अधर में लटकना और खानाबदोशी: मंगलेश डबराल को श्रद्धांजलि
मंगलेश डबराल ने अनुवाद करने के लिए जिन योरोपीय कवियों को चुना, वह पढ़े-लिखे पाठक को उनके अपने राजनीतिक मिजाज के सूत्र देता है— यही संकेत डबराल के द्वारा हिंदी अनुवाद के लिए अरुंधती राय के दूसरे उपन्यास ‘द मिनिस्ट्री ऑफ अटमोस्ट हैप्पीनेस’ का चयन करने से मिलते हैं. एक युवा पत्रकार के रूप में आपातकाल (1975-77) के दौरान काम करते हुए डबराल ने प्रेस की आजादी पर एकाधिकारवादी दबंग सत्ता के डरावने प्रभाव का प्रत्यक्ष अनुभव किया था. उन्होंने खुद देखा था कि बोलने और अभिव्यक्ति के बुनियादी अधिकारों को कुचलने का किसी देश पर कितना दीर्घकालीन दुष्परिणाम हो सकता है.
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हिंदी के कवि मंगलेश डबराल का पिछले हफ्ते देश की राजधानी में निधन हो गया. अन्य कई लोगों की तरह उन्हें भी कोविड-19 ने मार गिराया. डबराल एक शांतचित्त और सरल व्यक्ति थे. हिंदी कविता से सुपरिचित और इसमें माहिर लोगों के मुताबिक वह अवश्यंभावी रूप से अपनी पीढ़ी के दो या तीन बड़े कवियों में शुमार थे. एक पत्रकार के तौर पर उनका करियर लंबा रहा. कई दशकों में फैले अपने करियर के दौरान वह भोपाल, इलाहाबाद और दिल्ली में कई अग्रणी हिंदी समाचार-पत्र और पत्रिकाओं से जुड़े रहे. लेकिन जनसत्ता अखबार के साथ हर रविवार को आने वाले रविवारी नामक साहित्यिक परिशिष्ट को दी गईं उनकी सेवाएं बड़ी ख्यात रहीं.
उन पर लिखे जा रहे शोक-आलेखों में भारतीय साहित्य तथा पत्रकारिता को दिए गए उनके अनेक विशिष्ट योगदानों का उल्लेख किया जा रहा है. यहां उनको विस्तार से दोहराने की जरूरत नहीं है. यद्यपि डबराल की कविताओं का अंग्रेजी और दर्जन भर अन्य योरोपीय भाषाओं में अनुवाद हो चुका है, वह खुद एक सिद्धहस्त अनुवादक थे. उन्होंने बड़े पैमाने पर पाब्लो नेरुदा, बर्तोल्त ब्रेख्त और ज़्बिग्न्यू हर्बर्ट जैसे दिग्गज कवियों की कविताओं का हिंदी में अनुवाद किया था.
मंगलेश डबराल ने अनुवाद करने के लिए जिन योरोपीय कवियों को चुना, वह पढ़े-लिखे पाठक को उनके अपने राजनीतिक मिजाज के सूत्र देता है— यही संकेत डबराल के द्वारा हिंदी अनुवाद के लिए अरुंधती राय के दूसरे उपन्यास ‘द मिनिस्ट्री ऑफ अटमोस्ट हैप्पीनेस’ का चयन करने से मिलते हैं. एक युवा पत्रकार के रूप में आपातकाल (1975-77) के दौरान काम करते हुए डबराल ने प्रेस की आजादी पर एकाधिकारवादी दबंग सत्ता के डरावने प्रभाव का प्रत्यक्ष अनुभव किया था. उन्होंने खुद देखा था कि बोलने और अभिव्यक्ति के बुनियादी अधिकारों को कुचलने का किसी देश पर कितना दीर्घकालीन दुष्परिणाम हो सकता है.
वर्ष 2017 में दिए अपने एक इंटरव्यू में उन्होंने आपातकाल के दिनों को याद करते हुए कहा था कि वह एक ऐसा ‘गहरा अंधेरा समय’ था, जिसमें सत्यनिष्ठा व ईमानदारी के साथ काम करने की इच्छा रखने वाला कोई भी पत्रकार जेल की सलाखों के पीछे जा सकता था. वर्ष 2000 में उन्हें हम जो देखते हैं कविता-संग्रह के लिए हिंदी का साहित्य अकादमी सम्मान प्रदान किया गया था, लेकिन वह 2015 में सरकार को अपने सम्मान लौटाने वाले लेखकों में शामिल हो गए. लेखकों की यह पुरस्कार वापसी सांप्रदायिक हिंसा की बाढ़ तथा अल्पसंख्यकों के खिलाफ बढ़ती असहिष्णुता, और इतना ही नहीं, इस तरह की हिंसा की भर्त्सना करने में सरकार की विफलता को लेकर गहरी नाराजगी का संकेत देने के लिए की गई थी. जैसा कि डेक्कन क्रॉनिकल में छपे एक इंटरव्यू में उन्होंने स्पष्ट किया था- ‘मैं नहीं चाहता कि भारत पाकिस्तान में तब्दील हो जाए.” यद्यपि वर्तमान में भारत के अंदर कोई घोषित ‘आपातकाल’ नहीं लागू है, डबराल ने अपनी आंखों के सामने लोकतांत्रिक असहमति की जगह को सिकुड़ते देखा था और महसूस किया था कि मौजूदा सरकार के मन में अपने तमाम आलोचकों को राष्ट्र का दुश्मन करार देने की खूंखार भूख जाग उठी है. उनके आखिरी कविता-संग्रह नए युग में शत्रु की कविताओं में उदासी की रंगत से भी ज्यादा कोई गहरी चीज निहित है, यहां तक कि उनमें मायूसी का सुर भी सुना जा सकता है. इस संग्रह का नाम भी बेहद सटीक रखा गया है. इसीलिए आश्चर्य की बात नहीं है कि सरकार में ऊंचाई पर बैठे आला लोगों का ध्यान उनकी मृत्यु पर नहीं ही जाना था!
