इस महीने की पहली तारीख को इनुगा श्रीनिवासुलु रेड्डी का निधन हो गया. गांधीवादी विद्वानों के कुछ हलकों, रंगभेद विरोधी कार्यकर्ताओं तथा मानवाधिकारों के चंद अध्येताओं एवं विद्यार्थियों के अलावा ज्यादा लोगों ने उनके बारे में नहीं सुना होगा. ‘द न्यूयॉर्क टाइम्स’ ने उनके निधन को गर्मजोशी और दरियादिली भरे एक शोक-संदेश के साथ दर्ज किया है. दक्षिण अफ्रीका के राष्ट्रपति सिरिल रैमाफोसा तो रेड्डी की तारीफ में बेहद भावुक हो गए. उन्होंने ई एस रेड्डी को इन शब्दों में याद किया- “वह उसूलों और सिद्धातों पर अडिग रहने वाले तथा मानवाधिकारों के प्रति पूर्णत: प्रतिबद्ध व्यक्ति थे; लेकिन इस सबसे ऊपर हम सभी उन्हें सामाजिक एकजुटता को साकार करने के लिए याद करते हैं.” आज भारत जिस भयानक मानसिक संकीर्णता के गर्त में समा चुका है तथा अमेरिका, पाकिस्तान और थोड़ा-बहुत चीन को ले लीजिए, तो इन देशों के अलावा बाकी दुनिया में क्या चल रहा है, उसके प्रति भारतीय मध्य-वर्ग की उपेक्षा का यह जीता-जागता नमूना है कि रामचंद्र गुहा की कलम से निकले एक शोक-आलेख के अलावा (जो कि आश्चर्य की बात नहीं है) भारतीय प्रेस ने 1925 में भारत में जन्में इस विनम्र और प्रकांड महापुरुष के निधन पर कोई ध्यान ही नहीं दिया! गुहा द्वारा लिखी गई गांधी की जीवनी के प्रथम खंड (2013) में यह समर्पण दर्ज है: “ई एस रेड्डी – भारतीय देशभक्त, दक्षिण अफ्रीकी डेमोक्रैट, तमाम राष्ट्रीयताओं वाले गांधी-विद्वानों के दोस्त एवं सलाहकार को समर्पित.” रेड्डी की प्रशंसा में गुहा ने बड़ी उदारता बरती है, जो सही और उचित भी है, लेकिन उनका इस नतीजे पर पहुंचना कि रेड्डी ‘तमाम राष्ट्रीयताओं वाले गांधी-विद्वानों के सलाहकार” थे, काफी हद तक त्रुटिपूर्ण है. इस नतीजे में अफसोस की बात यह है कि इन तमाम राष्ट्रीयताओं वाले गांधी-विद्वानों में से कुछ लोग रेड्डी से परिचित जरूर थे और इनमें कुछ लोगों ने रेड्डी के काम और साहित्य का उपयोग भी किया, लेकिन जैसा कि गुहा ने समझा है उसके उलट, रेड्डी नहीं बल्कि यही विद्वान लोग थे जो गांधी के दक्षिण अफ्रीका में बिताए वर्षों तथा जीवन के अंतिम वर्षों के दौरान भी दक्षिण अफ्रीका के घटनाक्रम में गांधी की रुचि के बारे में स्थायी दिलचस्पी रखते थे.


