ये आठवां मौका है, जब नीतीश कुमार ने बिहार के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली है. वो पिछले करीब 17 साल से बिहार के मुख्यमंत्री हैं. लेकिन नीतीश कुमार जब पहली बार मुख्यमंत्री बने थे तो वो बीजेपी के साथ थे, इसके बावजूद उन्हें महज सात दिनों के अंदर ही इस्तीफा देना पड़ गया था. और तब बिहार के बड़े-बड़े माफिया मिलकर भी नीतीश की कुर्सी को नहीं बचा पाए थे.
वो साल था 2000. बिहार में विधानसभा चुनाव का साल. तब बिहार और झारखंड एक ही हुआ करते थे. विधानसभा सीटों की कुल संख्या हुआ करती थी 324. तब राबड़ी देवी मुख्यमंत्री हुआ करती थीं. लालू यादव चारा घोटाले में फंस चुके थे. उनका जेल में आना-जाना शुरू हो गया था. और इसकी वजह से ये लगभग तय माना जा रहा था कि 2000 का विधानसभा चुनाव लालू-राबड़ी राज का खात्मा कर देगा. इसकी वजह से बिहार की दूसरी पार्टियों की महत्वाकांक्षाएं बढ़ गई थीं.
बीजेपी को अपनी संभावना नजर आ रही थी. कांग्रेस को अपनी. तब नीतीश कुमार समता पार्टी में हुआ करते थे, जो बीजेपी की सहयोगी पार्टी थी. तो लालू की कमजोरी में उन्हें अपना भी भविष्य नजर आ रहा था. शरद यादव जेडीयू में थे. उन्हें भी लग रहा था कि अच्छा मौका है...
और नतीजा ये हुआ कि लालू तो कमजोर हुए ही थे, उन्हें चुनौती देने वाले भी एकजुट नहीं हो पाए. बीजेपी ने 168 सीटों पर प्रत्याशी खड़े किए. समता पार्टी और जेडीयू का रिश्ता टूट गया था तो दोनों ने अलग-अलग चुनाव लड़ा. समता पार्टी ने 120 सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारे. जेडीयू ने 87 सीटों पर चुनाव लड़ा. बाहुबली आनंद मोहन सिंह की भी बिहार पीपल्स पार्टी चुनावी मैदान में उतरी और 33 सीटों पर चुनाव लड़ा. और इन सभी का एक ही नारा था कि लालू के जंगलराज को उखाड़ फेंकना है. कमजोर पड़े लालू ने भी कुल 293 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे. कांग्रेस ने अकेले 324 सीटों पर चुनाव लड़ा.
यानी कि न तो लालू ने अपने गठबंधन को मजबूत बना चुनाव लड़ा और न ही विपक्ष एकजुट हो पाया. नतीजा ये हुआ कि लालू यादव की पार्टी चुनाव में फिर से सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी. उन्हें मिलीं कुल 124 सीटें. जबकि बीजेपी को 67, समता पार्टी को 34 और जेडीयू को 21 सीटों पर जीत मिली. कांग्रेस ने उस चुनाव में 23 सीटें जीती थीं और बहुमत का आंकड़ा 163 का था. यानी कि बहुमत किसी के पास नहीं था. लालू के विपक्ष में खड़ी बीजेपी, जेडीयू और समता पार्टी को मिलाकर भी 122 सीटें ही हो रही थीं. लालू के पास अकेले 124 सीटें थीं.
और तब केंद्र में प्रधानमंत्री थे अटल बिहारी वाजपेयी. प्रदेश में राज्यपाल थे विनोद चंद्र पांडेय. और फिर चला केंद्र की सत्ता का जोर. दिल्ली से राज्यपाल को हुक्म मिला कि समता पार्टी के नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाई जाए. राज्यपाल विनोद चंद्र पांडेय ने नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला दी. वो तारीख थी 3 मार्च, 2000.
