(Source: ECI/ABP News/ABP Majha)
बदहाल होता बिहार और कमजोर होती जेडीयू, फिर भी 17 साल से सत्ता पर काबिज हैं नीतीश, सुशासन के दावे में कितना दम
भारत अब हमेशा चुनावी माहौल से तरबतर रहने लगा है. इस बीच बिहार और यहां के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की खूब चर्चा हो रही है. आपराधिक रिकॉर्ड के मामले में बिहार गिनती देश के चुनिंदा राज्यों में होती है. लेकिन हाल फिलहाल में कुछ ऐसी घटनाएं हुई हैं, जिसकी वजह बिहार और सुशासन का हमेशा दावा करने वाले नीतीश कुमार सुर्खियों में हैं.
बिहार में सुशासन का दावा और कुछ घटनाएं
कटिहार जिले में बिजली की मांग करने पर 26 जुलाई को पुलिस फायरिंग में दो लोगों की मौत की खबर आती है. हालांकि कटिहार के जिलाधिकारी और एसपी दोनों दावा करते हैं कि इन दो लोगों की मौत पुलिस की गोलियों नहीं हुई है.
उधर दरभंगा में दो समुदाय के बीच तनाव से माहौल काफी गरम है. दरभंगा शहर में 23 जुलाई को माहौल तब तनावपूर्ण हो गया था, जब कुछ लोगों की ओर से एक समुदाय के पूजा स्थल के करीब धार्मिक झंडा फहराने पर आपत्ति जताई गई थी. इस तनाव के बाद प्रशासन को जिले में अलग-अलग सोशल मीडिया वेबसाइट पर 30 जुलाई तक पाबंदी लगानी पड़ी है.
इससे पहले बेगूसराय के तेघड़ा इलाके में एक नाबालिग लड़की को निर्वस्त्र कर पीटने और वीडियो बनाकर वायरल करने का मामला सामने आया था. ये घटना 20 जुलाई की है.
बेगूसराय से ही एक और खबर आई है. बेगूसराय के जिला शिक्षा पदाधिकारी की ओर से 28 जुलाई को जिले के सभी शिक्षकों के लिए अजीब सा फरमान जारी हो जाता है. शिक्षक जीन्स-टी शर्ट पहनकर स्कूल नहीं आएंगे, दाढ़ी बढ़ाकर नहीं आएंगे. ऐसा होने पर वेतन कटौती की चेतावनी दी गई है. वहीं इसी फरमान में महिला शिक्षकों के ड्रेस को लेकर भी आदेश दिया गया है. इसमें कहा गया है कि महिला टीचर भड़काऊ या ज्यादा चमकीला ड्रेस पहनकर नहीं आएंगी.
शिक्षकों की भर्ती में डोमिसाइल की बाध्यता को खत्म करने के सरकारी आदेश के विरोध में पटना में राज्य भर से जुटे युवाओं को दौड़ा-दौड़ाकर पीटते बिहार पुलिस का वीडियो हम सबने देखा था. इस घटना को बीते हुए अभी एक महीना ही हुआ है.
ये तो हाल-फिलहाल की कुछ घटनाएं हैं, जिनसे बिहार में नीतीश कुमार के सुशासन के दावे की पोल खुलती नजर आती है. हर साल जहरीली शराब से लोगों के मरने की खबर की वजह से बिहार की चर्चा देशभर में होते ही रहती है. बालू माफियाओं का आतंक भी सुर्खियों में ही रहता है.
एनसीआरबी की रिपोर्ट से खुलती पोल
अगर राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो यानी एनसीआरबी की रिपोर्ट को मानें तो 2021 में जो अपराध का आंकड़ा रहा है, उसमें कानून व्यवस्था के मामले में बिहार की स्थिति अच्छी नहीं कही जा सकती है. 2021 में उत्तर प्रदेश के बाद हत्या के सबसे ज्यादा मामला बिहार में हुआ था. हत्या करने का प्रयास के मामले में पश्चिम बंगाल के बाद बिहार दूसरे नंबर पर था. किडनैपिंग और ऐब्डक्शन के मामले में उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र के बाद बिहार का नंबर था.
