने पर लगी इस पाबंदी के बाद इस मुद्दे पर बात होना ज़रूरी है. क्योंकि हमेशा से यह बहस होती रही है कि मस्जिदों में महिलाएं नहीं जा सकती हैं. अभी भी मीडिया में इस मुद्दे पर तरह-तरह की बहस की जा रही है. मिसाल के तौर पर दिल्ली महिला आयोग की अध्यक्ष स्वाति मालिवाल को लीजिए. मीडिया में प्रकाशित एक ख़बर के मुताबिक़ उन्होंने अपने एक बयान में कहा है कि ये भारत है ईरान नहीं, जिसे एक मीडिया संस्थान ने ईराक़ लिख दिया है. तो यहां मैं बता दूं कि ईरान और ईराक़ दोनों ही देशों में महिलाओं में मस्जिद में जाकर नमाज़ पढ़ने की पूरी आज़ादी है. वहीं एक महिला एक्टिविस्ट ने अपने बयान में कहा है कि ‘यह फ़रमान हमें 100 साल पीछे ले जाता है.’ तो यहां मैं बता दूं कि सौ साल पहले भी मुस्लिम महिलाओं को मस्जिद में जाने पर कोई पाबंदी नहीं थी. इसके लिए बी अम्मा और 1920 के दौर में मुस्लिम महिलाओं के इतिहास को पढ़ा जा सकता है. कुछ लोगों ने इस जामा मस्जिद के इस ‘शाही फ़रमान’ को इस्लाम और इस्लाम में मुस्लिम महिलाओं को मिलने वाले अधिकार के साथ जोड़कर देखने की कोशिश की है. मुझे लगता है कि ऐसे लोगों से हमें दूर ही रहना बेहतर है क्योंकि ये समाज में नफ़रत फैलाने वाले लोग हैं.
इमाम का दिवालियापन, इस्लाम का फैसला नहीं
जामा मस्जिद में अकेली लड़कियों की एंट्री पर रोक, मस्जिद इंतज़ामिया का अपना फ़ैसला हो सकता है. शाही इमाम का दिवालियापन हो सकता है लेकिन इसे इस्लाम का फ़ैसला या आदेश क़तई नहीं कहा जा सकता. इस्लाम में मस्जिदों में महिलाओं के जाने पर कोई पाबंदी नहीं है. इबादत को लेकर इस्लाम महिला-पुरुष में कोई फ़र्क़ नहीं करता है. महिलाओं को भी उसी तरह इबादत का हक़ हासिल है जैसे पुरुषों को है. आप मक्का, मदीना में महिलाओं को देख सकते हैं. हज के दौरान पुरूषों के साथ इन्हें तवाफ़ करते हुए देख सकते हैं. तो वहीं यरुशलम की अल अक्सा मस्जिद में भी महिलाओं की एंट्री पर कोई बैन नहीं है. हालांकि कभी-कभी उन्हें इसराइली सेना द्वारा रोका जाता है लेकिन वो अपने हक़ के लिए डटकर इनका मुक़ाबला करती हैं.
भारत में भी मस्दिजों में महिलाएं की एंट्री पर बैन नहीं
चूंकि भारतीय समाज रूढ़िवादी समाज है. ऐसे में आम तौर पर महिलाएं मस्जिदों में नमाज़ पढ़ने नहीं जाती हैं. बावजूद इसके दिल्ली में मेरे घर के क़रीब यानी जामिया नगर के अबुल फ़ज़ल इलाक़े के इशाआत-ए-इस्लाम मस्जिद में भी महिलाएं नमाज़ अदा करती हैं. मेरे घर व कम्पाउंड की महिलाएं जुमा के दिन वहां नमाज़ अदा करने जाती रही हैं. केरल में भी मैंने मस्जिदों में औरतों को नमाज़ पढ़ते देखा है. हैदराबाद की मक्का मस्जिद में भी महिलाओं को नमाज़ पढ़ते मैं देख चुका हूं. मुंबई में भी बोहरा मुस्लिम महिलाएं मस्जिदों में नमाज़ अदा करती हैं. बल्कि कॉलेज के दिनों में मैं दिल्ली के जामा मस्जिद में भी अपनी क्लास की महिला दोस्त के साथ कई बार जा चुका हूं. रमज़ान के दिनों में अफ़्तार के समय जामा मस्जिद में महिलाओं की भीड़ देखने लायक़ होती है.
