आंध्र प्रदेश में सियासी ज़मीन तलाशती बीजेपी, जगनमोहन रेड्डी के कद के सामने मुश्किल काम, टीडीपी का बनना पड़ेगा विकल्प
कर्नाटक में मिली करारी हार के बाद दक्षिण भारत को लेकर बीजेपी की रणनीति में बड़ा बदलाव देखने को मिल रहा है. अब बीजेपी तेलंगाना के साथ ही आंध्र प्रदेश पर भी फोकस करना शुरू कर दी है. बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व की ओर से आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री जगनमोहन रेड्डी पर 10 और 11 जून को दो दिन लगातार राजनीतिक हमला किया गया. इसके सियासी मायने हैं. इससे यही संकेत मिल रहा है कि बीजेपी अब आंध्र प्रदेश में सियासी जमीन की तलाश में है.
बीजेपी की दक्षिण भारत में विस्तार की कोशिश
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई में बीजेपी 2014 से केंद्र में सत्ता में है. उस वक्त से पार्टी का देशव्यापी जनाधार भी काफी बढ़ा है. दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी होने का भी तमगा उसके साथ इस दौरान जुड़ा है. लेकिन बीजेपी को इस बात की कसक जरूर है कि वो देश के दक्षिण राज्यों में अपनी पकड़ नहीं बढ़ा पाई है. कर्नाटक की सत्ता से हाथ धोने के बाद दक्षिण भारत के 5 बड़े राज्यों में कर्नाटक, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और केरल में से किसी में भी बीजेपी की सरकार नहीं है. इतना ही नहीं कर्नाटक और तेलंगाना को छोड़कर बाकी 3 राज्यों में बीजेपी का जनाधार भी कुछ ख़ास नहीं है.
शीर्ष नेतृत्व का जगनमोहन सरकार पर निशाना
पूरे देश में केरल में पार्टी की पकड़ सबसे कमजोर है. उसके बाद आंध्र प्रदेश का नंबर आता है, जहां बीजेपी के लिए अपने दम पर राजनीतिक ज़मीन स्थापित करना पार्टी के मिशन साउथ की रणनीति का फिलहाल सबसे बड़ा लक्ष्य है. बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने तिरुपति के श्रीकालाहस्ती में और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने 11 जून को विशाखापट्टनम में जगनमोहन सरकार को सीधे निशाने पर लिया. पिछले 4 साल में शायद ये पहला मौका था जब बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व की ओर से जगनमोहन सरकार पर इस तरह से सियासी हमले किए गए थे. जेपी नड्डा और अमित शाह दोनों ही ने जगनमोहन सरकार को हर मोर्चे पर विफल बताते हुए कहा कि पिछले 4 साल में इस सरकार ने प्रदेश में भ्रष्टाचार और स्कैंडल के अलावा कुछ नहीं किया है.
जगनमोहन को लेकर रुख में बदलाव
ऐसा नहीं है कि बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व का रुख अचानक जगनमोहन को लेकर बदल गया है. इसकी पटकथा पिछले कुछ महीनों से तैयार हो रही है. कर्नाटक के नतीजों के बाद अब बीजेपी ने इसपर तेजी से अमल करना शुरू कर दिया है. आंध्र प्रदेश में बीजेपी खुद की बदौलत खड़ा होना चाहती है. इसकी बड़े स्तर पर शुरुआत सार्वजनिक तौर से अप्रैल में ही हो गई थी, जब कांग्रेस के दिग्गज नेता रहे और 3 साल तक प्रदेश के मुख्यमंत्री पद की जिम्मेदारी निभा चुके किरण कुमार रेड्डी ने बीजेपी का दामन थाम लिया था. उसके बाद मई में कर्नाटक में बीजेपी के हाथ से सत्ता चली जाती है. फिर इस महीने के पहले हफ्ते में तेलुगू देशम पार्टी (TDP) के प्रमुख एन. चंद्रबाबू नायडू की दिल्ली में अमित शाह और जेपी नड्डा से मुलाकात होती है. उसके चंद दिनों बाद ही जेपी नड्डा और अमित शाह आंध्र प्रदेश का दौरा कर जगनमोहन सरकार पर हमलावर होते हैं. ये सारी कड़िया एक-दूसरे से जुड़ी हुई प्रतीत होती हैं.
