तारिक मंसूर का चेहरा महज़ नुमाइशी, पसमांदा समुदाय के कभी नहीं बने आवाज, मुस्लिम वोटबैंक के लिए बीजेपी का नया पैंतरा
![तारिक मंसूर का चेहरा महज़ नुमाइशी, पसमांदा समुदाय के कभी नहीं बने आवाज, मुस्लिम वोटबैंक के लिए बीजेपी का नया पैंतरा BJP just wants to lure through new faces like Tarik Mansoor and it has no intention for the welfare of Pasmanda Society तारिक मंसूर का चेहरा महज़ नुमाइशी, पसमांदा समुदाय के कभी नहीं बने आवाज, मुस्लिम वोटबैंक के लिए बीजेपी का नया पैंतरा](https://feeds.abplive.com/onecms/images/uploaded-images/2023/07/30/4c581e72d8e7ed7d09294a47d3fd2c4d1690708109644606_original.jpg?impolicy=abp_cdn&imwidth=1200&height=675)
लोकसभा चुनाव में अधिक दिन बचे नहीं हैं और भारतीय जनता पार्टी ने अपनी तैयारी भी शुरू कर दी है. बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने अपनी नयी टीम घोषित की है, जिसमें पसमांदा वर्ग के प्रतिनिधि के तौर पर तारिक मंसूर को लिया गया है. हालांकि, आलोचक यह भी कह रहे हैं कि यह महज सजावटी नियुक्ति है और मुस्लिम वोटबैंक में सेंध लगाने की कोशिश मात्र है. तारिक मंसूर अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के वीसी भी रह चुके हैं और फिलहाल यूपी में बीजेपी के विधान पार्षद हैं.
चयन नुमाइशी, मुस्लिम वोटबैंक में सेंध की कोशिश
तारिक मंसूर को राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनाना तो जाहिर तौर पर मुस्लिम वोट में बांट-बखरा करने की मंशा दिखाता है, अपना हिस्सा लेने के लिए सेंध लगाने की कोशिश को बताता है. चार राज्यों के साथ संसदीय चुनाव भी नजदीक है और प्रधानमंत्री जी भी कई बार कई मंचों से पसमांदा की रट लगाते रहते हैं, तो यह सही समय पर सही संकेत है.
25 वर्षों का जो मेरा संघर्ष है, पसमांदा समाज के लिए, उससे जुड़ी जो मेरी किताबें हैं, उसके आधार पर मैं तो यही कह सकता हूं कि पहली दफा तो तारिक मंसूर का नाम हमने तभी सुना, जब ये वीसी बने थे- अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के. अलीगढ़ सहित पूरे देश में पसमांदा समाज के काम के सिलसिले में घूमने के कारण यह तो हमें पता रहता ही है कि पसमांदा समाज से जुड़े बुद्धिजीवी, कार्यकर्ता, नेता, अभिनेता कौन हैं? इनका नाम हमें कभी उस तरह सुनाई तो नहीं दिया.
तारिक मंसूर साहब की जो विरासत है, वह रईसों वाली है. हां, संघ और भाजपा की लाइन को ये आंख मूंदकर फॉलो करते रहे तो इनको एक साल का एक्सटेंशन भी मिला, फिर एमएलसी भी मिले और अब भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष भी बने हैं. एक्सटेंशन के दौरान ही ये पसमांदा समाज की समस्याओं पर लेख भी लिखने लगे.
मुद्दा यह है कि क्या इन्होंने पहले कभी पसमांदा समाज के मसले पर कुछ कहा है, कोई भूमिका निभाई है? गोरक्षा हो, मॉब लिंचिंग हो, बिलकिस बानो के गुनहगारों की रिहाई हो या फिर ऐसे तमाम मसले हैं, उन पर कभी क्या इन्होंने कोई राय कायम की, या काम किया?
लोगों का तो यही कहना है कि इन्होंने ऐसा कुछ भी नहीं किया, ये तो रईस किस्म के इंसान हैं. कुछ लोग तो यहां तक आरोप लगाते हैं कि जो लेख इनके नाम से छपे हैं, वो भी किसी और के ही हैं. बहरहाल, बिना सबूत के तो यह कहना ठीक नहीं है. जो छपा है, वो तो इनका ही है. इनके पसमांदा होने या न होने पर भी डिबेट है. इनकी मदर के साइड से शायद नवाब रहे हैं. पिता जो भी हों. बहरहाल, पसमांदा होने से अधिक पसमांदा के बारे में सोचना और समझना ही मुद्दा है. उनके कल्याण के बारे में सोचना ही असली काम है.
पसमांदा समुदाय के लिए आवाज उठाने का इतिहास नहीं
बीजेपी का एजेंडा तो बिल्कुल साफ है. जो बीजेपी और संघ की मेहरबानी से बड़ा होगा, वो ऐसा ही होगा. पसमांदा एक ऐसा ब्रांड है, जो चल गया है. कोलंबिया यूनिवर्सिटी से लेकर जेएनयू, जामिया तक उन पर रिसर्च हो रहा है. ब्रांड बना तो फिर मोदीजी ने पकड़ा और राजनीतिक तौर पर वह इसे भुनाना चाहते हैं. तारिक मंसूर तो कुरैशी समाज का खुद को बताते हैं, तो सबसे अधिक शिकार तो यूपी में यही लोग हुए हैं. मॉब लिंचिंग में भी तो इनके ही सबसे अधिक लोग मारे गए हैं.