ये तो गंभीर अपराध से जुड़े मामले हैं. आर्थिक और सामाजिक विकास के अलग-अलग मापदंडों पर भी बिहार की स्थिति देश में काफी खराब है. उस पर चर्चा आगे करेंगे, उससे पहले यहां की राजनीतिक स्थिति और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और उनकी पार्टी पर बात कर लेते हैं.
मोदी सरकार के खिलाफ मोर्चाबंदी में व्यस्त हैं नीतीश
जिस तरह से बिहार में कानून व्यवस्था, प्रशासन की ओर से जनता के साथ व्यवहार सुर्खियों में है, उसी तरह से मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की चर्चा भी देशभर में हो रही है. इसके पीछे एक बहुत ही ख़ास कारण है. 2024 के लोकसभा चुनाव के लिए विपक्षी दलों का एक मजबूत गठबंधन बनाने में नीतीश कुमार ने पिछले कई महीने झोंक दिए. उन्होंने नरेंद्र मोदी सरकार के खिलाफ विपक्षी गठबंधन को आकार देने के लिए एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा दिया. उनकी मेहनत को देखकर सियासी विश्लेषक और राजनीति में दिलचस्पी रखने वाले लोगों ने ये तक कहना शुरू कर दिया कि नीतीश के अब बिहार का प्रशासन प्राथमिकता नहीं रह गया है. इंडियन नेशनल डेवलपमेंटल इनक्लूसिव अलायंस ( I.N.D.I.A.) के नाम से कांग्रेस समेत 26 दलों का जो विपक्षी गठबंधन सामने आया है, उसमें नीतीश कुमार की भूमिका काफी महत्वपूर्ण रही है. इस कारण से पिछले कुछ महीनों से नीतीश की चर्चा दिल्ली में खूब हुई.
बिहार की सत्ता पर 17 साल से काबिज हैं नीतीश
नीतीश 17 से ज्यादा साल से बिहार की राजनीति के सिरमौर बने हुए हैं. विडंबना ये है कि इन 17 साल में उनकी पार्टी जनता दल यूनाइटेड (JDU) की स्थिति बेहतर नहीं हुई है, बल्कि कमजोर ही हुई है. उसके बावजूद बिहार की सत्ता और नीतीश एक-दूसरे के पर्याय बने हुए हैं. इससे इतना तो पता चलता है कि नीतीश राजनीतिक तौर से एक मंझे हुए खिलाड़ी हैं और दलों के समीकरण को साधने में फिलहाल उनसे बेहतर कोई नहीं है.
हां, ये कह सकते हैं कि उनकी राजनीतिक मंशा पूरी होती गई, लेकिन इन 17 सालों में बिहार से वो सारे टैग हट नहीं पाए, जिनकी उम्मीद प्रदेश की जनता ने लालू राज के खत्म होने के बाद नीतीश से की थी. या फिर जिन उम्मीदों के भरोसे लालू राज से सत्ता छीनकर बिहार की जनता ने नीतीश को सौंपा था, उन उम्मीदों पर नीतीश खरा नहीं उतरे.
मई 2014 से फरवरी 2015 के बीच के 9 महीने को छोड़ दें तो जेडीयू नेता नीतीश कुमार 24 नवंबर 2005 से लगातार बिहार के मुख्यमंत्री हैं. बीच का जो 9 महीने का हिस्सा है, उस वक्त भी उनकी ही पार्टी सत्ता में थी. इस लिहाज से नीतीश कुमार बिहार की सत्ता पर 17 साल से ज्यादा वक्त से काबिज हैं.
सुशासन का दावा करके आए थे सत्ता में
नीतीश कुमार सुशासन का दावा कर नवंबर 2005 में बिहार की सत्ता को हासिल करने में कामयाब हुए थे. बिहार की जनता लालू यादव परिवार के शासन से त्राहिमाम-त्राहिमाम कर रही थी. उस नाराजगी और किसी हद तक आक्रोश का ही नतीजा था कि नीतीश को बिहार की जनता ने बदलाव के लिए मौका दिया था. हालांकि उनके पहले कार्यकाल में कानून व्यवस्था को लेकर बदलाव जनता ने महसूस किया था. उसका एक बड़ा कारण ये था कि 1990 से लेकर 2005 के बीच के 15 साल में बिहार में कानून व्यवस्था की जो हालात थी, उससे बुरा कुछ भी नहीं हो सकता और ये बात बिहार के बाहर के लोगों को कम समझ आएगी. उस दौर में बिहार में रहने वाले लोगों को ये बात बेहतर पता है.
