बिहार में जातीय जनणगना की रिपोर्ट सामने आ गई है. पटना हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में चुनौती और लंबी लड़ाई के बाद बिहार सरकार की तरफ से ये आंकड़े जारी किए गए. लेकिन, जब जातीय गणना का उद्देश्य राजनीति हो और सामने चुनाव हो तो हम ये उम्मीद नहीं कर सकते हैं कि इसमें थोड़ा भी टालमटोल होता.


INDIA गठबंधन ने अपने एजेंडे में जातीय गणना को राष्ट्रीय स्तर पर लाने की घोषणा कर दी है, यानी विपक्षी INDIA गठबंधन में जनगणना के साथ जातीय गणना की बात की जा रही है. कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष और केरल के वायनाड के सांसद राहुल गांधी अब ये बात कह रहे हैं कि अगर हम सत्ता में आए तो जातीय गणना करेंगे.


जाहिर है कि जिस व्यक्ति ने बिहार में इसकी शुरुआत की है, वे आंकड़ा जारी करके तो इसका श्रेय तो जरूर लेगा. नीतीश कुमार ये बात कह भी रहे हैं कि मैंने जो कुछ कहा वो कर के दिखा दिया. उन्होंने आगे कहा कि मैंने जो कर दिखाया वो बाकी राज्य भी कर सकते हैं और ये केन्द्र के स्तर पर भी हो सकता है.


इससे ये पता चलता है कि जातीय जनगणना का उद्देश्य सामाजिक न्याय से ज्यादा अपनी राजनीति साधनी है. सामान्य तौर पर ये बात सही लगती है कि आरक्षण का आधार भारत में जाति हो गई है, क्योंकि सामाजिक, शैक्षणिक पिछड़ापन का आधार जाति बना दी गई है. पिछड़े, दलित, आदिवासी सभी में जाति की सूची है और लंबे समय से आरक्षण है तो क्यों ने एक बार देख लिया जाए कि किसे क्षेत्र विशेष में या राज्य में जाति की संख्या कितनी है और उसकी आर्थिक, सामाजिक और शैक्षणिक स्थिति क्या है.



जाति पर राजनीति


यहां तक तो बात बिल्कुल समझ में आती है. इस आधार पर फिर आगे की नीति बनाई जाए. उनके विकास के लिए ईमानदारीपूर्वक समीक्षा की जाए और जिस जाति में जो लाभों से वंचित है उनको उसका लाभ दिया जाए. अगर इस सामाजिक न्याय की दृष्टि से जनगणना हो तो जब तक आरक्षण है, उसके वास्तविक आंकड़े होना चाहिए.


लेकिन, क्या बिहार में जो जातिगत जनगणना कराई गई है, वो वाकई इसी उद्देश्य से है? अगर इस उद्देश्य से होता तो जिस वक्त ये आंकड़े जारी हो रहे थे, उस समय ये जरूर बताया जाता कि इसका मकसद क्या है. इसके साथ ही, ये भी बताया जाता कि अब जो जातीय गणना के आंकड़े हमारे पास आ गए हैं, उसका हम आगे किस प्रकार उपयोग करेंगे. ये काफी महत्वपूर्ण है.


बिहार सरकार ने आंकड़े जारी कर दिए हैं, लेकिन उसके पास दूरगामी दृष्टि से योजना नहीं है कि इन आंकड़ों का कैसे आगे इस्तेमाल करना है. इसका साफ मायने है कि बिहार सरकार ने आनन-फानन में अपनी राजनीति चमकाने के लिए ऐसा कर दिया है. लेकिन उनके पास ये बिल्कुल भी सोच नहीं है  कि वे आगे क्या करेंगे.


नीतीश की ये कैसी राजनीति?


दरअसल, बिहार में नीतीश कुमार ने जब बीजेपी से अलग होने का मन बनाया था, उसके बाद अपनी राजनीति के लिए कुछ काम चाहिए था. क्योंकि, पहले वे बिहार को विशेष राज्य का दर्जा देने की मांग की बात करते थे, लेकिन अचानक वे जातीय गणना की बात करने लगे. यही करते-करते नीतीश बीजेपी से अलग हुए और वे आज इसे पूरा कर लिया है.



आरक्षण के बारे में करीब-करीब इस पर सहमति है कि समाज में एक वर्ग अभी भी मुख्य धारा से वंचित है तो उनके लिए विशेष कदम सरकार की तरफ से होना चाहिए. इसमें आरक्षण एक भाग है. लेकिन, सामाजिक न्याय को केवल आरक्षण का पर्याय बना देना, इससे बड़ा दुर्भाग्य और कुछ नहीं हो सकता है.


ये हमारे देश का दुर्भाग्य कहिए कि सामाजिक न्याय की राजनीति में, 1990 के मंडलवाद के दौर में जितने भी नेता उभरे हैं, उन सबने भी समाज के न्याय के तौर पर आरक्षण को सबसे ऊपर ला दिया है. और उसके अन्य पहलू गौण हो गए हैं.


