हमारे देश में ये एक गलतफहमी फैली हुई है कि जो सत्ताधीश होते हैं वे सत्ता के अधिकारी तो हैं ही है ज्ञान में भी उनका एक दखल रहता है. उनकी जानकारी बेमिसाल होती है. लेकिन ये सच नहीं है. सासंद होना, विधायक होना या मंत्री होना बहुमत का अनुकूलता पर निर्भर करता है. इसमें ज्ञान का या सत्य के प्रति समर्पण का कोई पैमाना नहीं रहता है. जो ज्ञान का साधक रहता है उसे आचार्य कहते हैं जबकि जो सत्ता साधक होते हैं उन्हें हम नेता कहते हैं. उनमें से जो सरकारी दल में चले जाते हैं या जिनकी सरकार बन जाती है वो मंत्री या फिर अन्य पदों पर आसीन रहते हैं.
रामचरित मानस के बारे में किसी मंत्री के बयान देने भर से उसकी महत्ता कम नहीं होती, हां उस मंत्री के ज्ञान या उसकी अज्ञानता के बारे में जरूर पता चल जाता है. रामचरित मानस के बारे में महात्मा गांधी से लेकर राममनोहर लोहिया तक और आर्चायों से लेकर ग्रामीण अनपढ़ स्त्री- पुरुषों तक रामचरित मानस के प्रति आदर, अपनत्व का पवित्र ग्रंथ के प्रति भाव है.
रामचरित मानस पर ऐसा बयान अज्ञानता का प्रतीक
रामचरित मानस को हम नवभारत के निर्माण की पवित्र गीता मानते हैं. इसमें में ना केवल कर्तव्यों के प्रति समर्पण का संदेश है बल्कि रामचरित मानस में अनीति, अन्याय और दबंगई का भी निषेध है. वरना राम और रावण की कथा का कोई महत्व ही नहीं होता. रामचरित मानस में एक राक्षस प्रवृत्ति के रूप में आतंकवाद है, जिसमें उसका निषेध और उसका अंत और उसके खिलाफ लड़ने वालों की मदद हमारा युग धर्म बताया गया है.
महाज्ञानी रावण, उसके महाबलशाली साथी और अनुयायी के बजाए, राम की सेना के भालू बंदर और आदिवासी समाज के लोग ज्यादा पूज्यनीय बने. जिसको भी रामचरित मानस पढ़ने से आंताकवाद का समर्थन मिलता है, उसको अपने ज्ञान का पैमाना जांच लेना चाहिए. अगर किसी को भी रामचरित मानस का ज्ञान नहीं तो वह अपने अज्ञान का प्रदर्शन करके खुद को अपनी पार्टी और अपनी सरकार को मजाक का विषय बना देते हैं. मुझे लगता है कि इसमें भूल सुधार की गुंजाइश है.
रामचरित मानस के बारे में अगर किसी को जानकारी की जरूरत है तो वे यूपी-बिहार से दूर असम-महाराष्ट्र या बंगाल-केरल में जाकर जनसाधारण से संपर्क कर सकता है. इसके बावजूद को दिक्कत हो तो वे रामचरित मानस का एक बार व्यवस्थित तरीके से पाठ कर लें तो उसका जरूर भला होगा.
ये मंत्री का हताशा भरा बयान
बिहार के शिक्षा मंत्री का ऐसा बयान एक हताश भाषण की मर्यादा का पैमाना बनाता है. भाषण के लक्ष्यों को निर्धारित करता है. राम चरित मानस सत्तावान का कर्तव्य पथ बताता है और हमारी जिंदगी के रोज-रोज की जो भूमिकाएं हैं, पिता-माता, पत्नी, पुत्र इसके बारे में हमारा मार्ग दर्शन करता है. ऐसा दुनिया में कोई दूसरा ग्रंथ या महाकाव्य नहीं बना. इसको लोग उसकी रचना के काल शताब्दी बाद भी गायन, वाचन और मंचन को अपना निजी और सामुदायिक कर्तव्य मानते हैं.
रामचरित मानस तो भारतीय समाज का ग्रंथ है. इसके रचना काल में उस समय के पैमानों के खिलाफ विद्रोह किया. ये दौर था जब संस्कृत को देव भाषा और देव-देवी वर्णन का एक मात्र भाषा माना गया था. गोस्वामी तुलसीदास ने इसके खिलाफ अवधि में इसकी रचना की. काशी के कट्टरपंथियों और परंपरावादियों ने नाराजगी चाहिर कर इसका जोरदार विरोध किया. उन्हें काशी में रहने नहीं दिया. पंचकोषी क्षेत्र में रहने नहीं दिया.
गोस्वामी तुलसीदास ने तो एक दोहे में यहां तक लिख दिया-
मैं मस्जिद में सो लूंगा,
भीख मांगकर पेट भर लूंगा,
न तुम्हारी बेटी से बेटा ब्याहने है,
न तुम्हारे बेटे से अपनी बेटी ब्याहनी है.
तुम हमारा पीछा छोड़ दो. हमको जो उचित लगता है, हमारे मार्गदर्शन के पूंज के तौर पर जो हमें राम जी और हनुमान जी से मिलताी है, उसी का हम वर्णन करेंगे. हम तो जनता में लिखते हैं और उसे जनभाषा में लिखेंगे.
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