मशहूर शायर, गीतकार कैफी आज़मी का आज 101वां जन्म दिन है. पिछला वर्ष उनका जन्म शताब्दी वर्ष था. इसलिए उन्हें पूरे साल कई जगह कई तरीके से याद किया गया. 14 जनवरी 1919 को उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ में जन्मे कैफी आज़मी का 10 मई 2002 को इंतकाल हो गया था. उनको दुनिया को अलविदा कहे अब 18 साल हो गए हैं, लेकिन वह आज भी बहुत याद आते हैं.


पहली बात तो यह कि उन्होंने फिल्मों में ऐसे ऐसे शानदार, लाजवाब गीत लिखे हैं, जिनके कारण भारतीय फिल्म गीत संगीत मालामाल है. चाहे प्रेम गीत हो या टूटे हुए दिल के गम भरे गीत या फिर देश भक्ति के गीत हों और सामाजिक ताने बाने पर बुने गीत. उनके लिखे सभी गीत, गजल दिल की गहराइयों तक उतरते चले जाते हैं. आज भी उनके लिखे गीतों में वह दम-खम, वह कशिश है कि उनको सुनते ही इंसान उन गीतों की ओर खिंचा चला आता है. इसलिए उनकी याद बरबस हो ही जाती है.


एक से एक यादगार गीत
उनके गीतों की दिलकश बानगी उनके अधिकतर गीतों में मिलती है. चाहे वे ‘हकीकत’ फिल्म से हों- ‘कर चले हम फिदा जान और तन साथियो’, ‘मैं यह सोचकर उसके दर से उठा था’ और ‘ज़रा सी आहट होती है तो दिल सोचता है’. या फिर ‘हीर रांझा’ फिल्म से– ‘ये दुनिया ये महफिल मेरे काम की नहीं’, ‘मिलो न तुम तो हम घबराए, मिलो तो आंख चुराएं’ या फिल्म ‘अनुपमा’ से –‘या दिल की सुनो दुनिया वालो’ और ‘धीरे धीरे मचल ए दिल ए बेकरार कोई आता है’.


ऐसे ही ‘जाने क्या ढूंढती हैं ये आँखें मुझमें’ (शोला और शबनम) ‘चलते चलते यूं ही कोई मिल गया था’ (पाकीज़ा), ‘वक्त ने किया क्या हंसी सितम’ (कागज के फूल), ‘ये नयन डरे डरे,ये जाम भरे भरे (कोहरा)  तुम जो मिल गए हो (हंसते जख्म) और फिल्म ‘अर्थ’ के गीत तो आज की युवा पीढ़ी की भी बड़ी पसंद बने हुए है-‘तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो क्या गम है जिसको छिपा रहे हो’ और ‘झुकी झुकी सी नज़र बेकरार है कि नहीं’.


बरसों पुरानी वह यादगार मुलाक़ात
अपने इन गीतों के अलावा मुझे तो वह इसलिए भी कुछ ज्यादा ही याद आते हैं क्योंकि मैंने ठीक 34 साल पहले जनवरी 1986 में दिल्ली में उन्हें इंटरव्यू किया था. जिसमें मुझसे उन्होंने दिल खोलकर देर तक बहुत सी बातें की थीं.


उनका मेरे द्वारा लिया गया वह इंटरव्यू तब सुप्रसिद्ध राष्ट्रीय दैनिक ‘नवभारत टाइम्स’ में प्रकाशित हुआ था. इस इंटरव्यू के बाद उनसे कुछ समय बाद मेरी फिर मुलाक़ात हुई तो उन्होंने मुझसे कहा था– “आपने जो मेरा इंटरव्यू लिया था, वह मुझे बहुत अच्छा लगा, मैं समझता हूं वह मेरा बेस्ट इंटरव्यू था.“ ज़ाहिर है इतना बड़ा शायर यदि आपकी तारीफ करे तो मन कितना खुश हुआ होगा, यह बताने की शायद जरूरत ही नहीं है.