2010 के बाद से कमजोर होते गई जेडीयू
यही कारण है कि जब नीतीश कुमार ने पहला कार्यकाल पूरा कर लिया तो 2010 के विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी को अब तक की सबसे बड़ी जीत मिली. हालांकि उसके बाद से नीतीश कुमार की पार्टी जेडीयू लगातार कमजोर होती गई है, ये विधानसभा चुनाव के नतीजों से भी पता चलता है.
अक्टूबर- नवंबर 2005 में हुए विधानसभा चुनाव में नीतीश की पार्टी को 88 सीटें और 20.46% वोट हासिल हुआ था. इस चुनाव में जेडीयू सबसे बड़ी पार्टी बनी थी. इसके अगले चुनाव में यानी 2010 में जेडीयू को 115 सीटों पर जीत मिली थी और उसका वोट शेयर 22.58% रहा था. इस चुनाव में भी बिहार में जेडीयू सबसे बड़ी पार्टी होने की उपलब्धि को बरकरार रखने में कामयाब रही. ये जेडीयू का अब तक का सबसे बेहतर प्रदर्शन रहा है.
2015 में सबसे बड़ी पार्टी होने का तमगा जेडीयू के हाथों से छीन गया. 2015 के विधानसभा चुनाव में 44 सीटों के नुकसान के साथ जेडीयू 71 सीटों पर जा पहुंची. इस चुनाव में जेडीयू के वोट शेयर में भी 5.81% की कमी आई. उसे 16.8% वोट हासिल हुए. नीतीश की पार्टी दूसरे पायदान पर पहुंच गई.
2020 में तो जेडीयू तीसरे नंबर की बन गई पार्टी
लगातार तीन कार्यकाल पूरा करने के बाद 2020 में जब नीतीश चुनाव में उतरे तो नतीजा उनकी पार्टी के लिए किसी बुरे सपने से कम नहीं था. जेडीयू को राज्य की कुल 243 विधानसभा सीटों में सिर्फ़ 43 सीट ही हासिल हो पाई. 28 सीटों के नुकसान के साथ जेडीयू इस चुनाव में तीसरे नंबर की पार्टी बन गई. 2015 के चुनाव में उसे 44 सीटों की नुकसान उठाना पड़ा था. इस बार जेडीयू का आंकड़ा और गिर गया. नीतीश की पार्टी का वोट शेयर भी गिरकर 15.39% पर जा पहुंचा. उसके वोट शेयर में 1.44% की कमी आई.
10 सालों में जेडीयू के जनाधार में तेज गिरावट
अगर मैक्सिमम से तुलना करें तो जेडीयू 2010 में 115 सीट पर थी और 2020 में 43 पर पहुंच गई यानी उस वक्त से तुलना करने पर नीतीश की पार्टी को 72 सीटें कम हो गई. साथ ही विधानसभा चुनाव में जेडीयू को सबसे ज्यादा वोट शेयर 2010 में ही हासिल हुआ था जो 22.58% था. ये गिरकर 2020 में 15.39% पर जा पहुंचा. यानी इन 10 सालों में जेडीयू के वोट शेयर में 7 फीसदी से ज्यादा की कमी आई. पिछले 3 विधानसभा चुनाव के विश्लेषण और नतीजों से स्पष्ट है कि नीतीश की पार्टी 10 सालों में लगातार कमजोर होते गई. सीटों की संख्या और वोट शेयर से इसकी पुष्टि भी होती है.
पार्टी कमजोर हुई लेकिन सीएम बने रहे नीतीश
बिहार की राजनीति में एक विरोधाभास है. भले ही नीतीश की पार्टी कमजोर होते गई, लेकिन खुद नीतीश यहां की सत्ता से कभी दूर नहीं हो पाए. पार्टी का जनाधार कम होते गया, शरद यादव जैसे सीनियर नेता पार्टी से चले गए. उपेंद्र कुशवाहा, जीतन राम मांझी, आरसीपी सिंह जैसे नेताओं ने भी नीतीश का साथ छोड़ दिया. 2015 के विधानसभा चुनाव में बगैर बीजेपी के नीतीश को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठाने वाले चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर तक ने जेडीयू का साथ छोड़ दिया...इन तमाम परिस्थितियों के बावजूद नीतीश बिहार के मुख्यमंत्री बने ही रहे.
