राहुल गांधी की भारत को जोड़ने की साढ़े चार महीने लंबी और चार हजार किलोमीटर तय करने वाली यात्रा अब खत्म हो चुकी है. मोटे तौर पर इस यात्रा के तीन सियासी मकसद थे. पहला कि अपना जोशोखरोश खो चुकी कांग्रेस को जमीनी स्तर पर मजबूत किया जाये. दूसरा, राहुल गांधी को बीजेपी द्वारा बनाई गई "पप्पू" वाली इमेज से बाहर निकालकर एक गंभीर नेता के रूप में स्थापित किया जाए. तीसरा यह कि इस भारत जोड़ो यात्रा के जरिये विपक्ष को एकजुट किया जाये साथ ही राहुल गांधी को विपक्ष के सर्वमान्य नेता के रूप में पेश किया जाये.
कह सकते हैं कि कांग्रेस अपने पहले दोनों मकसद को पूरा करने में उम्मीद के मुताबिक कामयाब हुई है लेकिन वह राहुल गांधी को विपक्ष का एकमात्र और बड़ा चेहरा बनाने में अब भी फेल ही साबित हुई है. इसलिये बड़ा सवाल ये है कि नफ़रत के बाजार में मोहब्बत की दुकान खोलने वाले राहुल गांधी अगर अब भी समूचे विपक्ष को एकजुट नहीं कर पाए तो 2024 में वे मोदी सरकार को हटाने का ख़्वाब किस दम पर पाले बैठे हैं? इसलिए कि बिखरा हुआ विपक्ष किसी भी सरकार को बदलने की ताकत नहीं रखता औऱ शायद इसीलिए देश की जनता उस पर भरोसा नहीं करती कि जो खुद एकजुट नहीं है वो उसकी उम्मीदों को भला कैसे परवान चढ़ाएगा.
हालांकि इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि राहुल गांधी ने अपनी इस यात्रा के जरिए महंगाई, बेरोजगारी और नफ़रत भरे माहौल के खिलाफ देश में एक मोमेंटम तो बनाया है लेकिन सवाल यही है कि 2024 के लोकसभा तक क्या वे इसे बरकरार रख पाएंगे? अगर कांग्रेस के कार्यकर्ता इसे अगले सवा साल तक जमीनी स्तर पर कायम रखने के लिए ईमानदार व गंभीर कोशिश नहीं करेंगे तो ये मान लेना चाहिए कि राहुल की इस यात्रा की सारी कवायद बेकार चली जायेगी और पार्टी को इसका कोई बहुत बड़ा सियासी फायदा भी नहीं होने वाला है.
हालांकि इसमें कोई शक नहीं कि आज़ाद भारत के इतिहास में पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर की पदयात्रा के बाद ये ऐसी पहली पदयात्रा हुई जिसने देश के जनमानस को सरकार की कुछ गलत नीतियों के ख़िलाफ़ जागरुक करने का काम किया है. राहुल ने इस यात्रा के ज़रिए उन सभी सवालों को भी ख़ारिज कर दिया है जो उन पर उठते रहे थे. खासकर ये कि वे अध्यक्ष बनकर पार्टी की कमान अपने हाथ में रखना चाहते थे. हालांकि राहुल की इस लंबी यात्रा पर नजर रखने वाले कई सियासी जानकार मानते हैं कि इस यात्रा के खत्म होते ही विपक्ष की एकजुटता के लिये अभी से अंदाजा लगाना और उसका निष्कर्ष निकालना, बेहद जल्दबाजी होगी. इसलिए कि तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के खिलाफ भी समूचा विपक्ष तब अचानक ही एकजुट हुआ था और तब किसी ने उम्मीद भी नहीं कि थी कि वी.पी.सिंह ही उस संयुक्त विपक्ष का नेतृत्व करते हुए प्रधानमंत्री भी बन जाएंगे.
इसलिए ममता बनर्जी, केसीआर, नीतीश कुमार और अरविंद केजरीवाल सरीखे जो राहुल को अब तक बहुत हल्के में ले रहे थे उन्हें भी अब अहसास हो गया कि इस यात्रा ने राहुल गांधी को एक गंभीर नेता के बतौर स्थापित किया है और ये भी कि कांग्रेस के बगैर विपक्षी एकता की कल्पना करना भी बेमानी है. पूरी यात्रा के दौरान राहुल गांधी की जिस तरह की तस्वीरें सामने आई हैं उनसे पता लगता है कि वे समाज के हर वर्ग के साथ खुद को कनेक्ट करने में काफी हद तक कामयाब हुए हैं. कहीं वे बच्चों के साथ खेल रहे हैं, कहीं बुज़ुर्ग महिला का हाथ थाम रहे हैं तो कहीं आम लोगों को गले लगा रहे हैं.
