भाजपा ने साधी 'कमंडल' की राजनीति और हमेशा के लिए चूक गए 'मंडल' के राजनीतिकार
आज से महीने भर बाद 22 जनवरी को अयोध्या में राम मंदिर का भव्य लोकार्पण होने जा रहा है. यह घटना स्वाभाविक रूप से भारतीय जनता पार्टी के जन्म से लगातार उसके घोषणापत्रों में शामिल रहे तीन अहम वादों में से एक के पूरा होने का ऐतिहासिक गवाह होगी. इसके साथ ही कमंडल की राजनीति पर निर्णायक या कहें, प्रतीकात्मक रूप से निर्णायक विराम लग जाएगा. सवाल है कि अस्सी के दशक के अंत में कमंडल के बरअक्स और समानांतर शुरू हुई मंडल की राजनीति का अब क्या होगा?
हिंदुत्व की राजनीति और राजनीति का हिंदुत्व
पीछे मुड़कर देखें, तो हम पाते हैं कि हिंदुत्व की राजनीति में नब्बे का दशक एक मूलभूत बदलाव को रेखांकित करता है. हिंदुत्व के विचार को हिंदू महासभा की विचारधारा के बतौर संहिताबद्ध करने वाले विनायक दामोदर सावरकर और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की ब्राह्मणवादी वर्चस्व वाली सोच से भाजपा ने खुद को मंडल-कमंडल उभार के दौरान ही जाने-जाने-अनजाने मुक्त करना शुरू कर दिया था. यह बात हो सकता है आज भी कुछ लोग मानने को तैयार न हों, लेकिन बीते तीन दशक के दौरान भाजपा की चुनावी कामयाबियों की फेहरिस्त के पीछे जो सामाजिक-राजनीतिक कारण हैं वे अपने आप संघ और सावरकर से भाजपा के वैचारिक विक्षेप की गवाही देते हैं.
मंडल की राजनीति के उभार और उसके ठीक समानांतर राम मंदिर आंदोलन ने पहली बार जाति-बिरादरी के मुद्दों को हिंदुत्व की बहस में जगह दिलवाने का काम किया. ऐसा नहीं है कि जाति को लेकर हिंदुत्ववादी हलके में कोई सचेत अथवा निरंतर प्रयास किया गया. यह उस दौर की करवट लेती राजनीति का परिणाम था, जिसमें सवर्ण जातियां और पिछड़ी जातियां दोनों ही मंडल और कमंडल आंदोलन का हिस्सा बराबर थीं. मंडल आयोग की सिफारिशों के पक्ष में पिछड़े थे तो विरोध में सवर्ण थे. दोनों आंदोलनरत थे. राम मंदिर आंदोलन में सवर्ण से लेकर पिछड़ा और दलित सभी शामिल थे. इन्हीं दोनों समानांतर आंदोलनों ने उमा भारती, विनय कटियार, कल्याण सिंह जैसे पिछड़ा नेताओं को उभारा. बड़ी संख्या में राम मंदिर आंदोलन में ऐसे साधु शामिल थे जो सवर्ण नहीं थे.
हिंदुत्व में सोशल इंजीनियरिंग का समन्वय
आंदोलन और प्रति-आंदोलन से बनता यह नया हिंदुत्व संघ के ब्राह्मणवाद और सावरकर के संहिताबद्ध हिंदुत्व से एक विक्षेप निर्मित कर रहा था. इसका चरित्र संक्रमणकालीन था, लेकिन भविष्य के बीज इसमें छुपे हुए थे. यह संयोग नहीं है कि परंपरागत रूप से मराठी ब्राह्मणों की बपौती माना जाने वाला पद बाबरी विध्वंस के दो साल बाद ही सन 1994 में उत्तर प्रदेश के एक राजपूत के पास चला गया- रज्जू भइया का सरसंघचालक बनना संघ के इतिहास में एक करवट थी. यह बेहोशी की करवट नहीं थी, सचेत थी. यानी राम मंदिर आंदोलन वह मोड़ था जब से संघ और उसके अनुषंगी (कुछ और साल तक विद्यार्थी परिषद को छोड़कर) भाजपा के पश्चगामी हो गए. वैचारिकी अपनी जगह ठस रह गई, राजनीति आगे चलने लगी. यह राजनीति ‘हिंदू होने की भावना’ पर आधारित थी और अपनी प्रकृति में तरल थी. इस तरलता ने भागीदारी की मांग करने वाले तबकों को सबसे पहले खींचा- पहले पिछड़ी जातियां भाजपा के फोल्ड में आईं, उसके बाद दलित. हिंदुत्व की यह नई-नई तरलता दिखने में समावेशी थी क्योंकि अपनी परिभाषा में अस्पष्ट थी.