गांधी का अध्येता होने के नाते नहीं बल्कि रंगभेद विरोधी आंदोलन की एक मशाल के रूप में कॉमरेड रेड्डी, जिस बात पर अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस के सदस्यों ने भी अपनी मुहर लगाई है, ने दक्षिण अफ्रीकियों तथा दुनिया भर के मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की कृतज्ञता अर्जित की थी. रंगभेद के खिलाफ दक्षिण अफ्रीका में चले लंबे संघर्ष से जुड़े दिग्गजों- अल्बर्ट लूथुली, नेल्सन और विनी मंडेला, ओलिवर टैम्बो, अहमद कथराडा, मैक महाराज, बिली नायर, वाल्टर और अल्बर्टिना सिसुलु, फातिमा मीर तथा इस स्तर के अन्य कई आंदोलनकारियों के साथ रेड्डी का नाम शायद ही कभी लिया जाता है, लेकिन वह न सिर्फ उसी हैसियत के कार्यकर्ता थे बल्कि दक्षिण अफ्रीका को घुटनों पर लाने में उन्होंने इकलौती अनूठी भूमिका निभाई थी. इस बात में कोई शंका नहीं है कि आधुनिक इतिहास में दक्षिण अफ्रीका अपने कुछ खास शासनाधीन लोगों के अधिकारों का भयंकर उल्लंघन करके उन पर सामूहिक प्रतिबंध लागू करने वाला राष्ट्र-राज्य होने का बदतरीन सबूत है. दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ एक-एक करके विश्व जनमत तैयार करने में रेड्डी ने बेहद नाजुक, कठिन और महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. यूएन की स्पेशल कमिटी अगेंस्ट अपार्थीड के प्रधान सचिव के तौर पर तथा इसके बाद यूएन सेंटर अगेंस्ट अपार्थीड के निदेशक के रूप में उन्होंने रंगभेद के खिलाफ यूएन के प्रयासों की दो दशकों से ज्यादा समय तक अगुवाई की.


अफ्रीकी मामलों से रेड्डी के जुड़ाव का बड़ा लंबा इतिहास है, जिसके साथ आने वाले वर्षों में भविष्य का कोई जीवनीकार न्याय कर सकता है. लेकिन अफ्रीकी मामलों की काउंसिल के साथ उनका जुड़ाव इस इतिहास का एक जाज्वल्यमान अध्याय है. यह एक ऐसा संगठन था, जिसको पॉल रॉब्सन और डब्ल्यू.ई.बी. डु बोइस जैसी हस्तियों ने भी अपना नाम दिया, लेकिन अमेरिकी सरकार ने इसे विध्वंसक साम्यवादी गतिविधियां चलाने वाले एक मंच के रूप में बदनाम करने की चाल चली. अन्य तमाम परिस्थितियों के साथ-साथ इस संगठन को 1953 में भंग किए जाने से रेड्डी एक ऐसा मंच खोजने की ओर उन्मुख हुए, जहां वह अपनी उपनिवेशवाद-विरोधी कार्रवाई को आगे बढ़ा सकें. इसी का नतीजा था कि वह यूनाइटेड नेशंस की ओर खिंचते चले गए, जहां भारत खुले तौर पर दुनिया के सामने दक्षिण अफ्रीका को जिम्मेवार ठहराने की कोशिश में जुटा हुआ था. यद्यपि दक्षिण अफ्रीका में प्रचंड नस्ली भेदभाव दशकों से अमल में लाया जा रहा था, लेकिन यह 1948 का साल था जब एक आधिकारिक नीति के रूप में रंगभेद को अपरिवर्तनीय और स्थायी बना दिया गया. इसके बाद विधान का ‘ग्रुप एरियाज एक्ट’ नामक जघन्य और घृणित कानून फौरन सामने आ गया. इसी साल कम्युनिस्ट पार्टी पर प्रतिबंध लगा और सविनय अवज्ञा अभियान छिड़ गया. इस अभियान के मुख्य शिल्पकार अल्बर्ट लूथुली ने—जिनको कुछ वर्षों बाद मार्टिन लूथर किंग की भांति श्रद्धेय माना गया, कहा जाए तो जीजस और गांधी से एक बराबर प्रेरणा ली. यह कहने में कोई हर्ज नहीं कि रेड्डी के विचार उग्र, तूफानी और अशांत राजनीति की इसी मटकी के अंदर ठोस और सघन हुए.