डबराल पहाड़ों के आदमी थे. उनका जन्म उत्तराखंड के टिहरी में 1948 के दौरान हुआ था. युवक मंगलेश शहर आ गए. हालांकि वामपंथी दायरों में वह गंभीर रूप से यशस्वी व प्रतिष्ठित रहे—शायद इसमें खुद डबराल का अपेक्षाकृत गंभीर आचरण तथा ‘कवि के अकेलेपन’ की उनकी बुनियादी भावना प्रतिध्वनित होती थी’—एक ऐसे व्यक्ति के रूप में, जो मार्क्सवादी ब्रांड की राजनीति के प्रति दृढ़ता एवं निष्ठापूर्वक समर्पित रहा तथा एक कवि के रूप में जिसकी अंतरात्मा बेहद तीक्ष्ण थी, इसके बावजूद उनके अधिकांश कृतित्व की पहचान गांव और शहर के बीच व्याप्त तनाव के माध्यम से मिलती है. डबराल जिस चीज के भुक्तभोगी थे, उसकी दास्तान खुद गांव से शहर, भीतरी इलाकों से तटवर्ती इलाकों तथा देश के महानगरीय केंद्रों की ओर होने वाले विशाल पलायन की गंभीर विषय-वस्तु का आईना है. इससे भारतीय मानसिकता का पता लगता है और इसी ने उस रूप-रेखा का पुनर्गठन किया है, जिसे हम “भारत” कहते हैं. एक सरल लेकिन विचलित कर देने वाली कविता ‘शहर’ में डबराल राष्ट्र की व्याख्या करते हैं—बाहर निकल भागने को मजबूर करोड़ों भारतीयों की व्यथा-कथा, जैसा कि उनके गृह-प्रदेश उत्तराखंड में हजारों गांव खाली हो गए:
“मैंने शहर को देखा और मुस्कुराया वहां कोई कैसे रह सकता है यह जानने मैं गया और वापस न आया.”
इस कविता में जो चित्रित किया गया है, यह वही द्वैध है, जिसे डबराल अपने जीवन के आखिरी दिनों तक अनुभव करते रहे. गांव लौटने के लिए गांव में कुछ बचा ही नहीं था: टिहरी गढ़वाल इलाके ने दशकों से विशाल पैमाने पर बेदखली और निर्वासन झेला है. कई ऐसे गांव, जो डबराल की बचपन की यादों का हिस्सा रहे होंगे, सिरे से गायब हो चुके हैं. इनमें से कुछ गांव भारत के सबसे लंबे 260 मीटर वाले टिहरी बांध के अस्तित्व में आने पर डूब गए! इसके बावजूद डबराल शहर में भी पूरी तरह सहज नहीं थे. इसे उन्होंने अपने द्विभाषी कविता-संग्रह दिस नंबर डज नॉट इग्जिस्ट की भूमिका में स्पष्ट किया है- “मेरी कविता का जन्म पहाड़ पर हुआ था, यह पत्थरों व चट्टानों के बीच रही और इसने जल, बादलों, वृक्षों तथा पक्षियों के गीत गाए. लेकिन जल्द ही इसे शहर में बसना पड़ा, जहां अपने तमाम आकर्षणों, अपनी चौड़ी और हमेशा जगमगाती रहने वाली सड़कों, चौराहों और लैम्प पोस्टों के बावजूद दुनिया इतनी सरल और मासूम नहीं थी. ये तमाम आकर्षण किसी नई सभ्यता के वाचक थे. यह दुनिया मूल स्थानों के खो जाने की खलिश से भरी थी और नई जगह बसने के अजाबों को बर्दाश्त करने वाले तनाव से ग्रस्त थी.“
डबराल संगीत के भी जानकार और प्रेमी थे. 12 नवंबर 2017 को इंडियन एक्सप्रेस में छपे अपने एक लेख में उन्होंने मर्मभेदी ढंग से, बल्कि बड़ी पीड़ा के साथ अपने गांव छूटने का दर्द बखान किया था. पारिवारिक जुटान वाली शामों के दौरान जब उनके पिता जर्मन रीड्स के हारमोनियम पर संगीत छेड़ा करते थे तो बालक मंगलेश को राग दुर्गा हिला कर रख देता था. उन्होंने कहीं लिखा है, “दिल्ली आने के कुछ वर्षों बाद मुझे अचानक अहसास हुआ कि मुझे एक राग से दूर भगा दिया गया है. जब मैंने अपने गांव के आखिरी वृक्ष को तिरोहित होते देखा और जब मैंने गांव से बहती एक कृशकाय नदी को पार किया, तो उस राग की अनुपस्थिति ने मेरे मन में अपना घर बना लिया.“
एक दशक से कुछ अधिक ही समय गुजर गया होगा, जब उनकी बया (जून 2007) में प्रकाशित कविता ‘शहर के एकालाप’ मेरे हाथ लग गई थी. मुझे कविता ने पूरी तरह से अपनी गिरफ्त में ले लिया. इसमें गांव और शहर के बीच की फांक का इतना इशारा नहीं था, जितना कि खुद शहर के भीतर का भेद उघाड़ा गया था. विस्थापित व्यक्ति हमेशा अधर में लटके रहने की अवस्था में रहता है, यह अधर आत्म और अन्य के बीच की जगह भी होती है. तो भी, डबराल अपने राजनीतिक विचारों में कोई लागलपेट न रखने वाले जिस तरीके के राजनीतिक प्राणी थे, वह इस कविता के अंत में “अक्षरधाम का अड़ियल टट्टू’ बताते हुए जबर्दस्त प्रहार करते हैं. दिल्ली के बाहरी क्षेत्र में स्थित यह भव्य व विशाल मंदिर स्वामीनारायण पंथ के भक्तों की काल्पनिक धर्मनिष्ठा से कहीं ज्यादा हिंदू गर्व के स्मारक के तौर पर देखा जाता है. अक्षरधाम का एक घिनौना, पतित और खलबली भरा इतिहास रहा है.