जगनमोहन पीएम मोदी की करते रहे हैं तारीफ
जगनमोहन 2019 के विधानसभा चुनाव में एक बड़ी ताकत बनकर उभरे थे. लोकसभा चुनाव में भी उनकी पार्टी ने ऐतिहासिक प्रदर्शन किया था. एनडीए का हिस्सा नहीं होते हुए भी पिछले 4 साल में संसद में कई ऐसे मौके आए जब वाईएसआर कांग्रेस ने नरेंद्र मोदी सरकार को मुद्दों पर आधारित समर्थन दिया है. खुद जगनमोहन की छवि भी ऐसी ही रही है कि वे खुलकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की आलोचना करते नहीं दिखे हैं. यहां तक कि दिसंबर 2021 में जगनमोहन ने पीएम मोदी को विजनरी लीडर तक कहा था. जब से जगनमोहन रेड्डी अपनी पार्टी के साथ राजनीति में आए हैं, वे कई बार पीएम मोदी की सराहना कर चुके हैं. इसके साथ ही जगनमोहन रेड्डी भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से तारीफ पा चुके हैं.
लेकिन अब जब बीजेपी के शीर्ष नेताओं की ओर से खुलकर सियासी हमले किये जा रहे हैं, तो जगनमोहन रेड्डी की पार्टी ने भी पलटकर जवाब देना शुरू कर दिया है. 2014 में आंध्र प्रदेश से अलग होकर तेलंगाना नया राज्य बना था. ये कांग्रेस की अगुवाई वाली यूपीए सरकार का फैसला था. उस वक्त यूपीए सरकार ने आंध्र प्रदेश को विशेष राज्य का दर्जा देने का वादा किया था. मई 2014 में यूपीए के हाथ से सत्ता चली गई और बीजेपी की अगुवाई में एनडीए की सरकार बन गई. तब से विशेष राज्य के दर्जे पर कुछ नहीं हुआ है.
विशेष राज्य के दर्जा के मुद्दे पर पलटवार
अब आंध्र प्रदेश को विशेष राज्य का दर्जा नहीं दिए जाने को ही मुद्दा बनाते हुए वाईएसआर कांग्रेस की ओर से कहा गया है कि आंध्र प्रदेश में बीजेपी के लिए प्रचार करना मुश्किल हो रहा है. वे जहां भी जाते हैं, लोग स्पेशल स्टेटस का दर्जा, विजाग स्टील प्लांट के निजीकरण, दक्षिण तट रेलवे क्षेत्र और एपी पुनर्गठन अधिनियम के वादों के बारे में पूछ रहे हैं. अमित शाह के विशाखापट्टनम में बयान के अगले ही दिन वाईएसआर कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव विजयसाई रेड्डी ने ये भी कहा कि बीजेपी के लिए दुख की बात है कि आंध्र प्रदेश में ध्रुवीकरण काम नहीं कर रहा है.
चंद्रबाबू नायडू मिले थे अमित शाह से
एन चंद्रबाबू नायडू के अमित शाह से मुलाकात के बाद आगामी लोकसभा और विधानसभा चुनाव में टीडीपी के बीजेपी के साथ गठबंधन को लेकर भी कयास लगने लगे हैं. चंद्रबाबू नायडू पहले भी एनडीए का हिस्सा रह चुके हैं. हालांकि मार्च 2018 में उन्होंने खुद को एनडीए से अलग कर लिया था. आंध्र प्रदेश में अगले साल लोकसभा चुनाव के दौरान ही विधानसभा चुनाव भी होना है. ऐसे में इन दोनों चुनाव को लेकर तो हर पार्टी अपना दांव तैयार कर ही रही है, लेकिन बीजेपी अब इससे आगे जाना चाहती है.
आंध्र प्रदेश में सियासी ज़मीन की तलाश में बीजेपी
आंध्र प्रदेश में बीजेपी का कभी भी कोई ख़ास जनाधार नहीं रहा है. हालांकि 2014 में जब तेलंगाना अलग राज्य नहीं बना था, तब टीडीपी के साथ गठबंधन की वजह से बीजेपी कुछ सीटों पर जीत हासिल कर पाई थी. अब बीजेपी का लक्ष्य महज़ 2024 का लोकसभा चुनाव या विधानसभा चुनाव नहीं है. वो धीरे-धीरे दक्षिण भारत के हर राज्य में अपनी ज़मीन मजबूत करना चाहती है. ये राज्य ही उसके लिए एक तरह से दुखती रग है.
