जिस जमाने में अमेरिका की जमीन पर 50 गज़ जमीन खरीदना भी एक सपना हुआ करता था उसी दौरान भारत से पहुंचे एक शख्स ने वहां 64 एकड़ जमीन खरीदकर एक ऐसा कम्यून बना डाला जिसने अमेरिकी हुकूमत को भी हिला डाला था. उसी शख्स ने तकरीबन तीन दर्जन देशों के लोगों को अपनी वाणी-ध्यान के साथ जब जोड़ लिया तो अमेरिका की सरकार बेचैन हो उठी थी कि ये अकेला शख्स ही उसकी सरकार गिरा सकता है.
इसलिए कथित रूप से उसे ऐसा स्लो पॉइजन दिया गया कि भारत में जाकर ही उसकी मौत हो. लेकिन यहां उस ओशो रजनीश का जिक्र करना इसलिए जरूरी है कि दुनिया-देश में राजनीति के खिलाड़ियों को आईना दिखाने की हिम्मत सबसे पहले उन्होंने ही जुटाई थी. ओशो ने कहा था कि, "राजनीतिज्ञ झूठों पर जीते हैं, राजनीतिज्ञ वायदों पर पलते हैं- किंतु वे वायदे कभी पूरे नहीं किए जाते. वे विश्व में सर्वाधिक अयोग्य लोग हैं. उनकी एकमात्र योग्यता है कि वे निरीह जनता को मूर्ख बना सकते हैं, अथवा गरीब देशों में उनके वोट खरीद सकते हैं. और एक बार वे सत्ता में आ गए तो पूरी तरह भूल जाते हैं कि वे जनता के सेवक हैं, वे ऐसा व्यवहार करने लगते हैं जैसे कि वे जनता के स्वामी हैं."
सच तो ये है कि राजनीति चाहे देश की हो या फिर किसी राज्य की हो उसकी पूरी बुनियाद ही महत्वाकांक्षा और अवसरवादिता पर ही टिकी हुई है. सत्ता में बैठी पार्टी के किसी नेता की उम्मीद जब पूरी नहीं होती तो या तो वह बगावत करके सीधे-सीधे किसी और पार्टी का दामन थाम लेता है या फिर जनता की नजर में खुद को सच्चा साबित करने के लिए एक नई पार्टी बना लेता है. लेकिन लोगों को पता भी नहीं लगता कि कब उसका किसी बड़ी पार्टी में विलय होकर सब कुछ स्वाहा हो गया. हालांकि बीजेपी को इसलिए अपवाद कह सकते हैं कि 2014 के बाद से तो वहां किसी असंतुष्ट नेता ने भी ऐसा करने की हिम्मत नहीं जुटाई और न ही आगे ऐसी कोई उम्मीद दिखती है.
लेकिन ये नजारा इन दिनों बिहार की राजनीति में देखने को मिल रहा है. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की सरकार में मंत्रीपद न मिलने से ख़फ़ा होकर बीते एक महीने से बग़ावत की धमकी दे रहे उपेंद्र कुशवाह ने भी वही कर दिखाया जिसकी उम्मीद सबको थी. एक जमाने में नीतीश के सबसे विश्वस्त करीबी माने जाने वाले कुशवाह ने जेडीयू से नाता तोड़कर अपनी अलग पार्टी तो बना ली लेकिन सियासत की पथरीली जमीन पर उसका क्या वजूद होगा ये तो आने वाला वक्त ही बताएगा. हालांकि बीते कुछ दिनों में मीडिया ने उपेंद्र कुशवाह को लेकर सीएम नीतीश कुमार से जब भी कोई सवाल पूछा तो उनका यही जवाब था कि हमने किसे हाथ पकड़कर रोका तो है नही. जिसे जहां जाना है, चला जाए और अच्छा तो ये होगा कि जल्दी ही चला जाए. नीतीश के दिए ऐसे बयानों से साफ है कि उन्हें इसका बखूबी अंदाजा था कि उनके जहाज़ का ये पंछी उड़ने का मौका तलाश रहा है.
इसमें कोई शक नहीं कि बिहार की राजनीति में उपेंद्र कुशवाह की गिनती ओबीसी के स्थापित नेताओं में होती है और वे जेडीयू के कोटे से ही साल 2014 से 2018 तक मोदी सरकार में मंत्री भी रह चुके हैं. नीतीश ने शायद आंख मूंदकर ही उन पर पूरा भरोसा किया और उन्हें पार्टी के संसदीय बोर्ड का अध्यक्ष तक बना दिया. लेकिन उनका सियासी इतिहास देखकर सवाल उठता है कि नीतीश ने आखिर कुशवाह पर दोबारा इतना भरोसा किस लिए किया था? बता दें कि साल 2007 में भी जेडीयू से उन्हें इसलिये निष्कासित कर दिया गया था कि तब भी उन्होंने तत्कालीन सीएम नीतीश कुमार पर ये आरोप लगाया था कि वे सिर्फ अपनी चौकड़ी में घिरे रहते हैं और उन लोगों की बातों को जरा भी नहीं सुनते जो पार्टी के प्रति समर्पित व वफादार हैं.
तब भी कुशवाह ने राष्ट्रीय समता पार्टी के नाम से एक नया दल बनाते हुए कहा था कि नीतीश कोरी जाति लोगों की भलाई के बारे में कुछ नहीं कर रहे हैं और उन्होंने इसका सारा जिम्मा लालू प्रसाद यादव के भरोसे ही छोड़ रखा है. लेकिन कुछ वक्त बाद नीतीश और कुशवाह के रिश्तों में आई खटास किसी तरह से दूर हो गई और तब कुशवाह ने अपनी पार्टी का जेडीयू में विलय करके घर-वापसी की थी.
तकरीबन सोलह साल के बाद उपेंद्र कुशवाह एक बार फिर उसी पुराने रास्ते पर निकल पड़े हैं. लेकिन सियासी जानकार मानते हैं कि इस बार उनके सामने सौदेबाजी का एक बड़ा विकल्प इसलिए है कि अगले साल लोकसभा चुनाव हैं. लिहाजा, बीजेपी भले ही उन्हें पार्टी में शामिल न करे लेकिन ये तो जरूर चाहेगी कि वो ओबीसी वोट बैंक में सेंध लगाकर जेडीयू और आरजेडी को कमजोर करें ताकि उसका सीधा फायदा बीजेपी को मिल सके.
मंगलवार को बिहार बीजेपी के अध्यक्ष संजय जायसवाल और कुशवाह की हुई मुलाकात को इसी कड़ी से जोड़कर देखा जा रहा है. हालांकि सोमवार को जेडीयू का दामन छोड़ने के बाद उन्होंने जिस अंदाज में पीएम मोदी की जितनी दरियादिली से तारीफ़ की थी उससे कयास ये भी लगाये जा रहे हैं कि वे भगवा झंडा भी थाम सकते हैं.
(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)