इन तस्वीरों ने भी राहुल गांधी की एक सकारात्मक नेता की छवि बनाई है. हिंदुत्व की पिच के सबसे गंभीर खिलाड़ी माने जाने वाले नरेंद्र मोदी को जवाब देने के लिए राहुल ने अपनी यात्रा के दौरान महत्वपूर्ण मंदिरों में जाकर ये संदेश देने की भी कोशिश की है कि कांग्रेस हिंदू विरोधी नहीं है और वह साफ्ट नहीं बल्कि अब उदारवादी हिंदू समर्थक और धर्मनिरपेक्षता को साथ लेते हुए आगे बढ़ रही है. कहना गलत नहीं होगा कि राहुल गांधी ने इस यात्रा के जरिए हिंदुस्तान को देखा है, ज़ाहिर है उन्होंने देश के हर गंभीर मुद्दे को भी समझा होगा. बीजेपी के नेता भले ही इस तथ्य को न मानें लेकिन एक सच ये भी है कि इस यात्रा के जरिये राहुल गांधी ने बीजेपी के मज़बूत नेतृत्व के सामने एक ताकतवर विकल्प के रूप में खड़े होने की कोशिश भी की है. यदि राहुल को बराबर का नेता ना भी मानें तब भी अब वो इस कतार में तो आ ही गए हैं कि अब लोग उन्हें गंभीरता से ले रहे हैं.
ये बहस का अलग विषय हो सकता है कि भारत जोड़ो के अपने नारे में राहुल गांधी किस हद तक कामयाब हुए हैं और ये 2024 के चुनाव के वक़्त वोटों मे कितना तब्दील होगा ये तो बाद में ही पता चलेगा. लेकिन पूरी यात्रा के दौरान राहुल गांधी जिस तरह से लगातार प्रधानमंत्री को घेरते रहे, उससे उन्हें फ़ायदा तो हुआ ही है. अब वे कांग्रेस के निर्विवादित नेता तो बन ही गए हैं साथ ही पार्टी में विद्रोहियों का जो कथित जी-20 समूह था, वो भी शांत हो गया है और सबने राहुल गांधी के नेतृत्व को स्वीकार कर लिया है. बताया जा रहा है कि राहुल गांधी अब इसी तरह की एक और यात्रा का प्लान बना रहे हैं जो जुलाई में गुजरात से शुरू होकर पूर्वोत्तर राज्यों को कवर करते हुए शिलांग में जाकर खत्म होगी.
हालांकि सोमवार को अपनी यात्रा का समापन करते हुए श्रीनगर में राहुल के साथ ही उनकी बहन प्रियंका गांधी वाड्रा ने भी अपने मन की कुछ ऐसी बातें कही हैं. जो इन्हें अपनी पुश्तैनी जमीन के लोगों के साथ दिल से जोड़ने वाली नजर आती हैं. लेकिन इनका गहरा सियासी मतलब भी है क्योंकि अगले कुछ महीने में जम्मू-कश्मीर में विधानसभा के चुनाव होने हैं. लिहाज़ा, इसे सूबे में कांग्रेस की सियासी जमीन मजबूत करने से जोड़कर भी देखा जा रहा है. राहुल गांधी ने कहा कि, "उन्हें जम्मू-कश्मीर की धरती पर पैदल नहीं चलने की सलाह दी गई थी क्योंकि उन पर हमला हो सकता है. लेकिन मैंने इस पर विचार किया और फिर फैसला किया कि मैं अपने घर और अपने लोगों (जम्मू-कश्मीर में) के साथ चलूंगा. क्यों नहीं उन्हें (उनके दुश्मनों को) मेरी शर्ट का रंग बदलने का मौका दिया जाना चाहिए, उन्हें इसे लाल करने दें. कश्मीर के लोगों ने मुझे हथ गोले नहीं दिए, सिर्फ प्यार भरा दिल दिया."
तो वहीं प्रियंका गांधी ने कहा कि इस देश के लोगों में अहिंसा और संविधान के लिए जुनून है. मैं जम्मू-कश्मीर के लोगों को धन्यवाद देती हूं क्योंकि यहां के लोगों ने हमें दिल से समर्थन दिया है. प्रियंका ने ये भी कहा कि, '"जब राहुल कश्मीर की ओर बढ़े, तो उन्होंने मां और मुझे एक संदेश भेजा, जिसमें उन्होंने कहा कि उन्हें यह महसूस हो रहा है कि वह घर जा रहे हैं."
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