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भाजपा-शिवसेना गठबंधन अब स्वाभाविक नहीं, मजबूरी का पर्यायवाची होगा!
उद्धव ठाकरे भले ही अकेले लड़ने का ऐलान कर चुके हों, लेकिन अपने सांसदों और विधायकों के साथ एक बैठक करके वे भांप चुके हैं कि महाराष्ट्र समेत पूरे देश में 2014 वाली राजनीतिक परिस्थितियां अब नहीं रहीं.
वर्ष 2014 में महाराष्ट्र की मिलीजुली सरकार गठित होने के काफी पहले से एक-दूसरे की टोपियां उछालती आईं भाजपा और शिवसेना आगामी लोकसभा चुनावों के लिए आपसी गठबंधन करने पर गंभीरता से विचार कर रही हैं. बता दें कि चार साल तक लगातार जेब में इस्तीफा लेकर घूमने की धमकी देने वाली शिवसेना सरकार में बने रहते हुए भी 2018 की शुरुआत में एनडीए से बाहर निकल गई थी. जनवरी में उसने अपनी राष्ट्रीय कार्यकारिणी में लोकसभा और विधानसभा चुनाव अकेले लड़ने का प्रस्ताव पारित कर दिया था. यह मात्र गीदड़भभकी से कहीं आगे का कदम था.
उद्धव ठाकरे भले ही अकेले लड़ने का ऐलान कर चुके हों, लेकिन अपने सांसदों और विधायकों के साथ एक बैठक करके वे भांप चुके हैं कि महाराष्ट्र समेत पूरे देश में 2014 वाली राजनीतिक परिस्थितियां अब नहीं रहीं. उनके सांसदों का फीडबैक यह है कि अकेले चुनाव लड़ने पर शिवसेना लोकसभा की मौजूदा 18 में से 7-8 सीटें भी बचा ले जाए, तो बहुत बड़ी बात होगी. अगले वर्ष राज्य विधानसभा चुनावों में भी विरोधी लहर कांग्रेस-राकांपा का नहीं बल्कि भाजपा-शिवसेना गठबंधन का पीछा करेगी. क्रांतिकारी तेवर अपनाने के बावजूद राज्य सरकार की नाकामियों से पीछा छुड़ाना और शामिल रहते हुए जिम्मेदारी से बचना पार्टी के लिए आसान नहीं होगा. उद्धव यह भी देख रहे हैं कि फिलहाल बेअसर-सी लग रही कांग्रेस-राकांपा के रिश्तों में बीते चार वर्षों के दौरान कोई बड़ी दरार नहीं आई है और उनका गठबंधन होना लगभग तय है. ऐसे में अकेले दम पर चुनावी समर में कूदने से भाजपा-शिवसेना की ताकत बंट जाएगी और दो की लड़ाई में तीसरे के बाजी मार ले जाने वाला हादसा हो सकता है.
सरकार में शामिल होने के बावजूद बीएमसी और अन्य स्थानीय निकायों के चुनाव दोनों ने अलग-अलग लड़े और दोनों जोड़ीदारों के बीच कड़वाहट चरम पर थी. शिवसेना के हमलों पर मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस करारा जवाब देते थे- ‘हमने भी चूड़ियां नहीं पहन रखी हैं.’ लेकिन पीएम मोदी, केंद्र और राज्य सरकार को किसी भी बिंदु पर छोड़ने और छेड़ने से बाज न आने वाली शिवसेना के तेवर अब बदलने लगे हैं तो इसकी वजह उसका जमीनी आकलन ही है. 2014 में केंद्र तथा महाराष्ट्र में ऐतिहासिक चुनावी उपलब्धियां हासिल करने वाली भाजपा भी शुरुआती अकड़ के बाद दिन-रात मिले सुर मेरा तुम्हारा का राग अलाप रही है. राज्य में पहली बार शिवसेना से लगभग दुगुनी सीटें जीत कर दिखाने के बाद शुरू-शुरू में शिवसेनाध्यक्ष उद्धव ठाकरे को नजरअंदाज करने वाले भाजपाध्यक्ष अमित शाह मातोश्री (उद्धव का मुंबई स्थित निवास) के चक्कर काट चुके हैं.
शिवसेना भी राज्य सरकार की नीतियों की प्रशंसा करने लगी है. मुंबई-नागपुर को सीधे जोड़ने वाले एक्सप्रेसवे ‘समृद्धि कॉरीडोर’ की हाल ही तक तीखी आलोचना करने वाली शिवसेना के अपने कोटे वाले पीडब्ल्यूडी मंत्री एकनाथ शिंदे ने रुख बदलते हुए कहा है- “समृद्धि कॉरीडोर एक आमूलचूल परिवर्तन वाला कदम है, जो राज्य को विकास के पथ पर ले जाएगा.” भाजपाई मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस कह रहे हैं- “हमारे बीच मतभेद रहे हैं लेकिन सरकार चलाने में वे कभी बाधा नहीं बने. शिवसेना का धनुष-बाण और भाजपा का कमल 2019 में संयुक्त विजयश्री प्राप्त करेगा.” इन नित्यप्रति बढ़ती नजदीकियों की एक बड़ी वजह और भी है- पांच राज्यों से भाजपा को मिली बुरी चुनावी खबर और शिवसेना के अयोध्या कूच का चौतरफा फीका असर. दोनों पक्षों को पूर्ण अहसास हो गया है कि साथ आए बिना कम से कम महाराष्ट्र में तो पिछला प्रदर्शन नहीं दोहराया जा सकता.