पहले कांग्रेस और टीडीपी का था दबदबा
आंध्र प्रदेश की राजनीति में आजादी के बाद से कांग्रेस और तेलुगु देशम पार्टी का दबदबा रहा है. टीडीपी के संस्थापक एनटी रामाराव ने जनवरी 1983 में यहां की सत्ता से कांग्रेस को पहली बार बेदखल कर दिया था. बाद में एनटी रामाराव के दामाद एन चंद्रबाबू नायडू ने सितंबर 1995 को पार्टी की कमान अपने हाथों में ले ली और फिर 2014 के विधानसभा चुनाव से पहले तक टीडीपी और कांग्रेस के बीच ही मुख्य मुकाबला होते रहा.
2014 के चुनाव में वाईएसआर कांग्रेस का उभार
2014 के विधानसभा चुनाव में के. चंद्रशेखर राव की पार्टी टीआरएस और जगनमोहन की पार्टी वाईएसकांग्रेस का उभार हुआ. हालांकि टीडीपी सबसे बड़ी पार्टी बनी और 2 जून 2014 को तेलंगाना के अलग राज्य बनने के बाद चंद्रबाबू नायडू 8 जून को आंध्र प्रदेश के तीसरी बार मुख्यमंत्री बने. केसीआर की तेलंगाना में चले जाने के बाद अब यहां जगनमोहन रेड्डी की वाईएसआर कांग्रेस मुख्य विपक्षी पार्टी हो गई. 2014 में कांग्रेस आंध्र प्रदेश में सिटकर 21 सीटों पर पहुंच गई.
जगनमोहन रेड्डी को राजनीति विरासत में मिली थी. उनके पिता वाईएस राजशेखर रेड्डी की अगुवाई में कांग्रेस को 2004 के विधानसभा चुनाव में ऐतिहासिक जीत मिली थी. 2009 का विधानसभा चुनाव भी कांग्रेस ने वाईएस राजशेखर रेड्डी के करिश्माई नेतृत्व में जीत हासिल की थी. मई 2004 से 2 सितंबर 2009 तक लगातार दो बार आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे, अचानक 2 सितंबर 2009 को एक हेलीकॉप्टर क्रैश में उनका निधन हो गया.
जगनमोहन रेड्डी ने मार्च 2011 में नई पार्टी बनाई
कांग्रेस की बेरुखी से नाराज होकर आखिरकार वाईएस राजशेखर रेड्डी के बेटे जगनमोहन रेड्डी ने मार्च 2011 में नई पार्टी बनाई. उनकी पार्टी वाईएसआर कांग्रेस के अस्तित्व के साथ ही आंध्र प्रदेश की राजनीति में नए अध्याय की शुरुआत हो गई. 2011 में जगनमोहन रेड्डी ने नई पार्टी बनाई और उसके बाद से वाईएसआर कांग्रेस ने बहुत ही तेजी से आंध्र प्रदेश की राजनीति में अपना दबदबा बना लिया.
जगनमोहन ने पहले ही चुनाव में दिखाया दम
वाईएसआर कांग्रेस पहली बार 2014 के विधानसभा चुनाव में आंध्र प्रदेश के सियासी दंगल में उतरी और आगाज में ही जगनमोहन रेड्डी का जादू प्रदेश के लोगों में दिखा. हालांकि टीडीपी 117 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी बनी, लेकिन वाईएसआर कांग्रेस पहली बार में ही 70 सीटों पर जीत दर्ज कर दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बनी. इससे ये भी संकेत मिल गया कि आने वाला वक्त जगनमोहन रेड्डी का है. वाईएसआर कांग्रेस को पहले ही चुनाव में करीब 28 फीसदी वोट हासिल हुए थे जो टीडीपी के सबसे ज्यादा वोट शेयर से सिर्फ़ 4.65% ही कम था.
