बिहार में जिस तरह की सियासी हलचल मची हुई है, उसे देखकर लगता है कि आजादी का अमृत महोत्सव मनाने से पहले ही वहां सरकार की सूरत बदलने की तैयारी है. लगता है कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार (Nitish Kumar) बीजेपी (BJP) की बैसाखी को छोड़कर आरजेडी (RJD) और कांग्रेस (Congress) के समर्थन से सरकार चलाने का मन बना बैठे हैं. उन्होंने रविवार को सोनिया गांधी (Sonia Gandhi) से भी फोन पर लंबी बातचीत की है और बताया जा रहा है कि इसमें नए गठबंधन वाली सरकार के ख़ाके को लेकर दोनों के बीच चर्चा हुई.
बिहार की राजनीति में 9 अगस्त की तारीख को सत्ता परिवर्तन के लिहाज से अहम माना जा रहा है क्योंकि उसी दिन नीतीश की जेडीयू और तेजस्वी यादव की आरजेडी समेत कांग्रेस के विधायक दल की भी बैठक होनी है. इसलिये राजनीतिक विश्लेषक मान रहे हैं कि उसी दिन नीतीश कुमार बीजेपी से मुक्ति पाने का बड़ा ऐलान कर सकते हैं.
नीति आयोग की बैठक में नहीं गए नीतीश कुमार
रविवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) की अध्यक्षता में नीति आयोग (NITI Aayog) की बैठक बुलाई गई थी लेकिन नीतीश ने इसमें शिरकत नहीं कि बल्कि वे पटना के दो समारोह में नज़र आये. इसका संदेश साफ था कि वे अब बीजेपी से छुटकारा पाना चाहते हैं. लेकिन ऐसा पहली बार नहीं हुआ, जब नीतीश ने केंद्र सरकार के प्रति ऐसी बेरुखी दिखाई हो. पिछले 20 दिनों में चौथी बार उन्होंने दिल्ली में हुए महत्वपूर्ण आयोजनों में अपनी गैर मौजूदगी के जरिये मोदी सरकार व बीजेपी को ये अहसास कराया है कि बहुत हो चुका, अब रास्ते बदलने का वक्त आ गया है.
दरअसल, आज़ादी का अमृत महोत्सव धूमधाम से मनाने के लिए तिरंगा अभियान को लेकर गृह मंत्री अमित शाह ने 17 जुलाई को तमाम राज्यों के मुख्यमंत्रियों की बैठक बुलाई थी, लेकिन उसमें नीतीश नहीं आये. उसके बाद तत्कालीन राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के सम्मान में 22 जुलाई को विदाई भोज रखा गया था लेकिन नीतीश उसमें भी शामिल नहीं हुए. अब बारी आई,नव निर्वाचित राष्ट्रपति द्रोपदी मुर्मू के शपथ ग्रहण समारोह की, जो 25 जुलाई को हुआ था. उसमें भी आने के लिए केंद्र सरकार ने नीतीश कुमार को न्योता भेजा था लेकिन वे तब भी नहीं आये. इन समारोह में शामिल न होने के पीछे तर्क दिया गया कि दो हफ्ते पहले उनकीं कोरोना रिपोर्ट पॉजिटिव आई थी. लेकिन बीती 3 अगस्त को उनकी रिपोर्ट नेगेटिव आ गई. उसके बावजूद 7 अगस्त को दिल्ली में नीति आयोग की बैठक में उनके न आने और पटना के समारोह में शामिल होने से बीजेपी के "चाणक्य" भी समझ चुके हैं कि नीतीश कौन-सी नई सियासी खिचड़ी पकाने में जुटे हुए हैं.
हालांकि बिहार में बनने वाले इस नए सियासी समीकरण की शुरुआत तो तभी हो गई थी, जब तेजस्वी यादव द्वारा दी गई इफ़्तार पार्टी में नीतीश कुमार बरसों बाद राबड़ी देवी के सरकारी आवास पर पैदल ही पहुंचे थे और तब उन्होंने लालू प्रसाद यादव के दोनों बेटों तेजस्वी व तेजप्रताप यादव को अगल-बगल बैठाकर मीडिया के कैमरों को कैद करने का जो मौका दिया था,वह एक तस्वीर ही बिहार की सियासत में आने वाले नए भूचाल की तस्दीक करने वाली थी.
जाहिर है कि राजनीति में पुराने साथी को छोड़ने और नये साथी से रिश्ता जोड़ने के लिए पहले मजबूत वजह तलाशी जाती है. नीतीश कुमार राजनीति के मंझे हुए खिलाड़ी हैं, इसलिये ऐसा हो नहीं सकता कि वे पुराना साथ छोड़ने और नया साथ जोड़ने की वाजिब वजह बिहार के लोगों के साथ ही देश को बताने में कोई चूक कर जायें. इसलिये देखना होगा कि वे वे एनडीए से अपना नाता तोड़ने का सारा ठिकरा किसके सिर पर फोड़ते हैं.