विधानसभा में जेडीयू की अकेले नहीं हुई है परीक्षा
इस करिश्मा के पीछे नीतीश कुमार की राजनीतिक सूझबूझ को लोग जिम्मेदार बताते हैं. हालांकि ये राजनीतिक सूझबूझ राज्य में राजनीतिक माहौल को देखकर नीतीश के पाला बदलने से जुड़ा हुआ है. नीतीश कुमार की पार्टी जेडीयू कभी भी विधानसभा चुनाव में अकेले नहीं उतरी है. नीतीश पाला बदलने में माहिर रहे हैं.
नीतीश का राजनीतिक सफर कभी लालू प्रसाद यादव के साथ शुरू हुआ था. नीतीश ने लंबे वक्त तक लालू के साथ मिलकर राजनीतिक पारी खेली. 1994 में पहली बार नीतीश ने पाला बदला और लालू यादव से किनारा करते हुए समता पार्टी बना डाली. आगे चलकर अक्टूबर 2003 में मुख्य तौर से यही समता पार्टी, जेडीयू में बदल गई.
लालू से अलग होने के बाद नीतीश की पार्टी ने जब पहली बार बिहार विधानसभा चुनाव में उतरी तो इस पार्टी का प्रदर्शन काफी खराब रहा. 310 सीटों पर चुनाव लड़ने के बावजूद समता पार्टी महज़ 7 सीट जीत पाई. उसके बाद नीतीश ने बीजेपी का दामन थामा और उसी का नतीजा था कि नवंबर 2005 में बिहार की सत्ता पर काबिज हुए.
बीजेपी या आरजेडी के साथ से ही मिली है जीत
नीतीश 2000, 2005 में दो बार, 2010 और 2020 यानी कुल 4 बार बीजेपी के साथ विधानसभा चुनाव में उतरे. उसी तरह से नीतीश 2015 में आरजेडी और कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव में उतरे. यानी विधानसभा चुनाव में जेडीयू कभी भी अपने दम पर चुनाव नहीं लड़ी है. झारखंड के अलग राज्य बनने के बाद नीतीश की पार्टी कभी भी अकेले बिहार विधानसभा चुनाव से जुड़ी परीक्षा में नहीं बैठी है.
2014 में अकेले लड़ने पर हुआ था बुरा हाल
जेडीयू के अस्तित्व में आने के बाद नीतीश की पार्टी बिहार में सिर्फ़ और सिर्फ़ एक चुनाव में अकेले उतरी थी और वो था 2014 का लोकसभा चुनाव. अकेले इस पार्टी की क्या पकड़ थी, उसे नतीजों से समझा जा सकता है. 2014 के लोकसभा चुनाव में जेडीयू को कुल 40 में से सिर्फ़ 2 सीटों पर जीत मिली और उसके वोट शेयर में भी 8 फीसदी से भी ज्यादा की कमी आई थी. चाहे विधानसभा हो या लोकसभा चुनाव, नतीजे तो यही बताते हैं कि नीतीश की पार्टी कभी भी बिहार में अकेले दम पर कोई करिश्मा करने में सफल नहीं रही है. एक बार जेडीयू 2014 में अकेले उतरी भी तो हश्र बहुत बुरा हुआ.
बार-बार पाला बदलकर बने रहे सीएम
इन सबके बावजूद 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले ही बीजेपी से दामन झाड़ चुके नीतीश को पता था कि अगर सत्ता में रहना है तो आरजेडी से हाथ मिलाना होगा. 2015 का विधानसभा चुनाव नीतीश, लालू के साथ मिलकर लड़े और मुख्यमंत्री की कुर्सी बचाने में कामयाब रहे. उस वक्त महागठबंधन के तहत आरजेडी सबसे बड़ी पार्टी बनी थी, लेकिन मुख्यमंत्री की कुर्सी पर नीतीश ही बैठे.