2014 के विधानसभा चुनाव में वाईएसआर कांग्रेस का उभार एक तरह से आंध्र प्रदेश से कांग्रेस की विदाई की शुरुआत थी. इस चुनाव में कभी आंध्र प्रदेश की राजनीति में 6 दशक तक दबदबा रखने वाली कांग्रेस 21 सीट जीत पाई और उसका वोट शेयर 12 फीसदी से भी कम हो गया. कांग्रेस के वोट शेयर में करीब 25 फीसदी की गिरावट दर्ज की गई. यानी जगनमोहन रेड्डी ने आंध्र प्रदेश में कांग्रेस की राजनीतिक जमीन को 2014 में ही हड़प ली.
2014 के लोकसभा चुनाव में भी जगनमोहन की पार्टी का प्रदर्शन दमदार रहा. संयुक्त आंध्र प्रदेश की 42 लोकसभा सीटों में से 9 पर जगनमोहन की पार्टी का परचम लहराया. इसमें टीडीपी को 16, उसकी सहयोगी बीजेपी को 3, टीआरएस को 11 और कांग्रेस को सिर्फ़ 2 सीटों पर जीत मिली.
2019 में भी जगनमोहन का चला जादू
अगले विधानसभा चुनाव यानी 2019 में तो जगनमोहन ने वो कमाल कर दिखाया, जैसा कभी उनके पिता वाईएस राजशेखर रेड्डी ने 2004 में किया था. जगनमोहन रेड्डी उनसे भी एक कदम आगे निकल गए और आंध्र प्रदेश की 175 विधानसभा सीटों में से तीन चौथाई से भी ज्यादा सीटों पर उनकी पार्टी को जीत मिली. करीब 50 फीसदी वोट शेयर के साथ वाईएसआर कांग्रेस ने 151 सीटों पर जीत दर्ज की. इस चुनाव में चंद्रबाबू नायडू की पार्टी टीडीपी को 79 सीटों के नुकसान के साथ सिर्फ़ 23 सीटें हासिल हुई. हालांकि उनका वोट शेयर 39 फीसदी से ज्यादा रहा.
कांग्रेस पूरी तरह से हो गई साफ
कांग्रेस के लिए तो ये चुनाव कितना खराब रहा, ये तो इससे ही जाहिर है कि कांग्रेस एक भी सीट नहीं जीत पाई. इतना ही नहीं कांग्रेस ने 173 सीटों पर अपने प्रत्याशी खड़े किए थे और उसके सभी उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई. कांग्रेस का वोट शेयर 1.17% तक जा पहुंचा. ये नतीजे बताने के लिए काफी है कि जगनमोहन रेड्डी ने आंध्र प्रदेश की राजनीति से कांग्रेस का पूरी तरह से सफाया कर दिया.
पवन कल्याण की जन सेना पार्टी का आगाज
2019 में बीजेपी का भी खाता नहीं खुला. पवन कल्याण की जन सेना पार्टी (JSP) ने पहली बार चुनाव लड़ते हुए एक सीट पर जीत दर्ज की और साढ़े पांच फीसदी से ज्यादा वोट हासिल करने में सफल रही. तेलुगु एक्टर पवन कल्याण ने मार्च 2014 में जन सेना पार्टी का गठन किया था.
वाईएसआर कांग्रेस को 22 लोकसभा सीटों पर जीत
जगनमोहन रेड्डी का जादू 2019 के लोकसभा चुनाव में भी दिखा. वाईएसआर कांग्रेस ने प्रदेश की 25 में 22 लोकसभा सीटों पर जीत हासिल की. उसका वोट शेयर भी 49% से ज्यादा रहा. वहीं टीडीपी सिर्फ़ 3 सीट ही जीत पाई. बाकी किसी और दल को कोई सीट नहीं मिली. कांग्रेस का यहां भी सफाया हो गया. इस चुनाव में जेएसपी को सीट तो नहीं मिली, लेकिन 6.30% वोट जरूर हासिल हुए और वोट शेयर के मामले में वो वाईएसआर कांग्रेस और टीडीपी के बाद तीसरे नंबर की पार्टी रही.
