सन 80 के दशक में कॉलेज की पढ़ाई के दौरान एक सहपाठी थीं, जिनसे मुलाकात के दौरान पता लगा कि उनका वास्ता बोहरा समुदाय से है. बोहरा समुदाय मुस्लिम वर्ग का ही एक हिस्सा है, लेकिन वो थोड़ा चौंकाने वाला इसलिये था कि उनकी पोशाक मजहबी कट्टरता वाली कभी नहीं रही. इसके साथ ही बड़ी बात ये भी थी कि उज्जैन जैसे शहर में रहते हुए जिस फ्लो के साथ वे अंग्रेजी और हिंदी में बातचीत करती थीं. वह ठीक उसी अंदाज में वहां की स्थानीय भाषा मालवी के साथ ही गुजराती भाषा को धाराप्रवाह बोलने में भी उन्हें महारत थी. तब उनसे एक सवाल पूछा था कि आप लोग दूसरे मुसलमानों से अलग आखिर कैसे हो? उस वक्त उनके दिए जवाब ने अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बीजेपी राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में दिये गए भाषण से उस पुरानी याद को ताजा कर दिया.
उन्होंने कहा था कि बोहरा समुदाय को आप कभी कट्टरपंथी नहीं देखेंगे. हम प्रगतिशील भी हैं और भाईचारा रखने और निभाने में यकीन भी रखते हैं. बेशक हमारी जमात में बहुत सारे लोग अमीर हैं, लेकिन जो नहीं हैं वे भी इसका मलाल न रखते हुए मेहनत से रोजी कमाने पर भरोसा रखते हैं. पांचवी सदी में मुस्लिमों के शिया सम्प्रदाय से निकली एक जाति बोहरा कहलाती है. जिनकी भारत में 20 लाख से ज्यादा आबादी नहीं है, लेकिन पीएम मोदी ने अपने भाषण में बोहरा और पसमांदा मुसलमानों को जिस तरह से तरजीह दी है उस हिसाब से उसके गहरे सियासी मायने भी हैं.
उन्होंने देश के सबसे बड़े अल्पसंख्यक वर्ग यानी मुस्लिमों को एक बड़ा संदेश देने के लिए इन दो जातियों को एक तरह से बीजेपी का ब्रांड एंबेसेडर बनाते हुए ये बताने की कोशिश की है कि वो पहले भी मुस्लिमों के साथ थे और आज भी उनके खिलाफ नहीं हैं. पीएम मोदी के सियासी दिमाग की तारीफ इसलिये भी की जानी चाहिए कि उन्होंने दो ऐसी जातियों को चुनकर अपने चुनावी शतरंज की वह बिसात बिछाई है,जहां नुकसान कम लेकिन नफा ही ज्यादा है. एक तरफ बोहरा सम्प्रदाय है, जो शिक्षित और संभ्रांत होने के साथ ही बेहद प्रगतिशील भी है. इनकी संख्या गुजरात, महाराष्ट्र व मध्य प्रदेश में ही ज्यादा है, लेकिन दूसरी तरफ उत्तर प्रदेश व बिहार में ऐसे पसमांदा मुसलमानों की बहुत बड़ी तादाद है, जो शैक्षणिक व आर्थिक रूप से बेहद पिछड़े हुए हैं.
यूपी के पिछले विधानसभा चुनाव नतीजों के बाद पीएम मोदी को जो रिपोर्ट सौंपी गई थी. उसमें एक पैरा को खासतौर पर हाई लाइट कराते हुए कहा गया था कि पसमांदा मुस्लिम बहुल इलाकों से बीजेपी को उम्मीद से भी ज्यादा वोट मिले हैं. यह इस बात का संकेत है कि मुस्लिमों का सबसे पिछड़ा वर्ग केंद्र सरकार की नीतियों से खुश है, जिसे बरकरार रखने और भविष्य में भी उनका भरोसा कायम रखने की जरूरत है. शायद यही वजह है कि दिल्ली से पहले हैदराबाद में हुई बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में मोदी ने इस बात पर जोर दिया था कि पार्टी के सभी सांसद व विधायक पिछड़े मुस्लिमों के इलाके में जाकर देखें कि उन्हें केंद्र की सभी कल्याणकारी योजनाओं का पूरा फायदा मिल रहा है या नहीं और अगर कोई कमी दिखती है तो उसे पूरा करने के लिये स्थानीय प्रशासन को तत्काल निर्देश दें.
