''हिस्ट्री, इन वन स्ट्रोक''...6 अगस्त को इंडियन एक्सप्रेस ने अपने अखबार की सबसे बड़ी हेडलाइन यही बनाई थी जो अखबार के मेन पेज के एक छोर से दूसरे छोर तक फैली हुई थी. हम कह सकते हैं कि ये हेडलाइन बीजेपी नीत भारत सरकार के जम्मू-कश्मीर के सात दशक पुराने विशेष राज्य के दर्जे को खत्म करने के फैसले को ऐतिहासिक दिखाने के लिए काफी थी. केंद्र सरकार के मुताबिक ये कदम जम्मू-कश्मीर को पूरी तरह भारत गणराज्य के साथ मिलाने के लिए उठाया गया था. हालांकि ऐतिहासिक शब्द समकालीन राजनीतिक विमर्श में पूरी तरह से तुच्छ माना गया है, लेकिन इस बात पर शक बिलकुल हो सकता है कि किसी एक राजनीतिक पार्टी के विचारों के अनुरूप हुए फैसले के बाद 5 अगस्त का दिन ऐतिहासिक कहा जाए या किसी गणराज्य के इतिहास में लाल अक्षरों से लिखा गया दिन माना जाए.
एक बड़ा काम बेईमानी के साथ पूरा किया जा चुका है. कश्मीर पर एक घूंघट आ चुका है और अगर यहां कोई सुहागरात नहीं होगी या ये रात खत्म न हो, तब भी ये घूंघट उठाया जाएगा . इस समय देश अभिभूत है और मौजूदा परिदृश्य को देखें तो कुछ ही लोग समझने को तैयार हैं और कुछ ही लोग मानने के लिए तैयार हैं कि भारत में एक संवैधानिक तख्तापलट वाली स्थिति आ चुकी है. लेकिन इसे संवैधानिक तख्तापलट वो ही लोग मान रहे हैं जो समझते हैं कि लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गई सरकार भी तानाशाही कर सकती है या मिलिट्री रूल जैसे फैसले ले सकती है. इस बात को लेकर पहले ही तर्क दिए जा चुके हैं कि केंद्र सरकार द्वारा जो भी किया गया वो कानून के दायरे में हैं और संसद ने अपनी संप्रभुता का पालन किया है. जम्मू-कश्मीर राज्य को दो केंद्र शासित प्रदेशों में बांटने के लिए बिल लाया गया जिसके तहत एक को विधानसभा मिलेगी और दूसरे को नहीं, और ये बिल राज्य सभा और लोक सभा दोनों में पर्याप्त बहुमत के साथ पास किया गया. इस आधार पर देखें तो कहा जा सकता है कि बीजेपी ने अपनी पूरी क्षमता के साथ अपनी बात दृढ़ता से रखी और संसद की संप्रुभता को बनाए रखने की कोशिश की. लिहाजा संवैधानिक तख्तापलट वाली स्थिति की बात को एक बकवास से ज्यादा कुछ नहीं माना जाएगा.
हालांकि पहले उन हालातों की बात करें जिनके तहत बताया जा रहा था कि कश्मीर ऐसे अंधेरे में डूबा हुआ था जिसके चलते रातों-रात एक संघीय राज्य का अंत कर दिया गया और उसका अस्तित्व खत्म कर दिया गया. गलत जानकारी वाला शब्द इसे बताने के लिए छोटा पड़ जाएगा कि किस तरह सरकार ने इस तख्तापलट की तैयारी की. अस्पष्ट शब्दों में, कुछ "आतंकवादी" धमकियों के बारे में जानकारी मिली थी, जिसके चलते अमरनाथ यात्रा रद्द करने के लिए मजबूर होना पड़ा. जहां तक याद पड़ता है, इतिहास में पहली बार अमरनाथ यात्रियों को यात्रा बीच में ही छोड़कर घाटी से लौटने के लिए कहा गया और इसके साथ और अधिक सैनिकों की तैनाती इस जगह की गई, जो कि पहले से दुनिया भर में सबसे ज्यादा दुर्गम क्षेत्र है.जाहिर तौर पर "आतंकवादी" शब्द न केवल राज्य में बल्कि पूरे भारत में सबसे जबर्दस्त अपराध को दर्शाने वाला शब्द है. जाहिर है कि किसी को केवल "आतंकवादी" शब्द चिल्लाना है और इसके बाद सभी के आज्ञाकारी, विनम्र और देशभक्त बनने की उम्मीद जगा दी जाती है.