विचारधारा के धरातल पर भी शिवसेना के पास कांग्रेस-राकांपा या अन्य धर्मनिरपेक्ष दलों से गठबंधन का कोई रास्ता नहीं है. वह या तो भाजपा के बिना मैदान में उतर सकती है या उसके साथ सीटों का समझौता करके अपनी ताकत बढ़ाने की कोशिश कर सकती है. जाहिर है, पार्टी की पूरी कवायद भाजपा पर दबाव बना कर चुनाव लड़ने के लिए ज्यादा से ज्यादा सीटें हासिल करने की होती है! सुनते हैं कि इसी कवायद के तहत उद्धव ठाकरे ने कुछ पूर्व शर्तें भाजपा के सामने रख दी हैं. उद्धव लोकसभा की एक-दो सीटें इधर-उधर करने हेतु तैयार हो सकते हैं लेकिन इस बात पर दृढ़ रहेंगे कि गठबंधन की जीत के बाद मुख्यमंत्री शिवसेना का ही होगा. यह एक कड़ी शर्त होगी, जिसे भाजपा शायद ही स्वीकार करेगी. भाजपा का पहले वाला रुख अब भी बरकरार है- जिसके ज्यादा विधायक, उसी का मुख्यमंत्री. वर्ष 2014 में भी इस शर्त को लेकर शिवसेना ने खूब हाथ-पैर पटके थे, बागी अंदाज दिखाया था, लेकिन मोदी-शाह की अगुवाई वाली भाजपा को नहीं पिघलना था, तो वह नहीं ही पिघली.
शिवसेना अनमने ढंग से ही सही, महाराष्ट्र सरकार की गाड़ी का एक पहिया बन गई थी. आज इसे हम शिवसेना की सोची-समझी रणनीति भी कह सकते हैं. चुनाव बाद हुए गठबंधन से अलग होकर वह बीच में कभी भी फडणवीस सरकार को गिरा सकती थी, लेकिन जनता इसे उसका अवसरवादी और धोखे से भरा कदम मानती. मौके की नजाकत देखते हुए शिवसेना स्वयं को मराठी माणूस का सबसे बड़ा हितैषी दिखाने में जुट गई. फिर चाहे वह राज्य में भयंकर बेरोजगारी और स्थानीय युवाओं की समस्याएं हों, किसानों की पूर्ण कर्जमाफी हो, मराठा आरक्षण की पैरोकारी हो, दूध-फल-सब्जी वालों की हड़ताल हो, मुंबई में चप्पे-चप्पे पर सीसीटीवी निगरानी स्थापित करने का मामला हो, निर्माणाधीन नवी मुंबई एयरपोर्ट की लेटलतीफी हो, मुंबई की जर्जर चालों का मामला हो, झोपड़पट्टी पुनर्वसन और अवैध खनन की बात हो, राकांपा नेता अजित पवार का सिंचाई घोटाला हो या जनता के अन्य जरूरी मुद्दे. असली विपक्ष की भूमिका शिवसेना निभाती रही.
अभी उद्धव ठाकरे चाहे जितने तेवर दिखाएं, और यह भी बखूबी समझते रहें कि भाजपा के लिए शिवसेना स्वविस्तार की एक सीढ़ी मात्र है, उनके पास ज्यादा विकल्प नहीं हैं. उधर भाजपा भी चुनाव पूर्व के संक्रमण काल में कोई पंगा नहीं लेना चाहती. मुख्यमंत्री फडणवीस ने शांति का प्रस्ताव पेश करते हुए पिछले चार सालों से खाली पड़े विधानसभा उपाध्यक्ष के पद पर शिवसेना के विजय औटी को बिठा दिया है. फडणवीस की रणनीति यह है कि किसी भी उपाय से युद्धविराम कायम रख कर वह लोकसभा चुनाव में शिवसेना के सहारे 2014 वाला प्रदर्शन (48 में से 42 सीट) दोहराएं और भाजपा आलाकमान के सामने अपना स्कोर बढ़ाएं.
इन परिस्थितियों में शिवसेना को इस बात की आशंका खाए जा रही है कि अगर उसने लोकसभा चुनावों के लिए भाजपा से हाथ मिला लिया तो भी इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि उसके तुरंत बाद होने वाले महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों में भाजपा पिछली बार की ही तरह एकला चलो की नीति नहीं अपनाएगी. इसीलिए शिवसेना जोर दे रही है कि राज्य में विधानसभा चुनाव लोकसभा के साथ ही कराए जाएं. उधर भाजपा फिलहाल ऐसा कोई आश्वासन देने को राजी नहीं है. देवेंद्र फडणवीस ने पिछले दिनों स्वयं स्पष्ट कर दिया था- “लोकसभा और महाराष्ट्र विधानसभा के चुनाव एक साथ नहीं होंगे. राज्य के चुनाव अपने समय पर ही होंगे.”
स्पष्ट है कि मोल-तोल के बाद बात बन ही जाएगी लेकिन भाजपा-शिवसेना गठबंधन अब स्वाभाविक नहीं मजबूरी का एक नाम बन गया है.
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