नदियों के आंगन में सूखे का बसेरा, बिहार में जलसंकट का फेरा
गर्मी के प्रकोप और बारिश के अभाव में मुल्क के मैदानी राज्य बिहार की नदियां दम तोड़ रही हैं. लोकसभा चुनाव की तैयारियों में व्यस्त नेताओं के लिए नदियों के जलग्रहण क्षेत्र में धूल उड़ना सामान्य घटना है. इसलिए किसी भी राजनीतिक दल के घोषणापत्र में जल प्रबंधन के लिए जगह नहीं है. सभी राजनीतिक दलax के नेता अपने घोषणापत्र के माध्यम से समाज के हरेक वर्ग के लिए न्याय का वादा करते हैं. लेकिन प्रकृति के साथ हो रहा अन्याय मुद्दा नहीं बन रहा है. भूजल के बेतहाशा दोहन ने मरुस्थलीकरण को बल दिया है. प्रकृति की ओर से मुफ्त मिलने वाले पानी का बाजार दूध के बाजार से बड़ा एवं महंगा होता जा रहा है.
कभी बाढ़ का था कहर
तटबंधों के टूटने से आने वाले बाढ़ की कहानियां बिहारी समाज के सदस्यों के दैनिक जीवन की चर्चाओं के केंद्र में रही हैं, लेकिन अब नदियों के गिरते जल स्तर से गंगा के मैदानी इलाकों के लोग चिंतित हैं. गंगा नदी के मैदानी इलाके वैसे भी काफी घनी आबादी वाले हैं, जहां शहरी क्षेत्रों में पेयजल की आपूर्ति एक बड़ी समस्या बन कर उभरी है. जलापूर्ति की समस्या से बड़े शहर ही नहीं बल्कि छोटे शहर-कस्बे भी प्रभावित हैं. हालांकि, मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की महत्वाकांक्षी गंगाजल उद्वह परियोजना के माध्यम से गया, बोधगया, नवादा एवं राजगीर में जलापूर्ति सुनिश्चित की गयी है, किंतु इस दिशा में निरंतर कार्य करने की जरूरत है. बिहार के अपवाह तंत्र का मुख्य आधार गंगा ही है.
यह नदी भारतीय संस्कृति के त्याग, तपस्या एवं संयम के मूल्यों को सहेज कर रखने के लिए जानी जाती है. राजा भगीरथ ने सगर के शापित साठ हजार पुत्रों के उद्धार हेतु गंगा नदी को धरती पर लाने के लिए कठोर तपस्या की थी. बिहारवासी नदियों की उपयोगिता से परिचित तो हैं, लेकिन जल-स्रोतों के संरक्षण में रुचि नहीं लेते. रोजगार के लिए पलायन का विकल्प चुनने के कारण अपने इलाके में उपलब्ध जल-संसाधनों के विकास के प्रति उदासीनता की स्थिति देखी जा सकती है. व्यापार एवं यातायात के लिए नदियां उत्तम साधन प्रदान करतीं हैं. राज्य के धरातलीय स्वरूप को विकसित करने में गंगा, कोसी, गंडक, बूढ़ी गंडक, सोन, अजय, फल्गु, पुनपुन, कर्मनाशा, महानंदा, कमला, बागमती एवं घाघरा (सरयू) जैसी नदियों ने निर्णायक योगदान दिया है.
खेती-किसानी, आर्थिकी बाधित
मानसून की अनिश्चितता और परिवर्तनशीलता के कारण खेती-किसानी एवं अन्य आर्थिक गतिविधियां बाधित होती हैं. कुआं और तालाब के संचित जल से सिर्फ खेतों की सिंचाई ही नहीं होती थी बल्कि इनके जरिए पेयजल भी उपलब्ध हो जाता था, किंतु शहरीकरण की बढ़ती प्रवृत्ति के कारण इनके अस्तित्व की चिंता किसी को नहीं है. चौर, आहर, पईन, मोईन, एवं ताल-तलैया जैसे जलस्रोत भूजल स्तर को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थे. जल-जीवन-हरियाली कार्यक्रम राजनीतिक उठापटक के शोर में कहीं दब गया.
