बिहार में नीतीश और कुशवाहा की लड़ाई का किसे होगा फायदा? 2024 चुनाव से पहले क्या बन रहे समीकरण
बिहार की राजनीति में फिलहाल हलचल का दौर चल रहा है. उपेंद्र कुशवाहा ने जो कदम उठाया है, उसे कहीं न कहीं नीतीश कुमार के लिए बड़ा झटका है. क्योंकि बिहार की राजनीति में वोट की दृष्टि से देखें तो जाति एक सच्चाई है. पिछले कुछ सालों में नीतीश कुमार की राजनीतिक हैसियत कम हुई है. बिहार विधानसभा में सत्तारूढ़ दल होते हुए भी उनकी पार्टी तीसरे नंबर पर है.
नीतीश कुमार ने विधानसभा चुनाव के बाद एक लव-कुश समीकरण बनाने की कोशिश की थी, जिसके तहत उपेंद्र कुशवाहा को शामिल किया गया था. जिसके बाद अब ये सब हुआ है. नीतीश ने कभी किसी को निकाला नहीं है, लेकिन दल में विरोध करने वालों को सजा भी जरूर दी है. सम्राट चौधरी जो विपक्ष में बीजेपी के नेता हैं, वो भी मनोनीत सदस्य थे. उनके खिलाफ भी एक्शन लिया गया था. मुझे लगता है कि उपेंद्र कुशवाहा के साथ भी यही होगा. संसदीय बोर्ड के अध्यक्ष पद से उन्हें हटाया जाएगा, क्योंकि दोनों के बीच अब रिश्ते सुधरने की उम्मीद कम है.
नीतीश कुमार को लगा बड़ा झटका
नीतीश कुमार ने विपक्षी एकजुटता की जो मुहिम शुरू की थी, उसे लेकर भी उन्हें बड़ा झटका लगा. पिछले दिनों केसीआर ने जो मेगा रैली की, उसमें नीतीश कुमार को न्योता नहीं दिया गया. वहां केरल के सीएम थे, केजरीवाल थे, पंजाब के सीएम भगवंत मान भी मौजूद थे. नीतीश कुमार का ये कहना है कि बिहार में वो कांग्रेस के साथ हैं. इनका शुरू से ही ये रहा है कि बिना कांग्रेस के बीजेपी के खिलाफ कोई भी मोर्चा नहीं बन सकता है. लेकिन अब पूरे विपक्ष को एकजुट कर पाना असंभव सा दिख रहा है.
विपक्षी मोर्चे की बात करें तो सवाल ये है कि इस मोर्चे को कौन लीड करेगा. बिहार में राजद से उन्होंने जो समझौता किया था, उसमें ये था कि नीतीश केंद्र की राजनीति में जाएंगे और यहां अपने भतीजे की राजनीति को चमकाएंगे. उन्होंने कह भी दिया है कि 2025 का विधानसभा चुनाव तेजस्वी के नेतृत्व में लड़ा जाएगा. कुल मिलाकर बिहार में सत्तारूढ़ दल में उहापोह की स्थिति है.
बिहार में विपक्ष के पास मौका
बिहार में लोकसभा की 40 सीटें हैं, पिछले चुनाव में जब नीतीश कुमार और बीजेपी साथ थे तब एनडीए ने 39 सीटों पर जीत दर्ज की थी. इसमें बीजेपी को 17 सीटें और जेडीयू को 16 सीटें मिलीं थीं. आने वाले लोकसभा चुनाव में बिहार में जो पिछड़ों की गोलबंदी होगी उसमें विपक्ष के पास खोने के लिए कुछ नहीं है. बिहार में बीजेपी एक तरफ है और सात दल एक तरफ है. साफ है कि विपक्ष के पास पाने का मौका है. बीजेपी बिहार में अगर अपनी 17 सीटें बचा लेगी वही उसके लिए काफी है. साल 2015 में जो चुनाव हुआ था, उस वक्त बीजेपी ने नीतीश को सत्ता से बाहर करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी थी. लेकिन लालू और नीतीश की एकता का नतीजा रहा कि बीजेपी सत्ता से दूर रही.
अगर नीतीश कुमार अपनी पार्टी से उपेंद्र कुशवाहा को निकाल देते हैं तो इसका ज्यादा असर नहीं पड़ने वाला है. कुशवाहा पर अभी तक नीतीश कुमार का जादू चल रहा था. उनके हटने के बाद एक निराशा जरूर होगी, लेकिन मुझे लगता है कि जातीय समीकरण को लेकर लालू और नीतीश आगे रहने वाले हैं. चुनाव से पहले अगर कोई करिश्मा हो जाए और बीजेपी 17 से ज्यादा सीटें जीत जाए ये अलग बात है, लेकिन शायद ये स्थिति नहीं आने वाली है.
नीतीश की विश्वसनीयता में आई कमी
नीतीश कुमार के पाला बदलने से एक हिस्से में काफी ज्यादा खुशी है, लेकिन नीतीश की राजनीतिक विश्वसनीयता कम हुई है. वो राजनीतिक रूप से दलों के लिए भी विश्वसनीय नहीं रहे हैं. बिहार में पिछले तीन दशक से एक पोल लालू यादव का है और दूसरा लालू विरोधी पोल है. नीतीश की जो राजनीति चमक रही थी वो लालू विरोधी थी. अब नीतीश खुद लालू के साथ मिल गए हैं तो अब वो लालू विरोधी मत कितना ले जाएंगे ये देखने वाली बात है. मैं मानता हूं कि हर चुनाव में 10 फीसदी फ्लोटिंग वोट होता है. बतौर सीएम उनकी छवि अच्छी रही है, इसमें कोई संदेह नहीं है. अभी तीन सीटों पर उपचुनाव हुआ था, जिसमें दो सीटें बीजेपी के हाथ लगी हैं. इससे लग रहा है कि अति पिछड़ों के वोट नीतीश कुमार नहीं संभाल पाएंगे और वो वोट फिर बीजेपी के साथ जाएंगे.
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