मैंने इस कविता का अनुवाद करके इसे एक संकलन में शामिल करने की सोची. उस वक्त मैं इस संकलन के लिए रचनाएं जमा करने की प्रक्रिया में जुटा हुआ था और आखिरकार यह दो खंडों वाले एक सेट में सामने भी आ गया, जिसका नाम था- द ऑक्सफोर्ड एंथोलॉजी ऑफ द मॉडर्न इंडियन सिटी (2013). डबराल के साथ मैंने पत्राचार किया था और वह कविता के उस संस्करण का मेरे द्वारा अनुवाद किए जाने पर सहमत हो गए थे, जिसमें उन्होंने अपने हाथ की साधारण लिखाई से थोड़ा-बहुत संशोधन किया था. इसके बाद मेरा वह अनुवाद मेकिंग एंड अनमेकिंग द सिटी: पॉलिटिक्स, कल्चर, एंड लाइफ फॉर्म्स नामक खंड में सामने आया. जहां तक मेरी जानकारी है, डबराल की इस कविता का अंग्रेजी अनुवाद केवल मेरे संकलन में ही शामिल है, जिसे मैं इस अद्भुत व्यक्ति और कवि को श्रद्धांजलि के रूप में अपने पाठकों के साथ साझा कर रहा हूं:
The Monologue of the City
On the treacherous crossroads of this city Wide limos pass by honking needlessly The passengers inside gaze with contempt at the world outside Young men with lovers riding pillion on their motorcycles race away while performing reckless thrills Jumbo planes crisscross the skies carrying forth international celebrities and gangsters
The sinuous new metro goes speeding on the bridge over rotting sewers and cesspools All the bus stops have very much been modernized with gleaming billboards for lavish condominiums and homes which are being built with unexpected speed
Beneath them are seated people more than a trifle bit displeased Awaiting with longer than usual anticipation the arrival of ramshackle, overcrowded buses
Once in a while well past midnight Those who are often seen wandering around the crossroads Unable to reach their destinations They are strangers from far-away places Long denizens of the city they yet look as if it is their first visit This glittering city belongs to them at night
Half the city is traversed with a handkerchief on one’s nose Half the city welcomes you with the barest of clothes Half the city is bark and body, the other half sand and ashes Half the city is day by night, the other half night by day Half the city is decadent abundance, the other half a cesspool Half the city is alcohol runnin through its veins, The other half spittle, mucus and urine Half the city is an arc of light, the other half darkness Half the city salutes America, The other half whimpers and barks like a diseased dog Half the city discards garbage from its heavenly abodes, The other half collects, sifts, washes, wipes and burnishes it Sending it to on to the heavenly abodes once again
(after Viren Dangwal)
Those who sculpted you over years with unfailing diligence Give those huts blinded by darkness A sliver of your light You, who are awash in the floodlit night of Akshardham You, the perverse hirelings of Akshardham
नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.
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