सियासी मजबूरी का उठाते रहे फायदा
हालांकि पूरा कार्यकाल तक नीतीश ने आरजेडी-कांग्रेस का साथ नहीं दिया और जुलाई 2017 फिर से बीजेपी के साथ हो गए और मुख्यमंत्री बने रहे. फिर 2020 में बीजेपी के साथ का फायदा उठाकर तीसरे नंबर की पार्टी होने के बावजूद मुख्यमंत्री बनने में कामयाब रहे. नीतीश को भले ही मात्र 43 सीटें मिली थी, लेकिन उन्हें पता था कि बीजेपी 74 सीटें लाकर भी मुख्यमंत्री पद पर दावा नहीं कर सकती है. बीजेपी के पास नीतीश को मुख्यमंत्री बनाने के अलावा कोई विकल्प ही नहीं था. अगर बीजेपी ऐसा नहीं करती तो नीतीश शायद उस समय ही आरजेडी का दामन थाम लेते. नीतीश इस बात को अच्छी तरह से समझ रहे थे 2020 के नतीजों के हिसाब से बीजेपी हो या फिर आरजेडी-कांग्रेस-लेफ्ट का महागठबंधन ..दोनों पक्ष में कोई भी उनके बिना सरकार नहीं बना सकता और बीजेपी का आरजेडी से गठजोड़ होगा नहीं. यही कारण था कि बीजेपी सीएम पद पर दावा कर ही नहीं सकती थी.
हालांकि नीतीश यहां भी नहीं रुके. नीतीश को एहसास हो गया था कि आने वाले वक्त में बीजेपी से उनको वो भाव नहीं मिलने वाला है. राजनीतिक रुख को भांपते हुए मुख्यमंत्री की कुर्सी को बचाने के लिए नीतीश ने एक बार फिर अगस्त 2022 में पाला बदला. बीजेपी को छोड़कर वे आरजेडी-कांग्रेस के साथ आ गए और मुख्यमंत्री खुद बने रहे. सबसे बड़ी पार्टी होने के बावजूद आरजेडी के पास भी कोई विकल्प नहीं था कि सीएम पद पर नीतीश की दावेदारी को चुनौती दे सके. सत्ता में रहने की चाहत हर दल को होती है और नीतीश मुख्यमंत्री से कम पर मानने वाले हैं ही नहीं..ये भी बात तेजस्वी को पता है.
बीजेपी-आरजेडी-जेडीयू के त्रिकोण से लाभ
दरअसल जेडीयू कमजोर होते गई, लेकिन बिहार में जो राजनीतिक त्रिकोण बनता है, बीजेपी, आरजेडी और जेडीयू की वजह से उसमें नीतीश का महत्व काफी ज्यादा हो जाता है. लगातार 17 साल से नीतीश कुमार बिहार की सत्ता पर काबिज हैं, तो उसका सबसे बड़ा कारण ये राजनीतिक त्रिकोण की स्थिति है. बीजेपी-आरजेडी एक साथ आ नहीं सकती. 2005 से न तो बीजेपी और न ही आरजेडी अकेले दम पर सरकार बनाने की हैसियत में रही. यही वजह है कि नीतीश एक तरह से दोनों दलों के लिए मजबूरी बने रहे हैं और इस कारण से मुख्यमंत्री की कुर्सी नीतीश से चिपकी रही है. इसके पीछे के गणित का संबंध जनाधार से ज्यादा नहीं है, बल्कि राजनीतिक त्रिकोण की स्थिति से है.
17 साल में पिछड़े राज्य का टैग नहीं हटा पाए
सियासी दांव-पेंच में माहिर नीतीश पिछले 17 साल से मुख्यमंत्री की कुर्सी बचाने में कामयाब होते रहे हैं, लेकिन बिहार को आर्थिक-सामाजिक पिछड़ेपन से निकालने में कामयाब नहीं हो पाए हैं. किसी भी राज्य का कायाकल्प करने के लिए 17 साल का समय काफी वक्त होता है. उसके बावजूद बिहार अभी भी देश के सबसे पिछड़े राज्यों में शामिल है. अर्थव्यवस्था की कोई भी कसौटी हो, अभी भी बिहार नीचे से ही किसी पायदान पर खड़ी मिलेगी. चाहे गरीबी, चाहे साक्षरता हो..17 सालों में भी नीतीश बिहार को उस टैग से बाहर नहीं निकाल पाए, जो टैग बिहार के ऊपर 90 के दशक में था.
