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BLOG: केजरीवाल को सबसे बड़ा झटका, सबसे बड़ी चुनौती

इस बात की संभावना बेहद कम है कि केजरीवाल विधानसभा भंग कर फिर से चुनाव लड़ने के लिए इच्छुक होंगे. हालांकि बीजेपी और कांग्रेस ने केजरीवाल से इस्तीफा मांगना शुरु कर दिया है.

आम आदमी पार्टी के बीस विधायकों की सदस्यता जाना तय है. चुनाव आयोग ने इन सभी को लाभ के पद का दोषी माना है. इन बीस विधायकों में कैलाश गहलोत भी हैं जो केजरीवाल सरकार में मंत्री हैं. जाहिर है कि केजरीवाल सरकार और खुद मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की जबरदस्त किरकिरी हो रही है. बीजेपी और कांग्रेस को केजरीवाल पर हमले करने का नया मौका मिल गया है. यूं तो अब भी आप के पास चुनाव आयोग की सिफारिश के खिलाफ अदालत का दरवाजा खटखटाने का अधिकार बचा है लेकिन देखा गया है कि आमतौर पर अदालतें चुनाव आयोग के फैसलों में हस्तक्षेप नहीं करती हैं. यानि कुल मिलाकर तय है कि दिल्ली में अगले छह महीनों में मिनी विधानसभा चुनाव होने वाला है. इस बात की संभावना बेहद कम है कि केजरीवाल विधानसभा भंग कर फिर से चुनाव लड़ने के लिए इच्छुक होंगे. हालांकि बीजेपी और कांग्रेस ने केजरीवाल से इस्तीफा मांगना शुरु कर दिया है.

आप का आरोप-चुनाव आयोग उसकी बात नहीं सुन रहा है आम आदमी पार्टी ने चुनाव आयोग पर विधायकों की बात नहीं सुनने का आरोप लगाना शुरु कर दिया है और साथ ही उसका कहना है कि फैसले के खिलाफ हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटाया जाएगा. चुनाव आयोग पर बीजेपी की मोदी सरकार के इशारे पर काम करने के भी आरोप लगाए जा रहे हैं. लेकिन यहां आप को देखना होगा कि संसदीय सचिवों की नियुक्ति करके उसने संवैधानिक गलती की थी जिसका खामियाजा उसे उठाना पड़ रहा है. यह सही है कि अकेला दिल्ली राज्य ऐसा नहीं है जहां संसदीय सचिव रखे गये हों. बहुत से राज्यों में ऐसी परंपरा रही है. गोवा और बंगाल ने संसदीय सचिव रखे तो उनके फैसलों को अदालत में चुनौती दी गयी और दोनों राज्यों को अपने सचिव हटाने पड़े. पंजाब राजस्थान जैसे राज्यों में संसदीय सचिव रखे गये लेकिन दोनों राज्यों ने बचाव का रास्ता पहले तैयार कर लिया था. दोनों राज्यों ने पहले ही ऐसा कानून बना दिया जिसमें संसदीय सचिव को लाभ के पद की सूची से बाहर कर दिया गया था. सवाल उठता है कि आखिर संसदीय सचिव रखे ही क्यों जाते हैं. दरअसल मंत्रियों की संख्या तय होने के बाद से विधायकों को इधर उधर खपाने की कोशिशें राज्य सरकारें करती रही हैं. दिल्ली जैसे छोटे राज्य में तो विधायकों की संख्या के दस फीसदी ही मंत्री बनाए जा सकते हैं यानि कुल सात. बड़े राज्यों में कुल विधायकों की संख्या के 15 फीसद विधायक मंत्री बन सकते हैं. पहले विधायकों में से कुछ को निगम या बोर्ड आदि का अध्यक्ष बना दिया जाता था, किसी को बीस सूत्री कार्यक्रम योजना का अध्यक्ष बना दिया जाता था. कुछ संसदीय सचिव बन जाते थे. इन सभी को राज्य मंत्री का दर्जा मिल जाता था और लाल बत्ती की गाड़ी भी. लेकिन बाद में नियम सख्त होते चले गये. हालांकि इसका तोड़ भी कुछ राज्य सरकारों ने ऐसा कानून बनाकर निकाला जिसके तहत ऐसे सभी पद लाभ के पद के दायरे से बाहर कर दिये गये.