यहां ये भी स्पष्ट रहे कि जामा मस्जिद के पीआरओ ने भी मीडिया को दिए अपने बयान में कहा है कि, फ़ैमिली के साथ या मैरिड कपल्स के जामा मस्जिद में आने पर कोई पाबंदी नहीं है. उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि 'हमने केवल अकेली लड़कियों के आने पर पाबंदी लगाई थी जो यहां आकर लड़कों को वक़्त देती हैं, उनके साथ मुलाकातें करती हैं, ग़लत हरकतें करती हैं, वीडियो बनाती हैं… अगर कोई यहां आकर इबादत करना चाहे, नमाज़ पढ़ना चाहे तो मोस्ट वेलकम.’ उन्होंने यह भी कहा कि ‘धार्मिक स्थल को मीटिंग पॉइंट समझ लेना, पार्क समझ लेना, टिकटॉक वीडियोज़ बनाना, डांस करना... ये किसी भी धर्मस्थल के लिए मुनासिब नहीं है. चाहे वह मस्जिद हो, मंदिर हो या गुरुद्वारा.’
वीडियो बनाने को लेकर समझाएं, रोके नहीं
बावजूद इसके जामा मस्जिद इंताज़ामिया के उस फ़ैसले को क़तई सही नहीं कहा जा सकता जिसे उन्होंने दिल्ली के उप-राज्यपाल के दबाव में वापस ले लिया है. अगर अकेली लड़कियां मस्जिद में आकर रील या शॉर्टस बना रही हैं तो उनसे निपटने के दूसरे रास्ते भी हो सकते थे. उन्हें धार्मिक स्थलों की पवित्रता की अहमियत बताते हुए प्यार से समझाया जा सकता था. इस्लाम में तबलीग़ भी कोई चीज़ है. आप नई पीढ़ी को तबलीग़ कर सकते हैं जिससे मस्जिद की पाकीज़गी भी क़ायम रहे और लोगों के अधिकारों का उल्लंघन भी न हो और न ही किसी को मौक़ा मिले कि वो इस मसले पर भी सियासत करें. बल्कि हमारे मिल्ली रहनुमाओं को इस बात पर भी सोचने की ज़रूरत है कि आजकल की इस ‘नई-नवेली बीमारी’ से देश की नई पीढ़ी को कैसे दूर करें. कैसे उन्हें सोशल मीडिया के नकारात्मक इस्तेमाल से बचाएं. बहरहाल, ये एक बेवजह का विवाद था जिसे थोड़ी समझदारी और संवदेनशीलता दिखाकर बचा जा सकता था लेकिन उससे बचा नहीं गया. शायद जामा मस्जिद के शाही इमाम का सुर्खियों में आने का यह भी कोई तरीक़ा हो…
ख़ैर चलते-चलते बता दूं कि तुर्की में मस्जिद सिर्फ़ मज़हबी किरदार तक ही महदूद नहीं हैं बल्कि एक सामाजिक केंद्र हुआ करती हैं. आज भी मस्जिदों के आसपास कई ऐसी चीजें होती हैं जहां से धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक तीनों ज़रूरतें पूरा किया जा सकता है. मस्जिद परिसर में लाइब्रेरी या चायखाना या कैफ़ेटेरिया का होना आम बात है और किसी के आने पर कोई रोक-टोक नहीं हैं. किसी भी मज़हब का कोई भी मर्द या औरत मस्जिद में आसानी से आ सकते हैं. बल्कि मस्जिद एक मीटिंग पॉइंट की तरह हैं अगर यहां किसी को किसी से मिलना होता है तो अक्सर मस्जिदों में ही बुलाते हैं.
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