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नीतीश कुमार ने आखिर क्यों दिखा दिया कांग्रेस को ऐसा सब्जबाग?

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने आखिरकार अपने सारे हथियार डालते हुए कह दिया है कि अगले लोकसभा चुनाव में विपक्षी एकता की अगुवाई कांग्रेस को ही करनी चाहिए. उन्होंने तो ये भी दावा कर दिया कि अगर समूचा विपक्ष एकजुट हो गया तो वो बीजेपी को 100 सीटों पर समेट सकता है. हालांकि सियासी गलियारों में उनके इस बयान को थोड़ा बड़बोला इसलिए माना जा रहा है कि नीतीश बाबू या तो साल 2019 के चुनावी नतीजों को भूल गए हैं या फिर कांग्रेस की भारत जोड़ो यात्रा से कुछ ज्यादा ही उत्साहित हो गए हैं. कुछ का आकलन तो ये भी है कि वे विपक्ष को कुछ ऐसा सब्जबाग दिखा रहे हैं जो दिन में तारे देखने से कम नहीं है.

लेकिन अगर हम लोकसभा सीटों की संख्या के लिहाज़ से देखें तो भारत के पांच राज्य बेहद अहम हैं जो किसी भी पार्टी के लिए दिल्ली के सिंहासन का रास्ता खोलते हैं. इन पांच राज्यों में लोकसभा की सीटों का कुल आंकड़ा 249 है. हालांकि ये कुल सीटों के आधे से कुछ कम है लेकिन सत्ता हासिल करने की लड़ाई में इनकी ही सबसे अहम भूमिका है. इन पांच राज्यों में से तीन तो हिंदीभाषी हैं लेकिन इनमें से ए तमिकलनाडु है तो दूसरा पश्चिम बंगाल है जहां कमोबेश अभी भी ममता बनर्जी का जलवा बरकरार है. लेकिन महज़ ये दोनों राज्य और नीतीश कुमार अपने बिहार की सारी सीटें जीत भी लें तो क्या ये मुमकिन है कि वे बीजेपी को सौ सीटों पर सिमटा सकते हैं? इसका जवाब तो देश की जनता के पास ही है. लेकिन सवाल ये है कि जिस विपक्ष में एक साथ तीन-चार नेता प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनने की दावेदारी रखते हों वहां नीतीश के इस बयान के बाद क्या उनकी महत्वाकांक्षा खत्म जो जाएगी और संयुक्त विपक्ष की छतरी के नीचे आने के लिए क्या वे इतनी आसानी से मान जाएंगे?

बेशक कांग्रेस मुख्य विपक्षी पार्टी है लेकिन वो 543 सदस्यों वाली लोकसभा में महज़ 52 सीटों पर सिमटी हुई है. लेकिन सियासी विश्लेषक मानते हैं कि अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को अगर मोदी लहर को रोकना है तो उसे उत्तरप्रदेश, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, बिहार और तमिलनाडु के इन पांच राज्यों में खुद अपने बूते पर या फिर अपने सहयोगियों के साथ मिलकर ऐसा प्रदर्शन कर के दिखाना होगा जिसे पिछले एक दशक में अभूतपूर्व समझा जाए. बिहार, महाराष्ट्र व तमिलनाडु में तो क्षेत्रीय दलों को कांग्रेस का साथ मिल ही जाएगा लेकिन 48 सीटों वाले बंगाल में ममता दीदी को वो कैसे मनाएगी? इससे भी बड़ी बात कि सबसे ज्यादा 80 सीटों वाले उस उत्तरप्रदेश में वो खुद को कैसे मुकाबले में ला पाएगी, जहां उसकी सियासी जमीन लगभग खत्म-सी है. भारत जोड़ो यात्रा में शामिल न हो कर सपा प्रमुख अखिलेश यादव ये झटका दे ही चुके हैं कि वे राहुल गांधी के नेतृत्व का हिस्सा बनने को मंजूर नहीं है.

वैसे साल 2019 के लोकसभा चुनाव में तीन प्रमुख ऐसे क्षेत्रीय दल थे जो एनडीए के हिस्सा थे और बीजेपी गठबंधन के साथ मिलकर चुनाव लड़े थे. लेकिन ये तीनों यानी जेडीयू, शिवसेना और अकाली दल ने अब बीजेपी का साथ छोड़ दिया है. लेकिन सवाल ये है कि ये तीनों क्या इस हैसियत में हैं क्या जो कांग्रेस को संजीवनी दे सकें. पिछले चुनावी-नतीजे देखकर हर कोई कहेगा कि शायद नहीं. पिछली बार महाराष्ट्र की 48 सीटों में से बीजेपी ने 23 और शिवसेना ने 18 सीटों पर जीत हासिल की थी जबकि तब दोनों ने मिलकर चुनाव लड़ा था. उस वक़्त शरद पवार की अगुवाई वाली एनसीपी को 4 और कांग्रेस को महज एक ही सीट ही मिली थी.

