पश्चिम बंगाल में पंचायत चुनाव का शोर पिछले कुछ दिनों से देश ही बाकी हिस्सों में भी सुना जा रहा था. कहने को तो ये ग्रामीण इलाकों में स्थानीय निकायों का चुनाव था, लेकिन पंचायत चुनाव की तारीखों के ऐलान के साथ ही जिस तरह से वहां हिंसा का माहौल दिख रहा था, उसकी वजह से इस चुनाव की गूंज राज्य के बाहर भी सुनाई दे रही थी. राज्य में आठ जून को चुनाव प्रक्रिया शुरू होने के बाद से हुई हिंसा में 30 से ज्यादा लोग अपनी जान चुके हैं. ये तो सरकारी आंकड़ा है, अगर बीजेपी के दावों को मानें तो ये संख्या 40 से ऊपर है.
अब जब पंचायत चुनावों के नतीजे सामने आ गए हैं, तो इसका आगामी प्रदेश में अलग-अलग पार्टियों की पकड़ और आगामी लोकसभा-विधानसभा चुनावों में पड़ने वाले असर को लेकर राजनीतिक विश्लेषण जारी है.
ममता बनर्जी का दबदबा है कायम
नतीजों से साफ है कि पश्चिम बंगाल के लोगों ने पंचायत चुनाव में ममता बनर्जी के ऊपर जमकर प्यार लुटाया है. तृणमूल कांग्रेस ने लिए ये चुनाव सुकून देने वाला है. बंगाल के लोगों ने जिस तरह से ममता बनर्जी पर भरोसा जताया है, उससे ममता बनर्जी जरूर ये दावा कर सकती हैं कि अभी भी प्रदेश में उनका और उनकी पार्टी का ही एकछत्र वर्चस्व है.
नतीजों से बीजेपी के मंसूबों को झटका
वहीं प्रदेश में ममता बनर्जी के वर्चस्व को नेस्तनाबूद करने के राजनीतिक मंसूबों के साथ धीरे-धीरे आगे बढ़ रही बीजेपी के लिए नतीजे उतने अच्छे नहीं रहे हैं. हालांकि बीजेपी के लिए थोड़ी राहत की बात ये है कि प्रदेश में विपक्ष के तौर पर सीपीएम और कांग्रेस के ऊपर उसकी बढ़त पंचायत चुनावों में भी बरकरार रही.
बीजेपी को सीपीएम-कांग्रेस के ऊपर बढ़त
बीजेपी पिछले 10 साल में पश्चिम बंगाल में तेजी से उभरी. 2011 में ममता बनर्जी ने सीपीएम की 34 साल से चली आ रही सत्ता को उखाड़ फेंका और तब से पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस की ही सरकार है. हालांकि इस दौरान बीजेपी ने प्रदेश में एक तरह से शून्य से सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी बनने का सफर तय किया. सीपीएम और कांग्रेस का जनाधार घटते गया और उसकी जगह बीजेपी प्रदेश के लोगों के लिए विपक्ष के तौर पर नया विकल्प बन गई.
ग्रामीण इलाकों में बीजेपी की पकड़ कमजोर
बीजेपी ने जिस तरह से 2019 के लोकसभा चुनाव और 2021 के विधानसभा चुनाव में प्रदर्शन किया था, उसकी वजह से बीजेपी को उम्मीद थी कि उसका जनाधार पश्चिम बंगाल के ग्रामीण इलाकों में तेजी से बढ़ेगी. हालांकि नतीजों से बीजेपी को निराशा हाथ लगी है. 2019 और 2021 में बीजेपी का जो भी प्रदर्शन रहा था, उसमें शहरी इलाकों में पार्टी की मजबूत होती पकड़ का ज्यादा प्रभाव था. बीजेपी इन दोनों चुनाव के बाद प्रदेश के ग्रामीण अंचलों में अपना जनाधार बढ़ाने के लिए काफी मेहनत कर रही थी. बीजेपी के तमाम आला नेता भी दिल्ली से आकर लगातार बंगाल का दौरा कर रहे थे. बीजेपी को उम्मीद थी कि इस बार के पंचायत चुनावों में पार्टी का प्रदर्शन काफी बेहतर होगा.
