भारत के प्राचीन नाम आर्यावर्त की तरह ही 'लैंड ऑफ आर्यन" कहे जाने वाले ईरान में एक नये युग की शुरुआत हो गई है जिस पर कट्टरपंथी विचारधारा का वर्चस्व ही रहने वाला है. अमेरिकी प्रतिबंधों व घरेलू आर्थिक संकट के साथ अंतराष्ट्रीय स्तर पर भी कई तरह की चुनौतियों से जूझ रहे ईरान में अब तक वहां की न्यायपालिका के प्रमुख रहे 61 बरस के इब्राहिम रईसी ने राष्ट्रपति का पदभार संभाल लिया है, जिन्हें वहां के सर्वोच्च धार्मिक नेता अयातुल्लाह अली ख़ामेनेई का नज़दीकी समझा जाता है.


ईरान के लिए भारत का महत्व सिर्फ इसलिये ही नहीं है कि वो कच्चे तेल का एक बड़ा उत्पादक देश है बल्कि उसके साथ कूटनीतिक रिश्ते बनाये रखना इसलिये भी जरूरी है क्योंकि दो साल पहले जम्मू-कश्मीर से धारा 370 हटाये जाने पर पाकिस्तान, तुर्की व चीन के साथ उसने भी विरोध की आवाज उठाई थी. हाल के सालों में ईरान ने सीरिया समेत कई मामलों में रूस से हाथ मिलाया है. साथ ही उसने चीन के साथ 25 साल के रणनीतिक रोडमैप पर भी हस्ताक्षर किए हैं. लिहाज़ा ईरान में नए युग की शुरुआत होना भारत के लिए कई मायने रखती है.


वैसे ईरान प्रमुख शिया इस्लामिक देश है और भारत में भी ईरान के बाद सबसे ज़्यादा शिया मुसलमानों की आबादी है. अगर भारत का विभाजन न हुआ होता यानी पाकिस्तान नहीं बनता तो ईरान से भारत की सीमा लगती. ईरान इस्लामिक देश बनने से पहले पारसी था. लेकिन अब वहां पारसी गिने-चुने ही बचे हैं. इस्लाम के उभार के साथ ही ईरान से पारसियों को बेदख़ल कर दिया गया. तब ज़्यादातर पारसी या तो भारत के गुजरात राज्य में आ बसे या फिर पश्चिमी देशों में चले गए. ईरान में जब पारसी थे, तब भी भारत के साथ उसके सांस्कृतिक संबंध थे और जब इस्लामिक देश बना तब भी गहरे संबंध रहे.


लेकिन 41 बरस पहले हुई इस्लामी क्रांति के बाद ईरान के सामने अब पहली बार घरेलू मोर्चे पर एक साथ कई चुनौतियां हैं,तो साथ ही कई देशों से उसके संबंध भी बेहद तनावपूर्ण हैं. इसके अलावा एक और बड़ा मसला ये भी है कि राष्ट्रपति कोई भी बड़ा फ़ैसला वहां के सुप्रीम नेता अयातुल्लाह अली ख़ामेनेई की रज़ामंदी के बगैर नहीं ले सकते. ऐसे में ईरान को मुश्किलों से निकालना रईसी के लिए बहुत बड़ी चुनौती होगी. इसलिये कहा जाता है कि ईरान के राष्ट्रपति की कुर्सी पर बैठना, ज़हर का प्याला पीने से कम नहीं है.


क्षेत्रीय तनाव जारी रहने के बीच साल  2015 के महत्वपूर्ण परमाणु समझौते पर अमेरिका और ईरान के बीच परोक्ष वार्ता थम गई है क्योंकि वाशिंगटन ने तेहरान पर लगाए गए प्रतिबंधों में फ़िलहाल कोई ढील नहीं दी है.


राष्ट्रपति बनने के बाद अपने पहले भाषण में रईसी ने कहा, ‘‘ये प्रतिबंध हटाए जाने चाहिए.’’ उन्होंने कहा, ‘‘हम ऐसी किसी भी कूटनीतिक योजना का समर्थन करेंगे जिससे इस लक्ष्य को प्राप्त करने में मदद मिले.’’ उन्होंने अमेरिकी प्रतिबंधों को खत्म करनेवाली कूटनीति अपनाने और पड़ोसियों, खासकर सुन्नी प्रतिद्वंद्वी सऊदी अरब के साथ मतभेदों को दूर करने पर जोर दिया, लेकिन कहा कि समूचे क्षेत्र में दुश्मनों से शक्ति संतुलन के लिए ईरान अपनी शक्ति बढ़ाएगा.इशारा साफ है कि ईरान अपनी परमाणु ताकत और बढ़ाने से पीछे नहीं हटने वाला है.


गौरतलब है कि साल 2020 में रूढ़िवादी नेताओं के प्रभुत्व वाली संसद ने एक क़ानून पारित कर सरकार को 2015 के परमाणु समझौते में दिए स्तर से अधिक स्तर के यूरेनियम संवर्धन करने की अनुमति दे दी थी. इस नए क़ानून के बाद ईरान सरकार 20 फ़ीसदी तक यूरोनियम संवर्धन दोबारा शुरू कर सकती है जबकि परमाणु समझौते में इसे 3.67 फीसद तक सीमित कर दिया गया था.ईरान ने पिछले एक साल में यूरेनियम संवर्धन तेज कर दिया है जिसे लेकर अमेरिका के साथ ही यूरोपीय देश भी चिंतित हो उठे हैं.


हालांकि इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि अगर पश्चिमी देशों के साथ एक बार फिर किसी सहमति तक नहीं पहुंचा जा सका, तब भी ईरान उतना अलग-थलग नहीं पड़ेगा जितना पूर्व राष्ट्रपति महमूद अहमदीनेजाद के कार्यकाल (साल 2007 से 2013) के दौरान रहा.


पारंपरिक तौर पर ईरान अपनी विदेश नीति में 'न पूर्व और न पश्चिम' की नीति का पालन करता रहा है. लेकिन हाल में सुप्रीम लीडर ख़ामेनेई ने अपने दिए एक बयान में 'पूर्व' को प्राथमिकता देने की बात की है,जिसे भारत के लिए भी अच्छा संकेत समझा जा रहा है.


अमेरिका के मौजूदा राष्ट्रपति जो बाइडन ने समझौते पर वापिस लौटने की इच्छा जताई है. फिलहाल ईरान परमाणु समझौते को फिर से लागू करने को लेकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर वार्ता जारी है लेकिन अब तक इसका कोई पुख्ता नतीजा नहीं निकल पाया है.


ईरान चाहता है कि उस पर लगी आर्थिक पाबंदियां हटा ली जाएं. हालांकि अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन ने गत 8 जून को कहा था कि उन्हें उम्मीद है कि ईरान पर कई पाबंदियां लागू रहेंगी.अब देखना ये है कि इब्राहिम रईसी किस दिशा में आगे बढ़ते हैं और पूर्व व पश्चिम के देशों के बीच कैसा संतुलन बना पाते हैं.


(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)