केजरीवाल सरकार ने बिना कानून बनाए 21 संसदीय सचिव नियुक्त किए होना तो यह चाहिए था कि दिल्ली में भी केजरीवाल सरकार पहले वह कानून लेकर आती लेकिन 13 मार्च 2015 में 21 विधायकों को संसदीय सचिव बनाया गया और हल्ला मचने पर जून में केजरीवाल सरकार ने विधानसभा में बिल पास करवाया जिसे राष्ट्रपति ने नामंजूर कर दिया. यह बिल भी हड़बड़ी में तब लाया गया जब प्रशांत पटेल नाम के एक सज्जन ने 19 जून 2015 को राष्ट्रपति के पास शिकायत भेजी. इसमें कहा गया कि आप ने 21 विधायकों को संसदीय सचिव बना कर लाभ के पद पर रखा है. उन्हें अलग दफ्तर दिया गया है, फोन का इस्तेमाल हो रहा है और पेट्रोल का खर्चा दिया जा रहा है. हालांकि आप की तरफ इस सभी विधायकों ने अलग से तनख्वाह या भत्ते लेने से इनकार किया था. उधर राष्ट्रपति ने पटेल की अर्जी को चुनाव आयोग के पास भेजा तो उधर मुख्यमंत्री केजरीवाल ने दिल्ली विधानसभा से लाभ के पद के कारण अयोग्य ठहराने के प्रावधान को खत्म करने का बिल पास करवाया. यह चाल काम नहीं आई उल्टे केजरीवाल के खिलाफ ही गयी. एक जनहित याचिका हाई कोर्ट में लगाई गयी जिसने 8 सिंतबर 2016 को इन संसदीय सचिवों की पद पर नियुक्ति को रद्द कर दिया. इसके बाद ही तय हो गया था कि चुनाव आयोग का फैसला भी खिलाफ आ सकता है. चुनाव आयोग बार बार विधायकों से उनका पक्ष रखने को कहता रहा लेकिन पता चला है कि विधायकों ने आधी अधूरी जानकारियां ही दी. अब चुनाव आयोग की सिफारिश के बाद आम आदमी पार्टी आरोप लगा रही है कि विधायकों को अपनी बात रखने का पूरा मौका नहीं दिया गया. लाभ के पद की व्याख्या संविधान में की गयी है और उसका किसी भी कीमत पर उल्लंघन नहीं होना चाहिए. संविधान के अनुच्छेद 102 (1) (ए) और आर्टीकल 19 (1) (ए) में इसका उल्लेख किया गया है. चुनाव आयोग ने अपनी सिफारिश करने से पहले जरुर संविधान के इन अनुच्छेदों का अध्ययन किया होगा. हालांकि आम आदमी पार्टी इन तर्कों को सुनने को तैयार नहीं है. वैसे ऐसा भी नहीं है कि इससे पहले दिल्ली के मुख्यमंत्रियों ने संसदीय सचिव नहीं बनाए हों. बीजेपी के साहिब सिंह वर्मा जब मुख्यमंत्री थे तब नंद किशोर गर्ग उनके संसदीय सचिव हुआ करते थे. सवाल उठता है कि तब संसदीय सचिव वैध था और अब अवैध हैं, ऐसा कैसे हो सकता है.

बीस विधायकों को खो देना आम आदमी पार्टी के लिए होगा झटका आम आदमी पार्टी पर बीस विधायकों को खो देना (फिलहाल के लिए) एक झटका है लेकिन इसके साथ ही एक अन्य खतरा भी मंडरा रहा है. 27 विधायकों को मोहल्ला क्किलनिक की रोगी कल्याण समिति का अध्यक्ष बनाया हुआ है. विभोर आनंद नाम के एक शख्स ने इसे भी लाभ का पद मानते हुए चुनौती दी है. इन 27 विधायकों में से सात ऐसे भी हैं जिनपर संसदीय सचिव के पद पर रहने का आरोप भी था. यानि कुल मिलाकर चालीस विधायकों पर सदस्यता जाने की तलवार लटक रही है. इसमें से बीस निपट गये हैं. हालांकि बीस के निपटने के बाद भी केजरीवाल सरकार के पास 46 विधायक बचते हैं जो बहुमत के लिए जरुरी 36 से ज्यादा है. यानि सरकार सुरक्षित है. लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इन 46 में से कपिल मिश्रा जैसे बगावती तेवर वाले पांच विधायक शामिल हैं. इन्हे हटा दिया जाए तो संख्या 41 की बैठती है जो बहुमत से सिर्फ पांच ही ज्यादा है. यहां सवाल उठता है कि क्या बीजेपी कोई खेल कर सकती है जो दिल्ली मे नये विधानसभा चुनावों का रास्ता खोल सके. केजरीवाल के लिए बड़ी संकट की घड़ी सवाल उठता है अब केजरीवाल के पास आगे क्या रास्ता बचता है. एक ही रास्ता है कि बीस विधानसभा सीटों पर होने वाले उपचुनावों में डटकर लड़े, सभी सीटों पर उन्हीं विधायकों को फिर से टिकट दे जिनकी सदस्यता रद्द करने की सिफारिश की गयी है. केजरीवाल को इन बीस में से कम से कम 15 फिर से जितवा कर विधानसभा में लाना होगा. वैसे इन विधायकों में से एक कैलाश गहलोत मंत्री भी हैं. यह देखना दिलचस्प होगा कि नैतिकता को देखते हुए क्या केजरीवाल कैलाश गहलोत को मंत्री पद से त्याग पत्र देने को कहते हैं या अगले छह महीनों तक मंत्री बनाए रखते हैं. बीजेपी के पास अपना दमखम दिखाने का पूरा मौका है. उसकी कोशिश बीस में से आधी से ज्यादा सीटें जीतने की होनी चाहिए तभी वह कह सकेगी कि दिल्ली में केजरीवाल का जादू टूट रहा है. उधर कांग्रेस के पास वापसी का मौका मिला है. वह कम से कम विधानसभा में अपना खाता खोल सकती है और अगर पांच छह सीटें भी निकाल पाती है तो उसके लिए राहत की खबर होगी. लेकिन फिर कहना चाहेंगे कि अगर केजरीवाल बीस में से 15 सीटें निकाल लेते हैं तो उनका कद बढ़ जाएगा. (नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़ें लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)
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