लिहाजा सोचने वाली बात ये है कि वहां कांग्रेस और एनसीपी अपने पुराने स्कोर को किस हद तक आगे ले जाएंगी. इसके अलावा पीएम मोदी और अमित शाह की जोड़ी जिस गेम प्लान को अंजाम देने की तैयारी में जुटी हुई है. अगर वह कामयाब हो गया तब संयुक्त विपक्ष की तस्वीर क्या बनेगी? दरअसल, मोदी चाहते हैं कि चुनाव से पहले उद्धव ठाकरे के गुट वाली शिवसेना को दोबारा एनडीए के साथ जोड़ लिया जाए. इसके जरिए बीजेपी देश में भगवा की ताकत बढ़ाने के साथ ही महाराष्ट्र की राजनीति में भी ऐसा बदलाव लाने की तैयारी में है जो एकसाथ कई निशाने साध सकता है. उधर, बिहार की बात करें तो लोकसभा सीटों के लिहाज से वह चौथा अहम राज्य है जहां 40 सीटें हैं. पिछली बार नीतीश कुमार की जेडीयू और बीजेपी ने साथ मिलकर चुनाव लड़ा था. बीजेपी को 17 और नीतीश की पार्टी को 16 सीटें मिली थीं. लेकिन एनडीए का दामन छोड़कर तेजस्वी यादव की आरजेडी की बैसाखी के सहारे सत्ता पर काबिज़ होने वाले इन "सुशासन बाबू", की छवि अब वैसी नहीं रही जो कुछ साल पहले हुआ करती थी. 

सियासी जानकार मानते हैं कि बिहार की जनता में इसका नकारात्मक असर ये हुआ कि अपनी ईमानदार इमेज बनाने वाला एक कद्दावर नेता सत्ता पाने के लिए हर तरह का समझौता कर सकता है. लिहाज़ा, अगले लोकसभा चुनाव में नीतीश अगर अपना पुराना स्कोर ही दोहरा लें तो ये किसी अजूबे से कम नहीं होगा. जहां तक पंजाब की बात है तो वहां कुल 13 सीटें है. पिछली दफा बीजेपी और अकाली दल ने 2-2 सीटों पर कब्जा किया था. तब कांग्रेस को 8 और आम आदमी पार्टी को एक सीट मिली थी. किसान आंदोलन के दौरान अकाली दल ने एनडीए से नाता तोड़ लिया. लेकिन उसके बाद अरविंद केजरीवाल की आप ने जिस ताकत के साथ उभरकर वहां अपनी सरकार बनाई है वह कांग्रेस के साथ ही अकालियों के लिए भी खतरे का बड़ा संकेत है. इसलिए वहां की राजनीति के जानकारों के मुताबिक अगले आम चुनाव में आप को जितनी भी सीटें मिलेंगी, उनमें से अधिकांश कांग्रेस के कब्जे वाली ही होंगी. लिहाजा, जिस सूबे में कांग्रेस खुद को मजबूत मान रही है वहां भी उसके लिए खतरे का सबसे बड़ा अलार्म आप ही बनती दिख रही है.

इसके अलावा जम्मू-कश्मीर से लेकर झारखंड और छत्तीसगढ़ तक के आठ राज्यों की 137 सीटों पर नजर डालें तो पिछली बार यहां बीजेपी का तकरीबन एकतरफा ही परचम लहराया था. इनमें से 123 सीटों पर उसने कब्जा करके कुछ राज्यों में तो विपक्ष की झोली में एक सीट भी नहीं आने दी थी. इसलिये बड़ा सवाल ये है कि पीएम पद का उम्मीदवार बनने की लालसा पाले बैठे तीन-चार नेता क्या विपक्ष को एकजुट होने देंगे? और, मान लीजिए कि एन वक्त पर ऐसा हो भी गया तो इन करीब चार सौ सीटों पर बीजेपी को पटखनी देने के लिए क्या उन्होंने कोई रोड -मेप तैयार किया है?

(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)

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