Opinion : नीतीश कुमार की महत्वाकांक्षा ने उठवाया उनसे यह कदम, नहीं देने चाहिए थे बड़े बयान
बिहार में सियासत गरमाई हुई है और उसकी वजह है बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का महागठबंधन से अलग होकर बीजेपी में शामिल हो जान. 28 जनवरी की सुबह नीतीश कुमार ने मुख्यमंत्री के पद से इस्तीफा दिया और शाम में बीजेपी के नेतृत्व वाले एनडीए में शामिल होकर फिर से बिहार के मुख्यमंत्री का पद संभाला. नीतीश कुमार ने 9वीं बार मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली है. नीतीश कुमार के इस कदम का बहुत दिनों से इंतजार था, यह पता था कि नीतीश कुमार द्वारा इस प्रकार का कदम उठाया जाएगा. इसमें कोई आश्चर्य वाली बात नहीं है क्योंकि पहले भी उन्होंने यह कहा था कि स्थिति तो बदलेगी. नीतीश कुमार का नाम कई लोग पलटू राम भी रख चुके हैं.
बयान देने से पहले जरूर सोचें
कुछ लोग ऐसे होते है जो सत्ता में बने रहने के लिए कुछ भी कर सकते है. लेकिन ये एक बहुत ही महत्तवपूर्ण बात है कि उन्होंने बिहार को जो कुछ दिया है, उसे नकारा नहीं जा सकता है. बिहार में जो भी बदलाव हुआ है, फिर चाहे वो गांव में बिजली लाना हो या नल और कल लगावाना. नीतीश कुमार की कुछ नीतियां जो महिलाओं की नजर में उनको लोकप्रिय बनाती हैं, या फिर उनकी योजनाएं जो गरीबों के बीच उनको सदृढ़ बनाती है. उनका सोशल इंजीनियरिंग सब पर हावी हो जाता है. ये तो आने वाला वक्त ही बताएगा कि जदयू का क्या होगा. फिलहाल राजद की स्थिति गड़बड़ हो गई है. अब देखना यह है कि जदयू के साथ बीजेपी का वोट बैंक क्या रहता है, 40 के 40 लोकसभा सीट कहां जाते हैं? नीतीश कुमार की कुछ अंदरूरी मजबूरी रही होगी, कुछ तो बातें होगी कि दोनों एक दूसरे के साथ मिलकर नहीं चल पा रहे थे. हालांकि, नीतीश कुमार यह कहते रहे है कि मैं मर भी जाऊंगा तो बीजेपी में नहीं जाऊंगा. इस तरह के बयान उन्हें नहीं देने चाहिए क्योंकि जनता तो वही देख रही है, आप जो बोल रहे है उसके विपरीत काम कर रहे है. यदि हम समीक्षा करने बैठे तो बहुत ही कष्टदायक स्थिति हो जाती है. बिहार में ये एक बहुत बड़ी कमी है खासकर भारतीय लोकतंत्र में. नेताओं को यह ध्यान देना होगा कि हम बार - बार जनता के साथ बेइमानी करते है. नेता अपनी पोजिशन को बचाने के लिए किसी भी स्तर पर जा सकते है. ये केवल बीजेपी और जदयू की बात नहीं है, कोई भी नेता किसी भी स्तर पर जाकर अपनी कुर्सी संभालने की कोशिश करता है.
नीतीश कुमार के अपने कारण
महागठबंधन मोदी सरकार के खिलाफ बना था. नीतीश कुमार का ये भी एक कारण हो सकता है महागठबंधन से अलग होने का, क्योंकि उनकी कुछ अपेक्षाएं थी, उनकी यह भी इच्छा थी कि वो प्रधानमंत्री पद तक पहुचें. उसपर भी उन्हें कमी दिखाई देने लगी. एक बात यह भी थी कि कांग्रेस की छवि भी खराब हुई है, अब वह ऐसी स्थिति में भी नहीं हैं कि वे कुछ मोलभाव कर सकें. राजद के नेता जो आगे बढ़ रहे थे, ये सब भी कहीं न कहीं नीतीश कुमार को खल रहा था, नीतीश कुमार पर महागठबंधन का नेतृत्व लेने की प्रबल इच्छा हावी हो रही थी. इंडिया गठबंधन कमजोर हो गया है, साथ ही कांग्रेस भी कमजोर हो चुका है और नीतीश कुमार ने यहीं पर खेल खेला, उन्होंने यह देखा कि महागठबंधन में उन्हें वो पोजिशन नहीं मिल रही है जिसके लिए वो इतनी लड़ाई लड़ रहे थे. नीतीश कुमार ने एक तरह से यह जाल बिछाया है. पढ़े लिखे लोग तो सब समझ रहें है कि हमारे नेता ऐसे है और हमारी छवि भी खराब होती है. बिहार की छवि वैसे भी बहुत अच्छी नहीं है, खासकर राजनीतिक छवि तो और भी खराब है. इसके साथ ही हमारे पास कोई विकल्प नहीं है. आरजेडी की सरकार में भी सबने देखा है कि बिहार की क्या स्थिति रही है. कम से कम नीतीश कुमार ने कुछ काम तो किया है, कुछ सकारात्मक परिवर्तन किया है, कानून-व्यवस्था की हालत को सुधारा है, इंफ्रास्ट्रक्चर सुधारा है. यदि कोई नेता कुछ अच्छा करता है तो हम सब कुछ भुलकर उनको वोट देने लगते है. बिहार में नीतीश कुमार ने जितना भी बदलाव किया है उसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है. जिस पॉलिटिकल खेल के लिए बिहार में जातिय जनगणना करवाई गई, उसका फायदा भी नीतीश कुमार को और बीजेपी को मिलेगा, ओबीसी के वोट का झुकाव अब बीजेपी और जदयू की ओर जायेगा.
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