रविवार 4 अगस्त की देर रात सरकार ने संवैधानिक तख्तापलट करने के लिए अगले चरण की तैयारी की. चुपके से रात में सरकार ने घाटी के लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित नेताओं को घर में नजरबंद कर दिया. फिर कुछ ही घंटों के बाद सरकार ने घाटी में लॉकडाउन की स्थिति कर दी. कश्मीर के सभी इंटरनेट, मोबाइल और लैंडलाइन कनेक्शन्स को बंद कर दिया गया. घाटी में आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 144, जो एक साथ इकट्ठा होने वाले लोगों पर अंकुश लगाती है लगा दी गई. इसके अलावा घाटी में और सैनिकों को एयरलिफ्ट किया गया जैसे कि कश्मीर मे पहले से भारतीय सेना के 6 लाख सैनिकों की तैनाती काफी नहीं थी. सीआरपीएफ और बीएसएफ के जवान राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर राज्य में ऐसे तैनात हो गए जैसे कि उनके अलावा राज्य का कोई और रखवाला नहीं हो. ये किसी भी राज्य को चलाने का पूरी तरह से गैरकानूनी तरीका है और दूसरे शब्दों में कहें तो अपने नागरिकों के लिए राज्य की किसी जिम्मेदारी का न उठाना दिखाता है.
इन सब बातों को तर्कसंगत बताने के लिए खुद गृह मंत्री आगे आ गए और इस संवैधानिक तख्तापलट को अंजाम दिया. पिछले कुछ दिनों में काफी कुछ लिखा जा चुका है कि सरकार के फैसलों को किस तरह सुप्रीम कोर्ट की स्क्रूटनी का सामना करना पड़ा है. ऐसा कहा जा सकता है कि मौजूदा सुप्रीम कोर्ट उन लोगों को विश्वास नहीं दिला पाया है जो कि लोकतांत्रिक मूल्यों और कानून के राज में भरोसा रखते हैं. चूंकि कई लोग इसके कानूनी पहलुओं पर बात कर चुके हैं तो यहां मैं केवल दो बिंदुओं पर बात करना चाहूंगा जिससे साफ हो जाएगा कि मैं इस घटना को संवैधानिक तख्तापलट क्यों कह रहा हूं.
सबसे पहले, अन्य राज्यों या केंद्र शासित प्रदेशों की स्थिति को देखा जाए जिनसे जम्मू और कश्मीर की तुलना की गई है. उदाहरण के लिए अगर कहा जाए कि जम्मू-और कश्मीर में बाहर के नागरिकों या विदेशियों को जमीन बेचने की मनाही थी तो जम्मू और कश्मीर इस मायने में अलग है. ऐसा इसलिए क्योंकि भारत के साथ उसके संबंध को एक्सेस ऑफ इंस्ट्रूमेंट द्वारा नियंत्रित किया जाता है जिस पर महाराजा हरि सिंह ने 26 अक्टूबर 1947 को दस्तखत किए थे.
इसके आर्टिकल 7 में महाराजा हरि सिंह की तरफ से साफ तौर पर लिखा गया है कि उन्हें भविष्य में भारत के संविधान को स्वीकार करने के लिए किसी भी तरह से प्रतिबद्ध नहीं माना जाएगा. इस भाग में लिखित बातों में साफ है कि उसमें ऐसा कुछ नहीं है जिससे कहा जा सके कि जम्मू-कश्मीर किसी भी तरह से भारत के संविधान को मानने के लिए बाध्य है.
दूसरी बात, हमें उस कारण को समझना चाहिए जिसके द्वारा गृह मंत्री यह तर्क दे रहे थे कि उन्होंने संविधान के पत्र का पालन किया था. आर्टिकल 370 के एक खास प्रावधान (सेक्शन3) के तहत संविधान में संशोधन मुमकिन है लेकिन इसमें यह भी लिखा है कि राष्ट्रपति इस तरह की अधिसूचना जारी करें उससे पहले राज्य की संविधान सभा की सिफारिश जरूरी होगी. जम्मू-कश्मीर राज्य की संविधान सभा 17 नवंबर 1956 को स्थगित नहीं की गई थी बल्कि भंग की गई थी. लिहाजा इस प्रकार जम्मू-कश्मीर के लिए वो विधायी निकाय मौजूद नहीं था जिसके बिना भारत के राष्ट्रपति को निर्णय लेने का अधिकार नहीं है. केंद्र सरकार ने खुद इस बात को स्वीकारने की बजाए कि संवैधानिक विधानसभा की जगह जेएंडके की राज्य विधानसभा इस तरह के फैसले लेने में सक्षम है ये तर्क दिया कि जम्मू और कश्मीर राज्यपाल या केंद्र सरकार के शासन के अंतर्गत है. उन्होंने कहा कि ये भारत की संसद के तहत आता है जो कि सबसे बड़ी संप्रभु संस्था है, ऐसा कहकर सरकार ने इस मामले को अपने हाथ में ले लिया और इस तरह संवैधानिक तख्तापलट मुमकिन हो गया.