देश का सबसे गरीब और कम साक्षर राज्य
आज भी साक्षरता के मामले में बिहार देश में सबसे निचले स्थान पर है. शिक्षा और शैक्षणिक माहौल का स्तर लगातार गिरते जा रहा है. उच्च शिक्षा की हालत तो और भी खराब है. बिहार में बेरोजगारी दर 18.8% तक पहुंच गया है. जम्मू-कश्मीर और राजस्थान के बाद उच्चतम बेरोजगारी दर के मामले में बिहार तीसरे नंबर पर है. प्रदेश में उद्योग न के बराबर है. प्रदेश के जीडीपी में 30 से 35% हिस्सा अभी भी बिहार से बाहर काम करने वाले लोगों की ओर से भेजी हुई राशि का है.
17 साल में भी प्रदेश की नहीं बदली तस्वीर
प्रदेश के बाकी हिस्सों की क्या बात करें, राजधानी पटना में चंद वीआईपी इलाकों को छोड़ दें, तो सड़क, नाला से लेकर दूसरे जरूरी बुनियादी सुविधाओं का क्या हाल है, ये वहां के निवासी ही जानते हैं. 17 साल से नीतीश के सत्ता में होने के बावजूद उत्तर बिहार के लोगों को हर साल बाढ़ की त्रासदी वैसे ही झेलनी पड़ रही है.
बिहार में ऐसा कोई सेक्टर नहीं है, जिसको लेकर ये कहा जाए कि वो भारत के किसी राज्य की तुलना में बेहतर हो. इसके लिए किसी आंकड़े की जरूरत नहीं है. जो लोग वहां रह रहे हैं, वे इसे रोज महसूस करते हैं. बिहार के लोगों को हर दिन बहुत सारी ऐसी समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है, जो दो दशक पहले से मौजूद थे. बिहार के लोगों को अभी प्राइमरी हेल्थ फैसिलिटी के लिए जूझना पड़ रहा है. सरकारी अस्पतालों का हाल कितना बुरा है, ये तो वहां रहने वाले लोग ही बेहतर समझ सकते हैं. प्रदेश में इन हालातों से समझा जा सकता है कि नीतीश के सुशासन के पैरामीटर से 17 साल बाद भी बिहार आर्थिक-सामाजिक मानकों पर कहां खड़ा है.
स्थिति सुधारने से ज्यादा राजनीति पर फोकस
बिहार में जातीय राजनीति शायद देश में सबसे ज्यादा हावी रहा है. इसके बावजूद अभी भी मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का मुख्य ज़ोर बिहार को आर्थिक-सामाजिक रूप से विकसित राज्य बनाने पर नहीं है, बल्कि जातिगत जनगणना पर है. उनके करीब 17 साल मुख्यमंत्री रहने के बावजूद बिहार विकास के पैमाने पर कहां खड़ा है, इस पर चिंतन करने की बजाय नीतीश कुमार जातिगत सर्वे का विरोध करने वाले प्रदेश के लोगों की मौलिक समझ पर ही तंज कसने में जुटे हैं.
बिहार के हर लोगों तक बेहतर शिक्षा, बेहतर मेडिकल सुविधा, बेहतर रोजगार पहुंचाने में नीतीश 17 साल में कहां पहुंचे हैं, ये बिहार में रहने वाले लोग ज्यादा बेहतर बता सकते हैं. अब तो आरजेडी-कांग्रेस के साथ आकर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार बिहार की राजनीति को लेकर ज्यादा आश्वस्त नजर आ रहे हैं. बिहार में चुनाव जीतने के लिए बाकी मुद्दों के अलावा जातिगत समीकरण ज्यादा महत्व रखते हैं. ये बात विधानसभा चुनाव पर तो और भी लागू होती है. यहीं कारण ही जेडीयू और आरजेडी-कांग्रेस-लेफ्ट दलों के एक साथ आने से जो जातीय समीकरण इस पाले के हिसाब से बनता है, वो काफी मजबूत समीकरण हो जाता है और इसकी बानगी हम 2015 के विधानसभा चुनाव में देख चुके हैं. शायद ये वो वजह है कि अब नीतीश कुमार पार्टी का जनाधार कम होने के बावजूद राजनीतिक तौर से खासकर प्रदेश की सत्ता को लेकर ज्यादा निश्चिंत नजर आ रहे हैं.
[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.]