कैडर आधारित राजनीति में ममता आगे
पश्चिम बंगाल में 2011 की जनगणना के मुताबिक 68 फीसदी से ज्यादा आबादी ग्रामीण इलाकों में रहती है. जब तक ग्रामीण इलाकों में बीजेपी की पकड़ मजबूत नहीं होगी, तब तक पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी के वर्चस्व को चुनौती देना बीजेपी के लिए आसान नहीं है. पश्चिम बंगाल में कैडर आधारित राजनीति की परंपरा रही है. इस कैडर आधारित राजनीति की शुरुआत गांव-देहातों में कैडर मॉड्यूल के विकास से होती है. सीपीएम का यहां जून 1977 से लेकर मई 2011 के बीच लगातार 34 साल शासन रहा. सीपीएम की जीत का मुख्य कारण उसके कैडर का मजबूत होना ही रहता था.
कैडर आधारित राजनीति का रहा है इतिहास
ममता बनर्जी ने जनवरी 1998 में कांग्रेस से अलग होकर तृणमूल कांग्रेस की नींव रखी. ममता बनर्जी ने 2011 में सत्ता में आने से पहले 13 सालों तक उसी मॉड्यूल पर काम किया जिसकी बदौलत सीपीएम ने पश्चिम बंगाल पर अपना एकछत्र राज स्थापित कर लिया था. ममता बनर्जी ने गांव-देहातों में पार्टी का कैडर तैयार किया. पश्चिम बंगाल में कैडर का मॉड्यूल बाकी राज्यों से थोड़ा अलग है. यहां कैडर पार्टी के लिए जान देने और जान लेने के भी तैयार रहते हैं. यही वजह है कि देश के बाकी राज्यों में अब चुनावी हिंसा न के बराबर देखने को मिलता है, लेकिन पश्चिम बंगाल में अभी भी चुनावी हिंसा बहुतायत में देखने को मिलती है. उसमें भी पंचायत चुनावों में ये चरम पर पहुंच जाता है क्योंकि पार्टी के कैडर का आधार गांवों से ही शुरू होता है.
टीएमसी के कैडर आधार को तोड़ना मुश्किल
सीपीएम की तर्ज पर ममता बनर्जी भी इसी कैडर आधारित राजनीति के तहत तृणमूल कांग्रेस का जनाधार बढ़ाते गई, जिससे पिछली सदी के 80 और 90 के दशक में कांग्रेस नहीं कर पाई थी. बीजेपी को ये अच्छे से एहसास है कि अगर पश्चिम बंगाल की राजनीति में लंबे समय तक के लिए पकड़ बनाना है तो उसे भी प्रदेश के ग्रामीण इलाकों में जनाधार बढ़ाना होगा. विपक्ष के तौर पर तो बीजेपी यहां सीपीएम और कांग्रेस की जगह ले ली है, लेकिन ममता बनर्जी के दबदबे को तोड़ने के लिए बीजेपी को गांवों में टीएमसी के कैडर में सेंध लगानी होगी. इसके साथ ही अपना कैडर भी टीएमसी की तर्ज पर ही तैयार करना होगा. बीजेपी पिछले 10 साल से कोशिश भी कर रही है. इस बार के पंचायत चुनावों से उसे उसकी उम्मीद भी थी. हालांकि बीजेपी को नतीजों से झटका लगा है.
गांवों में जनाधार के लिहाज से पंचायत चुनाव अहम
ऐसे तो सामान्य तौर से पंचायत चुनावों का विधानसभा और लोकसभा चुनावों से कोई समानता नहीं होती है. मतदाताओं के लिए मुद्दों का महत्व अलग-अलग कैटेगरी के चुनावों के लिए अलग-अलग होता है. यही वजह है कि तीनों तरह के चुनावों में आम तौर से वोटिंग पैटर्न भी अलग-अलग होते हैं. बाकी राज्यों में तो ये देखा जाता है, लेकिन पश्चिम बंगाल की राजनीति में औम तौर पर अलग ही हालात देखे जाते रहे हैं. यहां एक अवधि के दौरान जो भी पार्टी प्रदेश की सरकार में होती है, उसका स्थानीय निकाय चुनावों ( पंचायत और नगर निगम दोनों), विधानसभा चुनाव और लोकसभा चुनाव में एक समान तरीके से प्रभुत्व देखा जाता है. इस कारण से पार्टी की पकड़ को बरकरार रखने के लिहाज से पश्चिम बंगाल में पंचायत चुनावों का महत्व काफी ज्यादा है और इस नजरिए से बीजेपी के राजनीतिक मंसूबों को पंचायत चुनाव के नतीजों से करारा झटका लगा है.