योगी सरकार ने पहले कार्यकाल में पहला फैसला जो लागू किया, वह तो गोश्त के कारोबार पर रोक का ही था. तो, क्या इन सभी मसाइल पर मंसूर साब कभी बोले? बलिया वाले दानिश आजाद भी अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से जुड़े रहे हैं. हालांकि, बलिया वाले लोग भी कहते हैं कि पसमांदा समाज से जुड़े मसलों पर इन्होंने कभी आवाज नहीं उठाई है.
नकली पसमांदा भी हैं काफी मौजूद
देखिए, कई लोग नकली पसमांदा भी बनते हैं. खुद प्रधानमंत्री जी को देख लीजिए. सीएम बनने के बाद चूंकि वह दूरदर्शी थे, तो वह पसमांदा समाज में आ गए, ओबीसी हो गए. उसी तरह कई लोग दलित हो गए हैं. हमारी पार्टी के एक सांसद थे, वह ठाकुर साहब नाई बन गए. तो, समय देखकर जाति और समाज बदलने वाले भी बहुतेरे लोग हैं.
हमारा कहना है कि यह लड़ाई तो विचार की है. बीजेपी की विचारधारा तो सवर्ण वर्चस्व की है, ऐसे में अगर कोई अपने व्यक्तिगत हित या स्वार्थ के लिए जाता है, तो वह समाज का हितैषी कभी नहीं हो सकता.
वी पी सिंह तो पसमांदा नहीं थे, लेकिन उन्होंने जो काम किया, वह तो पूरी तरह से पिछड़ों के फायदे की है. हमारा कहना ये है कि तारिक मंसूर जी को अब बोलना चाहिए. अब तो वह राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हैं. बिलकिस बानो भी तो घांची समुदाय से है. उसके बलात्कारियों को छोड़ा गया, माला पहनायी गयी, तो उस पर विरोध तो करना चाहिए न.
भाजपा हमेशा नए मुल्ले खोजती है. मुख्तार अब्बास नकवी भी इसलिए थे, क्योंकि वह शिया थे. लखनऊ के शिया जो हैं, वह बीजेपी को वोट देते हैं. पहले अटलबिहारी जी के साथ थे, लालजी टंडन हुए, फिर राजनाथ सिंह आए. अब वहां शिया-सुन्नी का दंगा तक हो जाता था, इसलिए वो होता था.
मोदीजी के आने के बाद शिया समाज समझ गया कि आपसी लड़ाई से उनका फायदा नहीं, नुकसान हो रहा है. तो, वे हटने लगे. अब बीजेपी दूसरों के आइडिया को चुराकर वोटबैंक में नयी काट-छांट करना चाहती थी. आपने देखा ही कि नजीब जंग से लेकर कई मौलाना तक मोहन भागवत से मिले, बीजेपी वालों से मिले और उनका फायदा करने लगे.
अब कुछ ऱिलीजस बॉडी जो हैं, वो तो एनजीओ हैं. उनका एफसीआरए का मसला है, क्योंकि वे विदेशों से पैसा लाते हैं, खुर्द-बुर्द करते हैं. मौजूदा निजाम जो है, वह देखता है कि किसी तरह किसी को डर से, लोभ से या मोह से अपने में शामिल करे. यहां तो पूर्व चीफ जस्टिस गोगोई तक पर एक लड़की ने आरोप लगाए. उन्होंने चार प्रेस कांफ्रेंस किए, लेकिन उसके बाद का नतीजा देखिए. उनके फैसलों पर मैं कोई टिप्पणी नहीं करना चाहता. यह दौर है रातों-रात बीजेपी में शामिल होने का. दबाव और लालच में भी लोग शामिल होते हैं.
कभी नहीं बोले मंसूर, आगे भी उम्मीद नहीं
कसाई बिरादरी, कुरैशी बिरादरी पर सबसे अधिक चोट लगी थी. तारिक मंसूर क्या कभी उस पर बोले? बहुतेरे जर्नलिस्ट बोल रहे हैं, जेल जा रहे हैं, अधिकारी भी बोल रहे हैं, इसलिए कि उनके पास जमीर और जमीन दोनों है. तारिक मंसूर एक नुमाइशी चीज ही होंगे. उनका कोई पॉलिटिकल, सोशल करियर नहीं है. यह केवल सजावट की ही चीज हैं. पोस्ट-रिटायरमेंट एक असाइनमेंट ही समझ लीजिए. वैसे भी, उपाध्यक्ष बहुतेरे हैं. यहां तो पीएम साहब और गृहमंत्री अमित शाह को छोड़कर किसी की तो कोई चलती नहीं. गडकरी जी को देखिए, कहां पड़े हैं. राजनाथ सिंह हों या कोई भी, हरेक आदमी कोने में पड़ा है. तो, तारिक मंसूर को अलीगढ़ी शेरवानी और पजामा पहनाकर भले बिठा दिया जाए, वो रहेंगे हमेशा नुमाइश की ही चीज.
[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.]
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