मंडलवादी दलों की गफलत
इसके उलट, मंडल की राजनीति से उभरे क्षेत्रीय दल अपनी प्रांतीय चुनावी सफलताओं के बूते यह मानते रहे कि हिंदुत्व की काट जाति की राजनीति है (जिसे वे सामाजिक न्याय की राजनीति कहते हैं). हकीकत यह थी कि सामाजिक घटनाक्रम के दबावों में उभरी जाति की राजनीति ही परदे के पीछे से हिंदुत्व को परिष्कृत और परिमार्जित करने का काम कर रही थी और संघ खुद इस नए हिंदुत्व की चुनावी सफलताओं से बंधा हुआ था. सामाजिक न्यायवादी ताकतों की इस गफलत का नतीजा यह हुआ कि संघ में पहला और अंतिम गैर-मराठी, गैर-ब्राह्मण सरसंघचालक बनने के महज बीस साल के भीतर यानी 2014 में 34 प्रतिशत ओबीसी और करीब 45 प्रतिशत गैर-जाटव दलित भाजपा के पाले में आ गए. नरेंद्र मोदी को सत्ताशीर्ष पर बैठाने वाले इसी आम चुनाव के बाद कई जानकारों ने मंडल की राजनीति के अंत की घोषणा कर दी थी.
इसके बाद एक-एक कर के क्षेत्रीय दलों को भाजपा निगलती गई. बावजूद इसके सामाजिक न्याय वाले दलों की गफलत नहीं मिटी क्योंकि सूबों में एकाध सफलताएं मिलती रहीं, विशेष रूप से बिहार से लगातार यह हवा चलाई जाती रही कि जाति ही हिंदुत्व की काट है. इस साल भी जब अगस्त में बिहार के जातिगणना के परिणाम आए, तो मंडल में नए सिरे से हवा भर दी गई.
राजनीतिक नैरेटिव और दृष्टि के अभाव तथा सांगठनिक संकट से जूझ रही कांग्रेस ने उस गुब्बारे को लपक लिया. ओबीसी गणना का नारा देकर राहुल गांधी ने सोचा कि मैदान मार लेंगे, लेकिन 5 दिसंबर को आए चुनाव परिणामों में कांग्रेस तीन मैदानों में खेत रही. अकेले तेलंगाना में जो कांग्रेस जीती है, वहां भी किसी ओबीसी या दलित को मुख्यमंत्री नहीं बनाया गया है जबकि चुनाव से पहले ही अमित शाह ओबीसी मुख्यमंत्री बनाने की घोषणा कर के एक सुर्रा छोड़ आए थे. यह आकांक्षा वहां आज नहीं तो कल कांग्रेस को ले डूबेगी.
कांग्रेस कट गयी अपनी वैचारिकी से
आज स्थिति यह है कि मंडल-2 के फेर में कांग्रेस अपने मूल विचार से (अगर कोई था, तो) पूरी तरह भटक कर वैचारिक जमीन गंवा चुकी है. जो क्षेत्रीय दल उसके साथ होने का दम भर रहे हैं, उनके पास अपने-अपने जातिगत गिरोहों को बचाने के लिए सजातीय वोट के अलावा कोई विचार नहीं है. इसके उलट, सच्चाई यह है कि 41 प्रतिशत ओबीसी, 48 प्रतिशत ईबीसी, 60 प्रतिशत गैर-जाटव दलित और 19 प्रतिशत जाटव वोट भाजपा के हो चुके हैं (2019). पांच साल के भीतर इसमें कोई व्यतिक्रम या घटाव आया हो, इसके कोई संकेत नहीं हैं.
यानी, राम मंदिर आंदोलन से लेकर राम मंदिर के बनने तक कमंडल की मुकम्मल यात्रा पूरी करने के सफर में भाजपा और संघ ने मंडल को भी पूरी तरह साध लिया है. अगले महीने राम मंदिर के हवनकुंड में जब कमंडल की राजनीति की अंतिम समिधा दी जाएगी, तो मंडल की राजनीति भी उसी के साथ हमेशा के लिए स्वाहा हो जाएगी. विडम्बना यह है कि कमंडल के सूत्रधार रहे लालकृष्ण आडवाणी या मुरली मनोहर जोशी जैसे प्रचारक मंडल की इस ऐतिहासिक परिणति का गवाह नहीं बन पाएंगे क्योंकि संघोत्तर हिंदुत्व में उनकी जगह न पहले थी, न आज है.
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