प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का राजकीय दौरे में भव्य स्वागत किया गया. इस दौरान फाइटर जेट इंजन भारत में बनाने समेत कई रक्षा से जुड़े एतिहासिक समझौते किए गए. पीएम मोदी ने संयुक्त कांग्रेस को संबोधित भी किया. दरअसल, जिस पड़ाव पर भारत-अमेरिका के रिश्ते अब आ गए हैं, यह कोई कल की बात नहीं है. दोनों ही देशों ने पिछले तीस-चालीस वर्षों से इसकी कोशिश की है और ये संबंध ब़ड़े परिवरत्नों से होकर गुजरे हैं. शुरुआत में जो तब्दीलियां आईं और जो दोस्ती बढ़ी, उसमें अमेरिका के कारगिल युद्ध के दौरान की भूमिका अहम है. अमेरिका ने काफी साथ दिया. खासकर, बिल क्लिंटन के काल में भारत-अमेरिका की दोस्ती काफी परवान चढ़ी. इसी दौरान न्यूक्लियर डील हुई और यह भी याद रखना चाहिए कि जब दोनों देशों के बीच परमाणु डील हो रही थी, तो अमेरिका का झुकाव चीन की तरफ भी था. इसके पीछे अमेरिका की यह सोच थी कि चीन का भी जैसे-जैसे विकास होगा, वैसे-वैसे यह अमेरिका के ही वर्ल्ड व्यू के करीब आएगा जो उसका प्रजातंत्र या मानवाधिकार वगैरह के बारे में है.
भारत के प्रति अमेरिका का रवैया जो झुकाव का था, वह इसलिए नहीं था कि वह भारत को रूस से अलग करना चाहता था, या चीन के खिलाफ करना चाहता था. भारत के लिए अमेरिका के मन में सम्मान था. वह देखता था कि हजारों भाषाओं, जातियों और विविधता वाला यह देश किस तरह डेमोक्रेटिक है, ठीक है कि हमारी बहुतेरी समस्याएं हैं, लेकिन डेमोक्रेसी के जरिए हमारे यहां, इतने बड़े देश में सत्ता-परिवर्तन बहुत आसानी से बिना खून-खराबे के हो जाता है. भारत के पास इतनी चीजें हैं कि दुनिया काफी सीख सकती है.
अमेरिका करता है भारत को पसंद
अमेरिका में इंडियन डायस्पोरा काफी सफल है. लगभग 40 लाख भारतीय जो अमेरिका में हैं, उन्होंने काफी मेहनत की और अपना नाम बनाया है. वे अमेरिका के चुनिंदा एलीट्स में हैं. चीन का जहां तक मुद्दा है, वह पिछले दशक के बीच में काफी उछला है. इसके लिए चीन काफी हद तक जिम्मेदार भी है. जिस तरह वह आक्रामक और विस्तारवादी रुख अपनाए हैं, उसने जैसे दक्षिण चीन सागर पर कब्जा करने की कोशिश की, ये तमाम चीजें उसके खिलाफ जाती हैं. चीन में जिस तरह सरकार ने लोगों का दमन किया, दबाया, उससे अमेरिका का रोमांस चीन से खत्म हो गया. अमेरिका की जहां तक रूस से संबंध की बात है, वह नहीं चाहेगा कि भारत उसके पाले में चला जाए. भारत अब काफी बड़ा हो चुका है, तो यह मानना कि हम केवल रूस के पल्ले से बंधे रहेंगे, यह गलत है. रूस कई मामलों में हमारी भूख नहीं मिटा सकता, जैसे तकनीक, अंतरिक्ष और इस तरह के बाकी मामले अगर देखें. देश जैसे-जैसे बड़ा होता है, उसके संबंध भी बदलते हैं.तो, यह मान सकते हैं कि आर्थिक कारण एक फैक्टर हैं, लेकिन केवल यही फैक्टर है, ऐसा भी नहीं कह सकते हैं.
कूटनीति मतलब रूस भी साथ, अमेरिका भी
कूटनीति तो यही होती है न कि अपने हित को आप कैसा पूरा करते हैं, न ही यह होता है कि आप एक पार्टनर को त्याग देते हैं और एक पार्टनर की गोद में चले जाते हैं. कूटनीति की चुनौती तो यही है न कि किस तरह भारत अमेरिका से भी संबंध प्रगाढ़ करे, लेकिन रूस से भी उसके संबंध नहीं बिगड़ें. अभी तक भारत ने इसको बड़ी खूबी से निभाया भी है. हमने न तो रूस को नाराज किया, न ही अमेरिका से हमारे संबंध बिगड़े. चंद महीनों पहले तक जो देश हमारी खूब आलोचना कर रहे थे, रूस से तेल खरीदने पर, अब उनको समझ में आ रहा है कि भारत ने उन पर अहसान किया था. अगर हम बाजार से रूस का तेल हटा दें, तो उपलब्धता कम होगी और उसकी वजह से दाम इतने अधिक हो जाएंगे कि पूरी दुनिया में हाहाकार मचता, हो सकता है कि तेल का दाम 200 डॉलर प्रति बैरल हो जाता.
भारत का स्केल दरअसल इतना बड़ा है कि हम किसी एक छोटे देश सिंगापुर या थाइलैंड की तरह डील नहीं हो सकते. अगर कोई समझता है कि भारत जैसा बड़ा देश अमेरिका या किसी भी देश का पिछलग्गू बनकर घूमेगा, तो ये अमेरिका की समस्या है. भारत-अमेरिका के बीच व्यापार जो है, वह संतुलित है. बहुतेरे सामान ऐसे हैं, जिनकी तकनीक अब तक हमारे पास नहीं. इसी तरह कुछ चीजें ऐसी हैं, जो भारत काफी सस्से में प्रभावी तरीके से बना सकता है. तो, यही बाजार है, यही अर्थव्यवस्था है. यही संतुलन है औऱ यही रिश्ता है. भारत-अमेरिका के संबंध ना केवल आर्थिक या सामरिक मसलों, ना वीजा समस्या, ना तकनीक हस्तानांतरण मात्र पर टिके हैं, बल्कि वह तो इन सभी मसलों पर स्थित है. भारत के अमेरिका के साथ संबंध बहुआयामी और बहुस्तरीय हैं. डेमोक्रेसी को लेकर दोनों देशों के जो रिश्ते हैं, दोनों देशों के सामरिक या आर्थिक हित जो हैं, वे इतने विविध आयामों वाले हैं कि उनको साथ आने में ही फायदा है.
आर्थिक वजह एक महत्वपूर्ण वजह है, सामरिक और सैन्य साजोसामान की जरूरत भी. रूस से हमारे थोड़ा हटने का कारण यह भी है कि वह हमारी रक्षा जरूरतें पूरी नहीं कर पा रहा है. आदर्श स्थिति तो यह है कि हम आत्मनिर्भर हो जाएं, सब कुछ हम खुद ही बनाएं, लेकिन अभी चूंकि हम अमेरिका, फ्रांस और रूस वगैरह पर निर्भर हैं, तो उपाय यह है कि हम किसी एक पर ही निर्भर ना रहें, हम आज अमेरिका सहित पश्चिमी देशों, रूस, फ्रांस, जर्मनी सबसे मंगाते हैं. रूस से संबंध इसलिए भी अच्छे रखने हैं, क्योंकि काफी पुराना सामान रूस से ही आया है.
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