सामाजिक न्याय के एक हिस्सा हो सकता है आरक्षण


सामाजिक न्याय एक व्यापक अवधारण है, आरक्षण उसका एक भाग हो सकता है. वह उसका संपूर्ण प्रकटीकरण नहीं हो सकता है. इसलिए इन आंकड़ों में डर ये है कि आने वाले चुनाव में लोगों को खूब भड़काया जाएगा, राजनीतिक दलों की तरफ से भड़काया जाएगा. दूसरा इसकी विश्वसनीयता पर सवाल है. इससे पहले ये माना जाता था कि बिहार में यादवों की संख्या 8 से 10 फीसदी के नीचे है. ऐसे में यादवों की संख्या 14.27 फीसदी कैसे हो गई?


इसके अलावा, जिस कुर्मी जाति से नीतीश कुमार आते है, उसकी संख्या 2.8 के आसपास कैसे सीमित हो गई है? ब्राह्मणों की आबादी सवर्णों में सबसे ज्यादा है, उसकी आबादी को 3.66 फीसदी तक सीमित कर दिया गया है. इसके बाद, भूमिहारों की आबादी को 2.86 फीसदी तक सीमित कर दिया गया है. कुर्मी से ज्यादा कोइरी की आबादी करीब डेढ़ गुणा ज्यादा बता दी गई है. ऐसे में ये आंकड़े खुद में संदेहास्पद है.


क्या होगा असर?


ये आंकड़े बिहार के सामाजिक वर्गीकरण को उस रुप में प्रकट नहीं करते हैं जो लंबे समय से देख रहे हैं. ऐसे में सवाल उठता है कि क्या किसी स्तर पर इसे मैनुपुलेट किया गया है. क्योंकि, इस वक्त देश को ये मालूम है कि नीतीश कुमार का बिहार में शासन जरूर है, लेकिन उसके पीछे महत्वपूर्ण सूत्र लालू यादव के परिवार की तरफ से संचालित किया जा रहा है.


ऐसे में फिर तो बिहार में परिवार का शासन लंबे समय तक रहना चाहिए, क्योंकि 14.27 फीसदी यादव और मुस्लिम 17 फीसदी से ज्यादा यानी कुल मिलकर 32 फीसदी से ज्यादा वोट. इसी में एक निष्कर्ण ये निकलता है कि मंडल कमीशन लागू होने के बाद जब वीपी सिंह हीरो बने थे, लेकिन इसी सामाजिक न्याय ने उनका अंत कर दिया और आज उनका कोई नाम लेने वाला तक नहीं बचा है. क्या कुछ ऐसी ही स्थिति नीतीश कुमार की इस रिपोर्ट के बाद होने वाली है?


क्योंकि अगर बिहार से लीडर का चयन होगा तो जिस जाति की सबसे ज्यादा संख्या है, उसका नेता बनेगा या नीतीश कुमार बनेंगे? तो क्या नीतीश कुमार का अंत हो जाएगा? दूसरा, अगर बिहार सरकार इससे होने वाली हलचल को संभालने के लिए अगर बिहार सरकार पूरी तरह से तैयार नहीं है तो फिर ये बहुत दुर्भाग्यपूर्ण होगा.


जैसे 1990 में अयोध्या आंदोलन की काट के लिए मंडल कमीशन लाया गया था, ताकि अगर हिन्दू समाज एक हुआ तो बीजेपी को फायदा हो जाएगा, क्या वही बात इस वक्त भी है कि नरेन्द्र मोदी के सत्ता में आने के बाद लंबे समय से हिन्दुओं के अंदर जो एकता बढ़ रही थी, उसकी काट के तौर पर ये लाया गया? क्योंकि चुनाव बाद के सर्वेक्षण ये बताते हैं कि जहां-जहां बीजेपी का जनाधार है, वहां पर सबसे ज्यादा दलितों, पिछड़ों और आदिवासी को वोटबैंक है, वो वोट बीजेपी को मिल रहा है. तो वो काट के लिए कि फिर से जातीय विभेद पैदा करके, बीजेपी के खिलाफ असंतोष पैदा कर अगर वोट लेना ही इसका मकसद है तो फिर इस पर कुछ भी बोलना बेकार है.


लालू परिवार को होगा फायदा


नीतीश राज में बिहार में लोगों में भारी असंतोष है. जातीय जनगणना जारी होने के बाद ये साफ हो गया है कि विपक्ष के INDIA गठबंधन में लालू यादव की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल की भूमिका बढ़ेगी. वे बताएँगे कि सबसे ज्यादा अगर हमारी जाति के लोग हैं, मुसलमान हमारे साथ है तो ताकत हमारे पास है. उसके बाद उस गठबंधन में और किसी की हैसियत नहीं रह जाएगी. नीतीश कुमार की राजनीतिक हैसियत इस जनगणना के साथ कम हो गई है और आगे और भी कम होगी. ये भी ज्यादा संभावना है कि भविष्य में राजनीतिक नेतृत्व नीतीश कुमार के हाथों में रहे ही नहीं.


इसके अलावा, इस बात की भी संभावना है कि जातिगत गणना के आधार पर जनता दल यूनाइटेड में एक और टूट हो जाए. सर्वर्णों की बड़ी संख्या है, ऐसे में जिस तरह उन्हें कम कर बताया गया है, इस स्थिति में सवर्णों का जो झुकाव तेजस्वी यादव की तरफ था, वो किसी और तरफ जा सकता है. साथ ही, लालू यादव जिस तरह से सवर्णों और पिछड़ों की राजनीति कर रहे थे, हो सकता है कि उसकी एक बार फिर से वापसी हो. यानी, बिहार की राजनीति में कई तरह की आगे हलचल देखने को मिलेगी.



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