जगनमोहन बने आंध्र प्रदेश की सियासत के सिरमौर
2019 के लोकसभा और विधानसभा चुनाव नतीजों ने जगनमोहन रेड्डी को आंध्र प्रदेश की सियासत का एकछत्र सिरमौर बना दिया. अब इतने बड़े कद के नेता के सामने बीजेपी को अपनी सियासी जमीन तलाशना बहुत बड़ी चुनौती है. इसके लिए बीजेपी को यहां शून्य से शुरुआत करनी पड़ेगी.
आंध्र प्रदेश में बीजेपी का ख़ास जनाधार नहीं
आंध्र प्रदेश में बीजेपी का कोई खास जनाधार कभी नहीं रहा है. 2019 विधानसभा चुनाव में बीजेपी को 173 सीटों पर चुनाव लड़ने के बावजूद किसी सीट पर जीत नहीं मिली थी. उसका वोट शेयर भी एक फीसदी से कम (0.84%) रहा था. उसके सभी प्रत्याशियों की जमानत जब्त हो गई थी. 2019 में बीजेपी बिना किसी दल के साथ गठबंधन के अपनी ताकत आजमा रही थी और नतीजों से उसे निराशा हासिल हुई.
2019 में लोकसभा के साथ ही आंध्र प्रदेश विधानसभा का चुनाव हुआ था. 2019 के लोकसभा में बीजेपी ने देशव्यापी स्तर पर ऐतिहासिक प्रदर्शन किया था, लेकिन आंध्र प्रदेश में सभी 25 सीट पर चुनाव लड़ने के बावजूद उसका खाता भी नहीं खुला था. विधानसभा चुनाव की तरह लोकसभा में भी बीजेपी का वोट शेयर एक फीसदी से कम (0.96%) रहा.
2014 में टीडीपी के साथ थी बीजेपी
2014 के लोकसभा और विधानसभा चुनाव में बीजेपी चंद्रबाबू नायडू की पार्टी के साथ थी. बीजेपी को आंध्र प्रदेश में इसका फायदा भी मिला था और वो अपनी राजनीतिक उपस्थिति दर्ज कराने में कामयाब रही थी. तेलंगाना के अलग होने से पहले हुए इस विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने टीडीपी के सहयोगी के तौर पर 58 सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारी. टीडीपी के साथ का ही असर था कि बीजेपी 9 सीटों पर जीत गई और उसका वोट शयर 4.13% रहा.
इसी तर्ज पर 2014 के लोकसभा चुनाव में भी बीजेपी को आंध्र प्रदेश में 3 सीटों पर जीत मिली. 2014 में टीडीपी का साथ बीजेपी के लिए काफी फायदेमंद साबित हुआ. टीडीपी को 16 सीटों पर जीत मिली थी. टीडीपी के पक्ष में माहौल होने की एक बड़ी वजह थी कि इस चुनाव के पहले ही यूपीए सरकार ने अलग तेलंगाना राज्य बनाने से संबंधित सभी विधायी प्रक्रिया संसद से पूरी कर ली थी. इस वजह से इस चुनाव में कांग्रेस के खिलाफ और चंद्रबाबू नायडू के पक्ष में माहौल था.
टीडीपी के साथ का मिलता रहा है फायदा
2004 और 2009 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी का आंध्र प्रदेश में खाता भी नहीं खुला था. हालांकि 1999 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी यहां 7 सीटें जीतने में कामयाब रही थी. लेकिन इस प्रदर्शन के पीछे भी टीडीपी और चंद्रबाबू नायडू के साथ गठबंधन ही कारण रहा था. टीडीपी को 29 सीटों पर जीत मिली थी. उस वक्त बीजेपी करीब 10 फीसदी वोट भी हासिल करने में कामयाब रही थी. 1998 लोकसभा चुनाव में बीजेपी को 18 फीसदी वोट के साथ 4 सीटों पर जीत मिली थी. इस चुनाव में टीडीपी के एनटीआर गुट के साथ का फायदा बीजेपी को मिला था. 1996 में बीजेपी कोई सीट नहीं जीत पाई थी. वहीं 1991 में एक लोकसभा सीट पर जीत पाई थी. वहीं 1989 में भी किसी सीट पर कमल नहीं खिला था.
1984 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने पहली बार केंद्र की राजनीति में कदम रखा था. उसे इस चुनाव में सिर्फ दो सीटों पर जीत मिली थी, उनमें से एक सीट आंध्र प्रदेश का हनुमकोंडा था, जो अब तेलंगाना राज्य में पड़ता है.
