कर्पूरी ठाकुर को भारत सरकार ने भारत रत्न से नवाज़ा है, ये एक क़ाबिले तारीफ क़दम है. कर्पूरी ठाकुर ने लम्बे समय तक उत्तर भारत की राजनीति को और विशेष रूप से बिहार की राजनीति को प्रभावित किया. वे उस दौर के नेता थे, जब विपक्ष की राजनीति कांग्रेस विरोध की धुरी पर टिकी थी, वे एक बार संयुक्त बिहार (तब झारखंड अलग नहीं हुआ था) के उप-मुखयमंत्री और दो बार जनता पार्टी की सरकार में मुख्यमंत्री रहे. कर्पूरी ठाकुर अपने लम्बे जीवन काल में ज़्यादातर वक्त नेता प्रतिपक्ष रहे. उनकी सबसे बड़ी खूबियों में से एक खूबी ये थी की उनके विरोधी उन पर कितना भी हमला करें, वो कभी उसका जवाब नहीं देते थे. हमेशा राज्य के भ्रमण पर रहते थे, किसी भी गांव में कोई छोटी सी घटना भी हो जाए तो वहां मौजूद रहते थे. सोशलिस्ट पार्टी से लेकर लोकदल तक कर्पूरी ठाकुर ने हमेशा समाज के दबे कुचले गरीब और हाशिए पर खड़े लोगों की लड़ाई लड़ी.


सामाजिक न्याय के अलंबरदार 


1977 में जब वे बिहार के मुख्यमंत्री थे तो कर्पूरी जी ने पिछड़े वर्ग के लोगों के लिए सरकारी नौकरी में मुंगेरीलाल कमीशन के आरक्षण को लागू किया, जिसका राज्य में अगड़ों ने भारी विरोध किया. आगे चलकर दोहरी सदस्य्ता के मुद्दे पर जनता पार्टी टूट गई और फिर रामसुंदर दास राज्य के मुख्यमंत्री बने. कर्पूरी ठाकुर ने अपने सिद्धांतों से कभी समझौता नहीं किया. एक बार उनका चौधरी चरण सिंह से एक राजनीतिक मुद्दे को लेकर मतभेद इतना गंभीर हो गए कि लोकदल के दो टुकड़े हो गए. चौधरी चरण सिंह को छोड़ देवीलाल, बीजू पटनायक, मुलायम सिंह यादव और राजस्थान के एक बड़े जाट नेता ने कर्पूरी ठाकुर का साथ दिया.



तो, ये कद था कर्पूरी ठाकुर का. चौधरी चरण सिंह को भी अपनी गलती का एहसास हुआ और फिर से लोकदल का एकीकरण हो गया. कर्पूरी ठाकुर के सामने आर्थिक तंगी हमेशा एक चुनौती बनी रही, वो हमेशा विधायकों को अपने दम पर जिताते रहे वो भी बिना पैसे के. पार्टी उम्मीदवारों को इलेक्शन सिंबल और चंदे की रसीद देते थे, कहते थे कि चंदा कटवाएं और लड़ें. वो बिलकुल फक्कड़ मिज़ाज नेता थे. हज़ारों कार्यकर्ताओं और समर्थकों के नाम उन्हें याद थे, याददाश्त उनकी ज़बरदस्त थी. वो कहीं भी जाते खुद से पहले सुरक्षा गार्ड्स और ड्राइवर को देखते की उन्होंने खाया है कि नहीं?


उनके कद के राजनेता बेहद कम 


जब वीपी सिंह ने कांग्रेस से इस्तीफा दिया और बोफोर्स के मुद्दे को उठा कर देश की राजनीति को गरमाना शुरू किया तो कर्पूरी ठाकुर ने बिहार में जनसभा की एक व्यापक रणनीति तैयार की. तय किया कि एक तरफ रैली की कमान वो खुद संभालेंगे और दूसरी तरफ उनके विश्वासपात्र और पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव शमीम हाशमी यानी हमारे पिता संभालेंगे. दोनों नेताओं के पहले चरण की सभा का समापन समस्तीपुर के पास पूसा में एक संयुक्त रैली में होना था. सीतामढ़ी से रैली को सम्बोधित कर जब हमारे पिता जी शमीम हाशमी जब तक कार्यक्रम के अनुसार पूसा रैली स्थल पर पहुंचे तो देखा सभा स्थल पर एक अजब तरह की ख़ामोशी थी. रैली में आए लोग, कार्यकर्ता और मुक़ामी नेताओं के चेहरे उतरे हुए थे. पिता जी ने पूछा कि क्या हुआ ? कर्पूरी जी किधर हैं? लोगों ने रोते हुए जवाब दिया कि कर्पूरी जी नहीं रहे, खबर आई है कि दिल की गति रुक जाने से उनकी मौत हो गई.



इतना तय है कि अगर कर्पूरी ठाकुर कुछ समय और ज़िंदा रहते तो बाद में केंद्र में बनने वाली जनता दल सरकार की तस्वीर कुछ और होती. क्योंकि देवीलाल, मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार इन सभी के नेता कर्पूरी ठाकुर थे, सभी समाजवादी उनके नेतृत्व में लामबंद थे, वो सच में गुदड़ी के लाल थे, और गरीबी ने भी अंत तक उनका पीछा नहीं छोड़ा. अपने पीछे वो सम्पत्ति के नाम पर सिर्फ खपरैल मकान विरसे में छोड़ गए. लेकिन पिछडों, मेहनतकश और गरीब तबका के लिए उन्होंने जो लड़ाई की ज़मीन तैयार की उसका नेतृत्व बिहार में लालू यादव और नीतीश कुमार ने किया तो उत्तर प्रदेश और हरियाणा जैसे राज्य में मुलायम सिंह यादव और देवीलाल ने किया.


यहां तक कि प्रधानमंत्री बनने के बाद विश्वनाथ प्रताप सिंह को भी केंद्र में मंडल कमीशन लागू करना पड़ा. सरकार ने उन्हें मरणोपरांत भारत रत्न से सम्मानित किया है. देखा जाए तो कर्पूरी ठाकुर खुद भी एक रत्न थे, सच में वे गुदड़ी के लाल थे, एक ऐसे लाल जिनकी रोशनी ने सामाजिक न्याय और बराबरी के अलख को आज भी जलाए रखा है. कहते भी हैं- "हजारों साल नरगिस अपने बेनूरी को रोती है, तब जाकर होता है चमन में दीदावर पैदा".



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