दिल्ली के दीन दयाल उपाध्याय मार्ग क्षेत्र के अजॉय भवन में जब मैं कैफी आज़मी से समय निर्धारित करके उनसे मिलने पहुंचा तो उनकी तबीयत कुछ नासाज़ थी. वह अपने कमरे में पलंग पर लेटे हुए थे. मेरे आने पर वह उठकर बैठने लगे तो मैंने कहा कि आप लेटे रहें मैं आपसे ऐसे ही बात कर लूंगा. वह बोले- नहीं मैं उठकर बैठता हूं बस पलंग के सिरहाने टेक लगाकर बैठ जाता हूं.


जब लौटा दिया था पद्मश्री
कुछ समय पहले देश में कुछ लेखकों, शायरों ने अपने अवॉर्ड्स वापस किए थे, तो इस पर काफी हो हल्ला हुआ था. ऐसे लोगों में पद्म अवॉर्ड्स वापस करने वाले भी लोग थे. ऐसे अवॉर्ड्स वापस करने वालों को ‘अवॉर्ड्स वापसी गैंग’ भी कहा गया था. लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं कि एक समय कैफी आज़मी ने भी अपना पद्मश्री सरकार को अपने इस विरोध के चलते वापस कर दिया था कि उर्दू को उसका पूरा हक नहीं मिल रहा है. तब केंद्र और आज़मी के गृहराज्य उत्तर प्रदेश दोनों में कांग्रेस सरकार थी.


तब मैंने कैफी साहब से पूछा था कि आपने उर्दू भाषा को पूरा हक दिलाने के लिए अपनी पद्मश्री लौटा दी. लेकिन क्या उर्दू को उसका हक दिलाने के लिए आपका कोई और कदम नहीं हो सकता था?


इस पर उन्होंने जवाब देते हुए कहा था, “पद्मश्री अवॉर्ड मुझे यह कहकर दिया गया था कि उर्दू जुबान और साहित्य की जो सेवा आपने की यह उसके लिए सम्मान दिया जा रहा है. पर यदि उस जुबान को एक राज्य में पूरा सम्मान तक न मिले तो उसके लिए दिये गए अवॉर्ड को अपने पास रखने से क्या फायदा. जब मैंने पद्मश्री वापस की तो तिवारी ( उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्य मंत्री नारायण दत्त तिवारी) ने बुलाया था. मैंने उनसे कहा था कि मैं ऐसा इसलिए कर रहा हूं कि मैं आज जो कुछ हूं वह इसी जुबान की वजह से हूं. हमारी मांगें कुछ लंबी चौड़ी तो नहीं थीं. उर्दू में दरखास्त लिखने पर वह कबूल हो जाये. खत पर उर्दू में पता लिखा हो तो वह ठिकाने पर पहुंच जाये.


आज़मी ने तब यह भी कहा था, “मैं हिन्दी विरोधी नहीं. उल्टा यदि उर्दू को उसका स्थान दिया जाये तो इससे हिन्दी को ज्यादा महत्व मिलेगा. आज गजलें लोकप्रिय हो रही हैं. इससे हिन्दी और धनवान हो रही है. और अब एक ‘कन्वेन्शन’ हम लखनऊ में बुलाना चाहते हैं, जिसमें हिन्दी के भी बहुत से लोग होंगे. पहले भी जब भूख हड़ताल पर बैठे थे तब भी हिन्दी के बहुत से लोग साथ थे.”


लाइब्रेरी में लिखा नाटक सफल नहीं होता
कैफी आज़मी ने शायरी के साथ जहां फिल्मों के गीत और पटकथाएं लिखीं, वहाँ नाटक भी लिखे. जब मैंने उनसे बात की थी तब वह ‘इप्टा’ के अध्यक्ष थे. साथ ही प्रगतिशील लेखक संघ के भी. मैंने उनसे पूछा कि आप इप्टा से शुरू से जुड़े रहे हैं. आज इप्टा के अध्यक्ष होने के नाते थिएटर और इप्टा को बढ़ावा देने के लिए आप क्या सोचते हैं ?