अब पहली बार मुख्यमंत्री बने नीतीश कुमार के पास एक हफ्ते का वक्त था बहुमत साबित करने के लिए. फिर शुरू हुई जोड़-तोड़ की कोशिश. जेडीयू और बीजेपी के समर्थन के बावजूद नीतीश को कम से कम 41 सीटें और चाहिए थी. वहीं लालू के पास खुद की 124 सीटें थीं और उनकी नजर कांग्रेस के 23 विधायकों पर थी. कांग्रेस विधायक न टूटें, इसके लिए लालू के वफादार रहे मोहम्मद शहाबुद्दीन ने कांग्रेस के 8 विधायकों को पटना के होटल में कैद कर लिया. दूसरी तरफ लालू ने सोनिया गांधी के राजनीतिक सचिव अहमद पटेल से बात की और बिहार से बीजेपी को बाहर रखने के लिए कांग्रेस का समर्थन मांगा.
वहीं नीतीश के पास ले-देकर निर्दलीयों का ही सहारा था, जिनकी संख्या 20 थी. लेकिन इनमें से भी अधिकांश ऐसे थे, जिनकी छवि बाहुबली की थी. सूरजभान, सुनील पांडेय, राजन तिवारी, रमा सिंह और मुन्ना शुक्ला. इन सभी पर हत्या, हत्या की कोशिश, अपहरण, लूट, डकैती जैसे गंभीर अपराध के केस दर्ज थे. नीतीश कुमार को उनके साथियों ने दिलासा दिलाया था कि ये सभी निर्दलीय बाहुबली नीतीश कुमार का समर्थन करने को तैयार हैं. और अगर नीतीश इनका समर्थन ले लेते हैं तो जो 20-21 विधायक बहुमत से कम हो रहे हैं, ये लोग उसका भी जुगाड़ कर देंगे...
नीतीश पहली बार मुख्यमंत्री बने थे. चाहते थे कि वो कुर्सी पर बने रहें...लेकिन अगर वो बाहुबलियों की मदद से मुख्यमंत्री बनते तो राजनीति में उनकी आगे की राह मुश्किल होती. ऐसे में नीतीश ने इन बाहुबलियों का अप्रत्यक्ष समर्थन लेने का फैसला किया. और तय किया कि ये सभी बाहुबली और बचे हुए विधायक बीजेपी को समर्थन देंगे और बीजेपी नीतीश को. बीजेपी में इसकी जिम्मेदारी उठाई पार्टी के वरिष्ठ नेता रहे श्रीपति मिश्र ने.
और फिर विधानसभा में विधायकों की शपथ के दौरान ऐसे कई बाहुबली नेताओं ने नीतीश कुमार जिंदाबाद के नारे लगाए. नीतीश के साथ फोटो खिंचवाई. और खुद को बिहार के मुख्यमंत्री का करीबी घोषित कर दिया. लेकिन तब भी बात नहीं बन पाई. नीतीश जरूरत के 163 विधायक नहीं जुटा पाए. तब भी नहीं, जब उनके पास बिहार के कई बाहुबली थे. और तब भी नहीं, जब केंद्र में एनडीए की वाजपेयी सरकार थी, जिसमें वो केंद्र में मंत्री रहे थे.
वहीं लालू ने करिश्मा कर दिखाया. कांग्रेस को मना लिया. और भी विधायक मान गए. नतीजा ये हुआ कि नीतीश कुमार ने बहुमत परीक्षण से पहले ही 10 मार्च को इस्तीफा दे दिया. दिल्ली लौट आए. पहले कृषि मंत्री बने और फिर रेल मंत्री. बिहार लालू के पास ही रहा और फिर 2005 में वो सब हुआ, जिसने नीतीश कुमार को बिहार के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर ऐसा स्थापित किया कि सहयोगी बदलते रहे, लेकिन नीतीश कुर्सी पर जमे तो अब भी जमे ही हैं.
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