पश्चिम बंगाल में ममता का जादू बरकरार
वहीं 2011, 2016 और 2021 के विधानसभा चुनाव में जीत की हैट्रिक लगाने के बाद ममता बनर्जी ने पंचायत चुनाव नतीजों से एक बार फिर साबित किया है कि दिल्ली से चाहे राजनीतिक विश्लेषक या बीजेपी के तमाम बड़े नेता जो भी दावा करें, पश्चिम बंगाल में उनके जादू अभी भी उसी तरह से बरकरार है.
पंचायत चुनाव नतीजों में एक बार और भी उभरी है. भले ही बीजेपी को मनमुताबिक जीत नहीं मिली हो, लेकिन इसके बावजूद उसके लिए भविष्य में उम्मीदें बरकरार है, इस बात का संकेत जरूर मिला है. पश्चिम बंगाल में ग्राम पंचायतों में कुल 63,229 सीटें, पंचायत समितियों में 9730 सीटें और जिला परिषद में 928 सीटें हैं.
पश्चिम बंगाल में 63,229 ग्राम पंचायत सीटों में से 35 हजार से ज्यादा पर टीएमसी ने जीत दर्ज की है. वहीं बीजेपी को इन पंचायत सीटों में से 9,800 से ज्यादा सीटों पर जीत मिली है.सीपीएम को 3 हजार के आसपास और कांग्रेस को 26 सौ के आसपास पंचायत सीटों पर जीत मिली है.
उसी तरह से पंचायत समिति में टीएमसी को कुल 9730 सीटों में से साढ़े छ हजार के आस पास सीटें टीएमसी के पास गई हैं. वहीं बीजेपी के खाते में एक हजार के आस पास सीटें गई है.
जिला परिषद की बात करें तो कुल 928 में से 8 सौ से भी ज्यादा सीटों पर टीएमसी ने कब्जा कर लिया है, जबकि बीजेपी के खाते में 30 से भी कम सीटें आई हैं.
2018 के मुकाबले बीजेपी के प्रदर्शन में सुधार
पिछले यानी 2018 के पंचायत चुनाव के नतीजों पर गौर करें तो ग्राम पंचायत सीटों पर भले ही इस बार भी बीजेपी, तृणमूल कांग्रेस से काफी पीछे रह गई है, लेकिन पिछली बार के मुकाबले बीजेपी के प्रदर्शन में काफी सुधार हुआ है. 2018 में बीजेपी को 5,779 ग्राम पंचायत सीटों पर जीत मिली थी. यानी इस बार बीजेपी पिछली बार से अपने प्रदर्शन में दोगुना इजाफा करने से थोड़ा कम रही.
पंचायत समिति में भी पिछली बार बीजेपी को 769 सीटें मिली थी, जो इस बार हजार तक के करीब पहुंच गई है. पिछली बार बीजेपी को जिला परिषद की महज़ 22 सीटों पर जीत मिली थी,. जिला परिषद में इस बार भी बीजेपी 30 के आंकड़े को पार नहीं कर पाई है.
भले ही इस बार भी टीएमसी का दबदबा पंचायत चुनावों में बरकरार रहा, लेकिन बीजेपी ग्राम पंचायतों और पंचायत समितियों में तो पिछली बार से बहुत ज्यादा सीटें बढ़ाने में कामयाब रही है. वहीं जिला परिषद में भी कुछ सीटें बढ़ाने में बीजेपी सफल रही है. ये एक तरह से बीजेपी के लिए राहत की बात है कि ग्रामीण इलाकों में उसकी पकड़ धीरे-धीरे ही सही , बढ़ रही है. यही बात ममता बनर्जी के लिए भविष्य के नजरिए से टेंशन बढ़ाने वाली साबित हो सकती है.