मेरे इस सवाल पर उनका जवाब था, “मैं सोचता हूं इप्टा को शहरों के साथ गांवों में भी पहुंचना चाहिए. अभी भी इप्टा गांवों का सफर करती है. मध्य प्रदेश में तो इप्टा का बहुत अच्छा काम हो रहा है. फिर नाटक अच्छा वही लिख सकता है जो स्टेज से जुड़ा हुआ हो. धरती के करीब हो. लाइब्रेरी में बैठकर लिखा जाने वाला नाटक ज्यादा सफल नहीं हो सकता. इप्टा के नए दौर में लेखन के लिए हौंसला अफजाई करना बहुत ज़रूरी है. तकनीकी स्तर और ऊंचा होना चाहिए. आज के फिल्म युग में नाटकों को ज़िंदा रखना बहुत मुश्किल काम है. दर्शक को पांच रुपये खर्च करके फिल्म जितनी सस्ती लगती है, उतना नाटक नहीं.”


“इसलिए कोशिश करनी पड़ेगी कि स्तर ऊंचा बना रहे और नाटकों की कमी न रहे. मैंने खुद नाटकों को कविता में लिखना चाहा है, जैसे ‘हीर रांझा’ फिल्म लिखी थी. लेकिन आज वह खत्म हो रहा है. एक नाटक मैंने इसी रंग में छेड़ा हुआ है जो एक लंबी नज़्म है, लेकिन उसे पूरा नहीं कर सका हूं.


शबाना जिद्दी बहुत है
लगभग सभी जानते ही हैं कि चर्चित फिल्म अभिनेत्री शबाना आज़मी कैफी आजमी की बेटी हैं. जब मैंने उनसे पूछा-आज आपकी बेटी शबाना फिल्मों के कई राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार बटोर चुकी हैं. आप पिता के नाते उसकी फिल्मों में कितनी दखलंदाज़ी करते हैं? साथ ही शबाना की कौन सी फिल्म आपको पसंद है ?


कैफी साहब जवाब में बताते हैं, “मैं शबाना की फिल्मों में बस इतनी दिलचस्पी लेता हूं कि उसका काम ज्यादा अच्छा हो. वह खुद भी सोच समझ कर अच्छी भूमिकाएं ही लेती है. जिद्दी भी बहुत है. पैसा उसके लिए ज्यादा महत्व नहीं रखता, पैसा भी जरूरी है जीने के लिए.”


“मुझे शबाना की ’स्पर्श’ फिल्म बहुत अच्छी लगती है. ‘खंडहर’ इस जमाने में पसंद आ रही है. वैसे ‘पार’ और ‘मासूम’ भी पसंद हैं.”


मेरे बगैर भी चलती रहेगी मुंबई
आप बंबई छोड़कर आजमगढ़ के पास अपने गांव में चले गए हैं इसका क्या कारण है ? मेरे इस सवाल के जवाब में उन्होंने कहा था, “बंबई में काफी रह लिया हूं. बंबई तो मेरे बगैर भी चल रही है, चलती. मैं अब अपनी बची खुची जिंदगी गांवों में ही गुज़ारना चाहता हूं. लेकिन गाँव में, मैं बंबई से ज्यादा व्यस्त हूं. यहां सड़क, पोस्ट ऑफिस खुलवाए हैं. एक अस्पताल की भी कोशिश कर रहा हूं. मुज़फ्फर अली के लिए एक फिल्म ‘हज़रत महल’ लिख रहा हूं. बंबई आता जाता तो रहता ही हूं. बंबई से बनवास नहीं लिया है.”


मेरी कैफी आज़मी से इस मुलाक़ात के करीब 16 बरस बाद उन्होंने दुनिया से कूच किया. हालांकि अपनी अंतिम सांस उन्होंने मुंबई में ली और उनको मुंबई में ही दफनाया गया. उनके इंतकाल के समय उनका लिखा गीत- ‘कर चले हम फिदा जान और तन साथियों, अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों’, सभी के कान में गूंज रहा था.


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(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)