संवैधानिक तख्तापलट किसी भी तरह से उस तख्तापलट से खतरनाक हैं जो किसी सरकार को हटाकर या शासन परिवर्तन को अपनाकर लाया जाता है. ये एक तरह से एक तानाशाही को हटाकर दूसरी तानाशाही को अपनाने जैसा है. ये संवैधानिक तख्तापलट किसी भी तरह से बीजेपी के उस नारे से मेल नहीं खाता जिसके तहत कहा गया है कि सबका साथ, साथ विकास, सबका विश्वास. इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि बीजेपी अकेली पार्टी है जिसने आर्टिकल 370 और आर्टिकल 35ए के मुद्दे को पूरी तरह बंधक बना लिया और भारतीय राजनीति के छात्र ये बात भली-भांति जानते हैं कि आर्टिकल 370 के कई प्रावधान समय के साथ खोखले हो चुके हैं. जेएंडके पहले भी कई बार राज्यपाल शासन के तहत रह चुका है. वहां राष्ट्रपति शासन और राज्यपाल शासन एक समान माना जाता है क्योंकि लंबे समय से संविधान के कुछ प्रावधान जम्मू और कश्मीर पर लागू नहीं होते थे. तो फिर इस पर सवाल क्यों उठ रहे हैं कि केंद्र सरकार के जम्मू-कश्मीर के राज्य के दर्जे को खत्म करने और दो केंद्र शासित प्रदेशों में बांट देने के फैसले से हलचल मच जाएगी.
एक लोकतंत्र के अस्तित्व के लिए कुछ परिस्थितियों में आम सेना के नेतृत्व वाली तानाशाही की तुलना में संवैधानिक तख्तापलट कहीं अधिक खतरनाक हो जाता है. ऐसा इसलिए कहा जाता है क्योंकि इसके जरिए संबंधों को खत्म करने से पहले जो जरूरी सवाल होते हैं, उन्हें पूछे जाने की संभावना को धूमिल कर दिया जाता है. हालांकि सरकार चाहे तो जम्मू और कश्मीर में आर्टिकल 370 और 35ए को खत्म करने को सही फैसला बता सकती है लेकिन इसके साथ ही लोगों की संप्रभुता का मूलभूत प्रश्न, जिस पर एक गणतंत्र की कल्पना निर्भर करती है, उसे चकमा नहीं दे सकती है. इस मामले में कश्मीर के लोगों की बिलकुल राय नहीं ली गई. इसकी बजाए उन्हें एकाकी कर दिया गया जैसे कि वो किसी एकाकी जेल में बंद घोर अपराधी के समान हों.
ये एक विडंबना ही है कि भारत जैसे देश में संवैधानिक तख्तापलट की स्थिति देखी जा रही है. मोहनदास कर्मचंद गांधी जिनका तर्क था कि जो लोग राजनीति में हैं उन्हें जनता के प्रति ध्यान देना चाहिए. उनके देश में ऐसा होना सही नहीं है. वहीं देखा जाए तो ये सरकार अकेले के किए गए फैसलों के मुताबिक चल रही है. ये सरकार केवल आदर्शवादी और साधनों के बारे में सोचती है. बीजेपी द्वारा किया गया ये संवैधानिक तख्तापलट मोहनदास कर्मचंद गांधी की विरासत और यादों को चोट पहुंचाने की एक और क्रिया के रूप में देखी जाएगी.
विनय लाल UCLA में इतिहास के प्रोफेसर के रूप में कार्यरत हैं. साथ ही वो लेखक, ब्लॉगर और साहित्यिक आलोचक भी हैं.
वेबसाइटः http://www.history.ucla.edu/faculty/vinay-lal
यूट्यूब चैनलः https://www.youtube.com/user/dillichalo
ब्लॉगः https://vinaylal.wordpress.com/
(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)