बीजेपी विधानसभा चुनाव में करते रही है मशक्कत
जहां तक विधानसभा में ताकत की बात है तो आंध्र प्रदेश में बीजेपी कभी प्रभावकारी भूमिका में नहीं रही है. विधानसभा चुनाव के नतीजों पर नजर डालें तो बीजेपी को 2009 और 2004 में दो-दो सीटों पर जीत मिली थी. वहीं 1999 में टीडीपी के साथ होने की वजह से 12 सीटों पर जीती थी. 1994 में 3 सीटों पर और 1989 में 5 सीटों पर जीत मिली थी. जबकि 1985 में 8 विधानसभा सीटों पर जीत मिली थी. गठन के बाद पहली बार आंध्र प्रदेश विधानसभा का चुनाव बीजेपी 1983 में लड़ी. इस चुनाव में 81 सीटों पर प्रत्याशी उतारी, जिनमें से बीजेपी को 3 सीटों पर जीत मिली. इस चुनाव में बीजेपी को 3 फीसदी से कम वोट मिले थे.
आंध्र प्रदेश के विधानसभा और लोकसभा चुनाव नतीजों के आंकड़ों पर गौर करें, तो यहां बीजेपी ने जब-जब टीडीपी के साथ मिलकर चुनाव लड़ा है, उसकी उपस्थिति दर्ज होते रही है. ख़ासकर 1999 से ये चलन रहा है. जब-जब टीडीपी के साथ मिलकर चुनाव लड़ी है, ये कहना कि बीजेपी बड़ी राजनीतिक ताकत बनकर उभरी है, ये ग़लत होगा. हां, ये जरूर है कि प्रदेश की राजनीति में चुनावी नतीजों के लिहाज से मौजूदगी जरूर बढ़ी है. पिछले बार तो दोनों ही चुनाव में बीजेपी को वोट शेयर एक फीसदी से कम रहा है. न विधानसभा में कोई सीट चुनाव जीत पाई और न लोकसभा में. इस लिहाज से 2024 में बीजेपी को एक तरह से शून्य से ऊपर जाना है.
ऐसे भी बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व का जो नजरिया पिछले 10 साल से रहा है, उसको देखते हुए पार्टी की रणनीति सिर्फ एक चुनाव तक सीमित नहीं होती है. जिन राज्यों में भी बीजेपी का बिल्कुल भी जनाधार नहीं था, धीरे-धीरे पार्टी पकड़ बढ़ाते हुए उन प्रदेशों में बड़ा विकल्प बनी है. जैसे पश्चिम बंगाल, ओडिशा और तेलंगाना को इन राज्यों में रख सकते हैं. अब बीजेपी यहीं कोशिश आंध्र प्रदेश में करना चाहती है.
जगनमोहन की राजनीति का अलग तरीका
फिलहाल जगनमोहन रेड्डी आंध्र प्रदेश में जितनी बड़ी ताकत हैं, उसको देखते हुए उनका बीजेपी से मिलकर चुनाव लड़ने की कोई संभावना नहीं बनती थी. बीजेपी के शीर्ष नेताओं को ये बात पिछले 4 साल में अच्छे से समझ आ गई. जगनमोहन रेड्डी का जो नजरिया रहा है, उसके तहत वे केंद्र की राजनीति में ज्यादा दखल देने के मूड में नहीं दिखते हैं. उनका पूरा ज़ोर पार्टी के गठन के बाद से ही आंध्र प्रदेश की राजनीति और सत्ता पर रहा है. यहीं वजह है कि जगनमोहन न तो एनडीए का हिस्सा बने हैं और न ही कभी देशव्यापी स्तर पर विपक्षी गठबंधन की संभावनाओं की ओर झुकाव दिखाते हैं.