आरसीपी सिंह का केंद्रीय मंत्री बनना नीतीश को नहीं आया पसंद
पिछले चुनाव में जेडीयू को कम सीटें मिलने के बावजूद बीजेपी आलाकमान ने जब नीतीश कुमार को ही सीएम बनाने का फैसला लिया, तो वह बीजेपी की बिहार इकाई के नेताओं को जरा भी रास नहीं आया था. लेकिन अनुशासन की लाठी के आगे वे चुप तो रहे पर, दोनों के बीच कई मुद्दों पर तनातनी होने की खबरें पटना से निकलकर दिल्ली दरबार तक लगातार पहुंचती रही. नीतीश को काबू में करने का संदेश देने के लिए एक तोड़ ये निकाला गया कि जदयू के पूर्व अध्यक्ष आरसीपी सिंह को केंद्रीय मंत्री बना दिया गया. जबकि वे नीतीश की पसंद नहीं थे और वे अपने खास सिपहसालार ललन सिंह को मंत्री बनवाना चाहते थे. बता दें कि सिंह एक जमाने में नीतीश के सचिव हुआ करते थे. लेकिन पीएम मोदी के फैसले के आगे चुप रहने में ही नीतीश ने अपनी भलाई समझी क्योंकि कम सीटें मिलने के बावजूद उन्हें सीएम पद से नवाज़ा गया था, लिहाज़ा एनडीए के गठबंधन में बने रहना भी उनकी मजबूरी थी.
इंजीनियरिंग की पढ़ाई के दौरान नीतीश कुमार के साथी रहे और बाद में,उनके राजनीतिक सफ़र में मददगार बने लोग बताते हैं कि वे सियासी समंदर के ऐसे खिलाड़ी हैं,जो हर तेज उठने वाली लहर का मिज़ाज समझने में ज्यादा देर नहीं लगाते लेकिन सामने वाले को मौका भी देते हैं कि वो लहर कोई तूफ़ान लाने में कामयाब होती भी है या नहीं.
बिहार के सियासी समंदर में आरसीपी सिंह के जरिये ही वह लहर उठी थी. नीतीश ने भांप लिया कि इसके पीछे कौन-सी ताकत है, जो उनके ही ख़िलाफ़ चक्रव्यूह रच रही हैं. लिहाजा,उन्होंने पिछले महीने हुए राज्यसभा चुनाव के दौरान आरसीपी सिंह को दोबारा मौका देने से साफ इनकार करते हुए आरपार की लड़ाई लड़ने का फैसला कर लिया. उसके बाद आरसीपी सिंह की मोदी सरकार ऐसी से विदाई हुई कि कहां तो कल तक कैबिनेट मंत्री थे और अब सांसद भी नहीं रहे. तभी से आरसीपी सिंह पार्टी से नाराज चल रहे थे और उन्हें लग रहा था कि नीतीश उन्हें मनाने आयेंगे. लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ और सिंह ने तमाम आरोप लगाते हुए शनिवार को जेडीयू की प्राथमिक सदस्यता से इस्तीफा दे दिया. वैसे भी नीतीश और कुनबा तो चाहता भी यही था कि वे खुद ही इस्तीफ़ा देकर पार्टी का पिंड छोड़ दें.
पर,इस इस्तीफे के बाद जदयू और बीजेपी के मतभेद खुलकर सामने आ गए. जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजीव रंजन सिंह उर्फ ललन सिंह ने साल 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में अपनी पार्टी को कम सीट आने के लिए साजिश रचे जाने का आरोप लगाया. उनके मुताबिक उनकी पार्टी की महज़ 43 सीट जीतने के पीछे जनाधार का कम होना नहीं है,बल्कि इसकी बड़ी वजह नीतीश कुमार के खिलाफ रची गई साजिश थी, जिसे लेकर अब हम लोग सतर्क हैं. उन्होंने कहा कि पहले चिराग पासवान और अब आरसीपी सिंह सब इसी साजिश का हिस्सा हैं.
इसलिए सदियों पहले से ही अनुभवी दार्शनिक कहते आए हैं कि राजनीति को आप कभी भी चरित्र के तराजू पर नहीं तौल सकते क्योंकि वो इसके लिए कभी बनी ही नहीं और न ही आगे उसका ऐसा बनने की कोई गुंजाइश ही दिखती है!
(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)