पंचायतों में सीपीएम-कांग्रेस का भी बढ़ा रकबा
इस बार के पंचायत चुनाव में एक और बदलाव पर ध्यान दिए जाने की जरूरत है. कांग्रेस के साथ ही सीपीएम और बाकी लेफ्ट दलों का प्रभाव ग्राम पंचायतों की सीटों पर पिछली बार से बढ़ा है. पिछली बार सीपीएम और बाकी लेफ्ट दलों को मिलाकर करीब 15 सौ ग्राम पंचायत की सीटों पर ही जीत मिली थी. वहीं इस बार लेफ्ट पार्टियों का आंकड़ा 31 सौ के पार कर गया है. उसी तरह से कांग्रेस को पिछली बार ग्राम पंचायत की 1066, पंचायत समिति की 133 और जिला परिषद की 6 सीटों पर जीत मिली थी. इस बार कांग्रेस को ग्राम पंचायत की करीब 26 सौ, पंचायत समितियों की 260 से ज्यादा और जिला परिषदों में 10 से ज्यादा सीटें मिलती दिख रही हैं. 2018 के मुकाबले ग्राम पंचायतों की सीटों पर कांग्रेस और लेफ्ट दलों का दायरा बढ़ना, ये एक ऐसा ट्रेंड है जिससे बीजेपी और टीएमसी दोनों की भी मुश्किलें बढ़ सकती है.
फिलहाल बीजेपी से ही ममता को चुनौती
बीजेपी पश्चिम बंगाल में शून्य से शुरुआत करते हुए मुख्य विपक्षी पार्टी की भूमिका में आई है. 2011 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी कुल 294 में से 289 सीटों पर चुनाव लड़ी और एक भी सीट जीतने में कामयाब नहीं हो सकी. उस वक्त पश्चिम बंगाल में बीजेपी की क्या हालत थी, ये इसी से पता चलता है कि उसके 285 उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई थी. हालांकि बीजेपी 4% वोट हासिल करने में कामयाब रही थी. 2016 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी 291 सीटों पर चुनाव लड़ी और पहली बार 3 सीटें जीतने में सफल रही.पहली बार बीजेपी ने इसी विधानसभा चुनाव में 10 फीसदी से ज्यादा वोट हासिल करने के पड़ाव को पार किया. यहीं से राज्य में तृणमूल कांग्रेस के लिए अब सीपीएम और कांग्रेस की बजाए बीजेपी मुख्य विरोधी पार्टी बनने की राह पर चलने लगी.
2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी का दिखा था दम
2019 के लोकसभा चुनाव में तो बीजेपी ने ममता बनर्जी के साथ लड़ाई को बहुत ही करीबी बना दिया था. उस चुनाव में राज्य की 42 लोकसभा सीटों में से 18 पर बीजेपी ने कब्जा कर लिया था. बीजेपी को 2014 के आम चुनाव के मुकाबले 16 सीटों का फायदा हुआ था. वहीं ममता बनर्जी की टीएमसी को बीजेपी से बड़ा झटका लगा था. टीएमसी सिर्फ़ 22 सीटें ही जीत पाई थी. टीएमसी को 2014 के मुकाबले 12 सीटों का नुकसान उठाना पड़ा था. वहीं कांग्रेस 2 सीटों पर सिमट गई थी, जबकि सीपीएम का तो पूरी तरह से ही सफाया हो गया था.
2019 में वोट शेयर भी बढ़ाने में भी बीजेपी सफल
इतना ही नहीं 2019 के आम चुनाव में बीजेपी वोट शेयर के मामले में भी टीएमसी के करीब पहुंच गई थी. 22.76% के उछाल के साथ बीजेपी को 40.7% हासिल हुए थे. जबकि टीएमसी को 43.3% हासिल हुए थे. बीजेपी वोट के मामले में टीएमसी से सिर्फ़ 2.6% रही थी. जबकि 2014 के लोकसभा चुनाव में टीएमसी और बीजेपी के बीच की वोट शेयर का फर्क 22 फीसदी से ज्यादा था. 2014 में बीजेपी जहां सिर्फ 2 लोकसभा सीट जीत पाई थी, वहीं टीएमसी के खाते में 34 सीटें गई थी. कांग्रेस को इस चुनाव में 4 सीटें और सीपीएम की गाड़ी 2 सीटों पर रुक गई थी.
2021 के चुनाव में मुख्य विपक्षी पार्टी बनी बीजेपी
2021 के विधानसभा चुनाव में 74 सीटों के फायदे के साथ बीजेपी 77 सीटें जीतकर दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बनी और सीपीएम- कांग्रेस को पछाड़ते हुए मुख्य विपक्षी पार्टी बनने में भी कामयाब हो गई. लेकिन इस विधानसभा चुनाव में ममता बनर्जी ने भी अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करते हुए चुनाव से पहले से लगाई जा रही तमाम अटकलों को झूठा साबित कर दिया. ममता बनर्जी अब तक की सबसे बड़ी जीत हासिल करने में कामयाब रही. टीएमसी को सबसे ज्यादा 215 सीटें हासिल हुई. इसके बावजूद बीजेपी ने अपने प्रदर्शन से ये तो बता ही दिया कि भविष्य में पश्चिम बंगाल में टीएमसी के साथ सिर्फ बीजेपी का ही मुकाबला होगा. 2021 के विधानसभा चुनाव में भले ही ममता बनर्जी ने सबसे बड़ी जीत हासिल की, लेकिन बीजेपी का वोट शेयर में करीब 28 फीसदी का उछाल आया और उसे करीब 38 फीसदी वोट हासिल हुए.