नीतीश कुमार राज्य में वन क्षेत्र के विस्तार पर जोर देकर वृक्षारोपण को प्रोत्साहित कर रहे हैं, लेकिन राज्य की राजनीतिक संस्कृति पर्यावरणीय कारकों से निर्मित नहीं होती है. इसलिए जलसंपदा से परिपूर्ण प्रदेश में सूखे की मार से नेता विचलित नहीं हो रहे हैं. महान कथाशिल्पी फणीश्वर नाथ रेणु नदियों की क्रीड़ा से पीड़ित लोगों की व्यथा को लिपिबद्ध करने के लिए याद किए जाते हैं. वे कोसी नदी की विनाश लीला को अपनी रचनाओं में अद्भुत रूप में प्रस्तुत कर चुके हैं: "धूसर, वीरान, अंतहीन प्रांतर। पतिता भूमि, परती जमीन, बंध्या धरती...। धरती नहीं, धरती की लाश, जिस पर कफन की तरह फैली हुई है बालुचरों की पंक्तियां। उत्तर नेपाल से शुरू होकर, दक्षिण गंगा तट तक पूर्णिया जिले को दो संभागों में विभक्त करता हुआ - फैला-फैला यह विशाल भूभाग। संभवतः तीन-चार सौ वर्ष पहले इस अंचल में कोसी मैया की महाविनाश लीला शुरू हुई होगी। लाखों एकड़ जमीन को लकवा मार गया होगा। " (परती परिकथा)
प्राकृतिक आपदा संग सामाजिक जवाबदेही
बाढ़ पीड़ित जिलों का सूखा प्रभावित क्षेत्र में परिवर्तित हो जाना प्राकृतिक आपदा तो है, लेकिन बारहमासी नदियों के जल के प्रबंधन की जिम्मेदारी तो राजनीतिक एवं स्थायी कार्यपालिका की ही है. नेपाल से बिहार की ओर आने वाली कोसी नदी को नियंत्रित करने के लिए तटबंधों का निर्माण किया गया. अब इन तटबंधों को नई मुसीबत माना जा रहा है, क्योंकि ये पानी का फैलाव रोकने के साथ-ही-साथ गाद का फैलाव भी रोक रहे हैं. फलतः नदी की पेटी लगातार ऊपर उठती जाती है. कुशल जल प्रबंधन के लिए यह जरूरी है कि राजनीतिज्ञ अपनी राय विशेषज्ञों पर नहीं थोपें.
हिमनद गंगोत्री से अपनी यात्रा शुरू करने वाली गंगा चौसा के निकट बिहार के मैदान में प्रवेश करती है और कई सहायक नदियों का जल लेकर यह मैदान को दो भागों में बांटते हुए बंगाल में प्रवेश कर जाती है. गंगा का मायका उतराखंड भी बांधों के विनाशकारी प्रभावों से जूझ रहा है. इस पर्वतीय राज्य का मौलिक स्वरूप हिमनदों, हिमतालाबों, बुग्यालों और जंगलों से बनता है. इनमें किसी भी तरह की मानवीय छेड़छाड़ आपदा लेकर आती है. पहाड़ हो या मैदान मिट्टी, जल एवं पेड़-पौधे न केवल मानव-जीवन व पर्यावरण को प्रभावित करते हैं बल्कि आर्थिक गतिविधियों पर भी इनका व्यापक असर होता है.
संकट बिल्कुल हमारे दरवाजे पर है, लेकिन हम अभी भी आंखें मूंदे विपदा का इंतजार कर रहे हैं. प्रकृति ने हालिया वर्षों में हमें कई दफा चेताया भी है, लेकिन हम सबक लेने को तैयार नहीं हैं. अगर हमने जल्द से जल्द इस बेहद जरूरी मसले पर कुछ नहीं किया, तो तबाही निश्चित है.
[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही ज़िम्मेदार है.]