दरअसल, तब भी मोदी के दिमाग में पसमांदा मुस्लिमों का ही ख्याल था. मुस्लिम राजनीति के जानकार मानते हैं कि इस पिछड़े वर्ग का समाजवादी पार्टी से मोहभंग हो चुका है और इसके एक बड़े तबके ने 2019 के लोकसभा और पिछले साल हुए यूपी विधानसभा के चुनाव में भी साइलेंट होकर बीजेपी के पक्ष में वोट दिया था. अक्सर एक सवाल ये उठता है कि जब इस्लाम में जातियों का जिक्र नहीं है और सभी मुसलमानों को एक नजर देखा जाता है तो फिर ये व्यवस्था कैसे दी जा सकती है. इस पर पसमांदा मुस्लिमों के हकों की मांग का समर्थन करने वाले कहते हैं कि भारतीय महाद्वीप में जाति एक सच्चाई है और भारत के मुसलमानों के बीच भी यह व्यवस्था है.
पसमांदा मुस्लिम के बीच काम कर रहे बीजेपी से जुड़े आतिफ रशीद कहते हैं कि पूरे मुस्लिम समुदाय में 80 फीसदी पसमांदा हैं, लेकिन नौकरियों और कॉलेज की सीटों पर सिर्फ ऊंची जाति वाले अशराफ समुदाय के मुसलमानों का कब्जा है. रशीद कहते हैं कि इस्लाम में जातियों का कोई जिक्र नहीं है, लेकिन जमीन में इस सच्चाई को नकारा नहीं जा सकता है. उनका कहना है कि जब भी पसमांदा अपने अधिकारों की बात करते हैं उनके सामने मुसलमानों को बांटने का सवाल खड़ा कर दिया जाता है. ये तो हुई पसमांदा मुस्लिमों की बात.
बोहरा समुदाय को एक तरह से मोदी का मुरीद समझा जाता है, जिसने गुजरात का मुख्यमंत्री रहते हुए न उनका विरोध किया और न ही पीएम बनने के बाद. यही नहीं, मोदी देश के अकेले ऐसे पीएम हैं, जिन्होंने सितम्बर 2018 में इंदौर में हुए दाउदी बोहरा समुदाय में शिरकत करते हुए उनके सर्वोच्च धर्मगुरु सैयदना मुफद्दल सैफुद्दीन से मुलाकात की थी. उन्हें अपने धर्म का दाई-अल-मुतलक़ कहा जाता है,जिसका मतलब होता है-सुपर अथॉरिटी यानी सर्वोच्च सत्ता. जिसके निजाम में कोई भी भीतरी या बाहरी शक्ति दखल नहीं दे सकती या जिसके आदेश-निर्देश को कहीं भी चुनौती नहीं दी जा सकती. यहां तक कि सरकार या अदालत के सामने भी नहीं.
उस लिहाज से देखें तो दाऊदी बोहरा समुदाय में अपना धर्मगुरु चुनने या बनाने की कोई व्यवस्था नही है, बल्कि ऐसी वंशवादी परंपरा है,जो सदियों से चली आ रही है और ये इस्लामी उसूलों के खिलाफ है. हालांकि ये समुदाय आम तौर पर पढा-लिखा, मेहनती, कारोबारी और समृद्ध होने के साथ ही आधुनिक जीवनशैली वाला है, लेकिन साथ ही इसे धर्मभीरू समुदाय भी माना जाता है. अपनी इसी धर्मभीरुता के चलते वह अपने धर्म गुरु के प्रति पूरी तरह समर्पित रहते हुए उनके हर 'उचित-अनुचित' आदेशों का निष्ठापूर्वक पालन भी करते हैं.
दूसरे धर्मगुरुओं के मुकाबले सैयदना का अपने समुदाय में एक अलग ही रुतबा है, एक तरह से वे अपने समुदाय के शासक हैं. मुंबई में अपने भव्य और विशाल आवास सैफी महल में अपने विशाल कुनबे के साथ रहते हुए वे खुद तो हर आधुनिक भौतिक सुविधाओं का उपयोग करते हैं, लेकिन अपने सामुदायिक अनुयायियों पर शासन करने के उनके तौर तरीके मध्ययुगीन राजाओं-नवाबों की तरह हैं.
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