जानें कहां दगा दे दे, जानें किसे सजा दे दे... बॉलीवुड के मेगा स्टार अमिताभ बच्चन की हिट फिल्म अंधा कानून का ये गाना तो आपने जरूर सुना होगा. जिसमें अमिताभ का किरदार बताता है कि कैसे कानून वाकई अंधा है. अब इसी नजरिये को बदलने के लिए एक बड़ा फैसला लिया गया है और न्याय की देवी की आंखों पर पिछले कई सालों से जो काली पट्टी लगी थी, उसे हटा दिया गया है. जिससे यही मैसेज देने की कोशिश हुई है कि कानून के आंखों में पट्टी नहीं बंधी हुई है और वो सबको देख रहा है. हालांकि अगर देशभर की अदालतों में पड़े पेंडिंग केस देखें तो आप अब भी यही कहेंगे कि आंख से पट्टी हटने के बाद भी कानून अंधा ही है... 


न्याय की जगह मिलती है तारीख पर तारीख
जब भी किसी के साथ नाइंसाफी होती है या फिर जुल्म होता है तो उसे उम्मीद होती है कि न्यायालय यानी कोर्ट में उसकी सुनवाई होगी. इसके लिए एक याचिका दाखिल की जाती है और फिर सुनवाई का इंतजार होता है. ज्यादातर आपराधिक मामले ही कोर्ट में सबसे पहले पहुंचते हैं. हालांकि एक बार कोर्ट में जाने के बाद केस इतना लंबा खिंचता है कि याचिका दायर करने वाली की सारी उम्र निकल जाती है. इसके बाद उसके लड़के भी उसी केस के फैसले का इंतजार करते-करते बूढ़े हो जाते हैं. यानी तारीख पर तारीख, तारीख पर तारीख के अलावा कुछ नहीं मिलता है. इंसाफ की उम्मीद यहीं टूट जाती है और लोग अपने मन में यही सोचते हैं कि कानून वाकई अंधा है. 


अमिताभ बच्चन की फिल्म अंधा कानून में भी इसी कहानी को दिखाया गया है. इसके टाइटल सॉन्ग के बोल हैं- "लंबे इसके हाथ सही, ताकत इसके साथ सही...पर ये देख नहीं सकता, ये बिन देखे है लिखता... जेल में कितने लोग सड़े, सूली पर निर्दोष चढ़े... मैं भी इसका मारा हूं, पागल हूं आवारा हूं, यारों मुझको  होश नहीं, पर मेरे जुनून है... ये अंधा कानून है..."


आंखे खोलकर पढ़ लें ये आंकड़े
अब आपको उस सच्चाई के बारे में भी बताते हैं, जिसे देखकर आपको भी यकीन नहीं होगा कि वाकई कानून के आंखों से पट्टी उतर चुकी है. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक भारत के हाईकोर्ट में ही करीब 62 हजार से ज्यादा मामले पेंडिंग हैं. इनमें से कुछ मामले तो 1952 से अब तक सुलझे ही नहीं हैं. यानी 70 साल से केस पेंडिंग पड़े हैं. खुद राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू भी इसे लेकर चिंता जाहिर कर चुकी हैं और इसे चुनौती बता चुकी हैं. 


अब अगर सुप्रीम कोर्ट, हाईकोर्ट और बाकी तमाम कोर्ट्स के आंकड़े जोड़ दिए जाएं तो ये करीब पांच करोड़ तक पहुंचते हैं. यानी देशभर में अभी पांच करोड़ से ज्यादा केस पेंडिंग हैं. सबसे खास बात ये है कि इनमें से कई मामले तो 30 साल से भी ज्यादा पुराने हैं. 


क्या कहते हैं कानून के एक्सपर्ट
न्याय की देवी के आंखों से पट्टी हटने के बारे में हमने सुप्रीम कोर्ट के सीनियर एडवोकेट विराग गुप्ता से भी बातचीत की. उन्होंने बताया कि भारत में कानून की देवी की मूर्ति का प्रचलन औपनिवेशिक परंपरा की निशानी है, इस बारे में कोई लिखित नियम और कानून नहीं हैं. देवी की आंखों में पट्टी को परम्परागत तौर पर निष्पक्षता की निशानी माना जाता है, लेकिन फिल्मों और फिर सोशल मीडिया में इस पट्टी से अंधे कानून को जोड़ा जाता है. जज हर मुकदमे का फैसला सुनवाई और गुण-दोष के आधार पर करते हैं, इसलिए कानून की देवी की आंखों की पट्टी हटने के प्रतीकात्मक कदम और प्रशासनिक फैसले से कानूनी प्रक्रिया में कोई फर्क नहीं पड़ेगा. 


'मामलों की पेंडेंसी खत्म करना जरूरी'
पेंडिंग केसेस को लेकर सुप्रीम कोर्ट के वकील ने कहा, कानून की देवी की आंखों से पट्टी हटाने के प्रतीकात्मक कदम से पेंडिंग पड़े मामलों में कोई असर नहीं होगा. जिला अदालतों में अधिकांश पेंडिंग मामले क्रिमिनल मेटर से जुड़े हैं. संसद से पारित तीन नये आपराधिक कानूनों को एक जुलाई से लागू किया गया है, उनमें यह दावा किया गया है कि क्रिमिनल मामलों का समयबद्ध तरीके से निस्तारण होगा, लेकिन पुराने मामलों की पेंडेंसी खत्म किये बगैर नये मामलों का जल्द निपटारा मुश्किल है.


किस मायने में अंधा है कानून?
जब हमने सर्वोच्च अदालत के वकील से पूछा कि किन मायनों में कानून अब भी अंधा है तो उन्होंने जवाब देते हुए कहा, अदालतों के लम्बित मामलों की भयानक समस्या को दूर करने की बजाए जज लोग विधायिका और कार्यपालिका को दुरुस्त करने में ज्यादा समय लगाते हैं. इस लिहाज से कहा जा सकता है कि चिराग तले अंधेरा की तर्ज पर कानून अंधा है. संविधान के अनुसार जल्द न्याय लोगों का मौलिक अधिकार है, जनता के इन अधिकारों पर जोर देने से मुकदमों का जल्द फैसला हो सकता है. भारत के संविधान और कानून के अनुसार भले ही सैंकड़ों गुनाहगार छूट जाएं लेकिन निर्दोष को सजा नहीं होनी चाहिए. हालांकि हकीकत में हजारों निर्दोष लोगों को बेवजह जेल में रखा जाता है.