टीडीपी का विकल्प बनने पर बीजेपी का फोकस
आंध्र प्रदेश के राजनीति से कांग्रेस का गायब होना और जगनमोहन का छा जाना और फिर धीरे-धीरे टीडीपी के कमजोर होने को बीजेपी भविष्य में एक अवसर के तौर पर देख रही है. फिलहाल जिस मजबूत स्थिति में जगनमोहन रेड्डी हैं, उनको चुनौती देना टीडीपी के अकेले के वश की बात नहीं है. यही वजह है कि आगामी चुनावों में चंद्रबाबू नायडू प्रदेश में बीजेपी का साथ चाहते हैं. बीजेपी की तो खैर राजनीतिक हैसियत है ही नहीं कि वो जगनमोहन रेड्डी को खुद की बदौलत चुनौती दे सके.
बीजेपी की प्रदेश इकाई फिलहाल आंध्र प्रदेश में मुख्य विपक्षी दल के तौर पर टीडीपी का विकल्प बनने पर फोकस कर रही है. भले ही चंद्रबाबू नायडू बीजेपी से एक बार फिर हाथ मिलाना चाहते हों, लेकिन इसमें बीजेपी का हो सकता है चंद सीटों के लिहाज से 2024 के चुनाव में मदद मिल जाए, लेकिन भविष्य में अगर बीजेपी वहां टीडीपी का विकल्प बनना चाहती है, तो उस लिहाज से ये बीजेपी के लिए नुकसानदायक ही होगा. बीजेपी का जन सेना पार्टी के साथ तो अच्छा संबंध है, लेकिन स्थानीय नेता फिर से टीडीपी के साथ जाने के मूड में नहीं हैं. बीजेपी प्रदेश अध्यक्ष सोमू वीरराजू ने कुछ दिनों पहले कहा भी था कि टीडीपी के साथ दोबारा हाथ मिलाने का कोई सवाल ही नहीं पैदा होता है.
बीजेपी के स्थानीय नेता चाहते हैं कि पवन कल्याण की पार्टी के साथ मिलकर बीजेपी टीडीपी का विकल्प बने. हालांकि पवन कल्याण चाहते हैं कि 2024 विधानसभा चुनाव में जगनमोहन रेड्डी को सत्ता से हटाने के लिए आंध्र प्रदेश में सभी विरोधी वोट एकजुट हो. एंटी इनकंबेंसी के बावजूद अपनी लोकप्रियता की वजह से जगनमोहन रेड्डी के 2024 में फिर से सत्ता में वापसी की संभावना काफी ज्यादा है. जन सेना पार्टी वहां अभी नई है और उसके अध्यक्ष पवन कल्याण उस हिसाब से अपना हित देख रहे हैं.
लेकिन वास्तविकता यही है कि आंध्र प्रदेश में भविष्य में बीजेपी की सियासी जमीन सही मायने में तभी तैयार हो सकती है, जब कांग्रेस की तरह चंद्रबाबू नायडू की पार्टी का भी अस्तित्व गौण हो जाए. ये वो पहलू है, जिसको ध्यान में रखकर बीजेपी आने वाले वक्त में आंध्र प्रदेश में कोई भी राजनीतिक दांव चलेगी. अब जिस तरह से बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व की ओर से जगनमोहन रेड्डी सरकार को लेकर बयान आने लगे हैं, ये उसी का संकेत है.
आंध्र प्रदेश में बीजेपी की राह आसान नहीं
जगनमोहन रेड्डी की सत्ता को चुनौती देने के लिए बीजेपी को लंबा सफर तय करना पड़ेगा. जिस तरह से बीजेपी पश्चिम बंगाल में लेफ्ट और कांग्रेस के कमजोर होने का फायदा उठाते हुए पिछले 10 साल में ममता बनर्जी को चुनौती देने और राज्य के लोगों के लिए नया विकल्प बनने की हैसियत में आ गई है, कुछ उसी तरह का काम बीजेपी आंध्र प्रदेश में भी करना चाहती है. कांग्रेस के बाद टीडीपी ही आंध्र प्रदेश के लोगों के बीच जगनमोहन रेड्डी के मुकाबले मुख्य विपक्षी दल के रूप में विकल्प के तौर पर है. इस स्थिति को हथियाए बगैर आंध्र प्रदेश में बीजेपी के लिए राजनीतिक पकड़ बनाना मुमकिन नहीं लगता है. यही वजह है कि 2024 के नजरिए से नहीं बल्कि बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व की नजर उसके बाद के 5 साल पर टिकी होगी या होनी चाहिए.
[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.]