सीपीएम-कांग्रेस के कमजोर होने का बीजेपी को फायदा
2016 और 2021 विधानसभा चुनाव के साथ ही 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों का विश्लेषण करें तो ये साफ है कि पश्चिम बंगाल में जैसे-जैसे सीपीएम और कांग्रेस का दायरा सिकुड़ते गया, उस स्पेस को बीजेपी हासिल करते गई और यही वजह है कि मौजूदा समय में पश्चिम बंगाल में बीजेपी विपक्ष का पूरा स्पेस हथिया चुकी है. इतना ही नहीं भविष्य में ममता बनर्जी को प्रदेश में अगर किसी से चुनौती मिलेगी तो वो पार्टी बीजेपी ही है, ये भी तय है.
बंगाल में हिंदुत्व के नाम पर ध्रुवीकरण आसान नहीं
अब सवाल उठता है कि तमाम कोशिशों के बावजूद पश्चिम बंगाल के पंचायत चुनावों में बीजेपी का प्रदर्शन उतना बेहतर क्यों नहीं रहा, जिससे बीजेपी ममता बनर्जी की चुनौती को पार कर लेती. दरअसल हमने पहले ही कहा है कि प्रदेश में कैडर आधारित राजनीति का बोलबाला रहा है, जिसमें फिलहाल ममता बनर्जी को मात देना आसान नहीं है. ऐसा नहीं है कि बीजेपी ने अपनी ओर से प्रयास नहीं किए हैं. पिछले कुछ सालों से पश्चिम बंगाल में वोटों के ध्रुवीकरण की कोशिशों को भी बल मिलते हुए हमने देखा है. हिन्दुत्व के मुद्दे को भी उभार मिला है. इसका असर भी पिछले कुछ चुनावों में हमने देखा था. 2019 के लोकसभा चुनाव और 2021 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी के प्रदर्शन में हुए सुधार में ये एक बड़ा कारक रहा है. हालांकि हिन्दुत्व कार्ड या वोटों के ध्रुवीकरण की तमाम कोशिशों का उतना असर अभी पश्चिम बंगाल में नहीं दिखता है जिसकी बदौलत बीजेपी से ममता बनर्जी की सत्ता को चुनौती मिल सके.
बीजेपी को नई रणनीति पर करना होगा काम
टीएमसी, बीजेपी समेत तमाम दल पश्चिम बंगाल के पंचायत चुनावों को आगामी लोकसभा चुनाव के लिहाज से प्रदेश की जनता का रुख भांपने के प्रयास में जुटे थे. पंचायत चुनाव के नतीजों से ये स्पष्ट है कि अब बीजेपी को यहां अपने राजनीतिक मंसूबों को पंख देने के लिए नई रणनीति पर काम करनी होगी. बीजेपी 2024 के लोकसभा चुनाव में 42 में से 35 सीटें जीतने का लक्ष्य लेकर अपनी रणनीतियों को आगे बढ़ा रही है. इसके साथ ही बीजेपी 2026 में होने वाले आगामी विधानसभा चुनाव में भी ममता बनर्जी को सत्ता से बेदखल करने का दंभ भर रही है. लेकिन पंचायत चुनाव के नतीजों से बीजेपी के इन दोनों दावों को झटका तो जरूर लगा होगा. लोकसभा चुनाव में अभी भी 9 से 10 महीने का वक्त बचा है, ऐसे में इतना जरूर है कि पंचायत चुनाव के नतीजे बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व को पश्चिम बंगाल के लिए नई रणनीति पर काम करने के बारे में सोचने पर जरूर मजबूर करेगा. पंचायत चुनाव नतीजों से बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व की टेंशन जरूर बढ़ गई होगी. पश्चिम बंगाल में 2019 के प्रदर्शन को दोहराना या फिस उससे भी आगे जाना बीजेपी के लिए इतना आसान नहीं है.
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