मुझे रेड्डी से मिलने का कभी सौभाग्य नहीं मिला, लेकिन 80 के दशक में स्नातक का एक छात्र होने के नाते मुझे यूएन सेंटर अगेंस्ट अपार्थीड से प्रकाशित होने वाली चीजें मिलना शुरू हो गई थीं. हालांकि रेड्डी यूएन से 80 के दशक के मध्य में ही सेवानिवृत्त हो चुके थे, लेकिन 80 के पूरे दशक के दौरान सेंटर द्वारा तैयार किए गए “नोट्स और डाक्यूमेंट्स” में उनकी छाप स्पष्ट नजर आती थी. सन्‌ 1950 से लेकर 80 के दशक तक चले रंगभेदी शासन की भयावहता का अंतरराष्ट्रीयकरण करने वाले रंगभेद-विरोधी कार्यकर्ताओं के भगीरथ प्रयास की कदर करने वाले दक्षिण अफ्रीका से बाहर आजकल बहुत ही कम मिलते हैं. वह एक ऐसा दौर था जब अमेरिका इन कार्यकर्ताओं का स्वागत करने के मामले में अक्सर शत्रुतापूर्ण रवैया अख्तियार करता था. वह इस पूर्वाग्रह से ग्रस्त था कि रंगभेद-विरोधी आंदोलन सोवियत संघ वाले खेमे में शामिल था. अमेरिका कम्युनिस्टों का खात्मा करने में देशों की मदद कर रहा था और दक्षिण अफ्रीका के अंदर निवेश करने की ताक में बैठे निगमों के मंसूबे पूरे करता था. व्यावहारिक रूप से अमेरिका दक्षिण अफ्रीका को “काले महाद्वीप” की इकलौती लाभदायक शासन-सत्ता और साम्यवाद के खिलाफ जंग में एक महत्वपूर्ण सहयोगी की नजर से देखता था. यूएन की स्पेशल कमिटी अगेंस्ट अपार्थीड की 25वीं सालगिरह पर रेड्डी ने 1988 में प्रकाशित यूएन की एक पत्रिका में लिखा भी था, “जब स्पेशल कमिटी स्थापित की गई, तो उस वक्त पश्चिम का एक भी देश ऐसा नहीं था, जिसने रंगभेदी शासन के साथ अपने हर तरह के संबंध तोड़ लेने और उससे गलबहियां करना बंद करने की मामूली गुजारिश  का समर्थन किया हो.” अन्य हर किसी के मुकाबले संभवतः रेड्डी ने दक्षिण अफ्रीका के रंगभेदी शासन के खिलाफ विश्व जनमत खड़ा करने की जिम्मेदारी कहीं ज्यादा निभाई थी. नोबल शांति पुरस्कार विजेता शॉन मैकब्राइड ने 1985 में रेड्डी के बारे में दो-टूक शब्दों में कहा था कि “यूनाइटेड नेशंस में ऐसा कोई शख्स नहीं है जिसने रंगभेदी अन्याय और दक्षिण अफ्रीकी शासन की अवैधता का भांडा फोड़ने में रेड्डी से ज्यादा काम किया हो.”


1985 में यूनाइटेड नेशंस से विदा लेने के बाद, जहां अपनी सेवानिवृत्ति के समय वह सहायक महासचिव के पद पर कार्यरत थे, रेड्डी गांधी की ओर मुड़े. कहा जाता है कि उनके माता-पिता, जिन्होंने मद्रास से लगभग 150 किलोमीटर दूर अपना घर बसा रखा था, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे. एक किस्सा यह भी सुनने को मिलता है- जैसा कि अन्य मामलों में भी होता है, जो हमेशा सच या सटीक नहीं होता कि गांधी के आवाहन पर रेड्डी की माता जी ने उनके छुआछूत के विरुद्ध चलाए जा रहे अभियान के लिए राशि जुटाने हेतु अपने गहने बेच दिए थे. भविष्य में रेड्डी के जीवनीकार बेशक इस बात पर रोशनी डालेंगे कि आखिर वह कौन-सी केंद्रीय चीज थी, जिसने रेड्डी की गांधी के व्यक्तित्व और कृतित्व में गहरी दिलचस्पी पैदा की. लेकिन यह रेखांकित किया जाना जरूरी है कि रेड्डी ने अपने सारे काम में गांधी को दक्षिण अफ्रीका में न्याय और बराबरी के संघर्ष में किए गए भारतीय योगदान के व्यापक इतिहास के दायरे में रखा है. इस परिप्रेक्ष्य में उनकी 1993 में संपादित की गई पुस्तक ‘इंडियन साउथ अफ्रीकंस इन स्ट्रगल फॉर नेशनल लिबरेशन’ का शीर्षक बड़ा ही सारगर्भित है. पुस्तक में कुख्यात ट्रीजन ट्रायल ( दिसंबर 1956-1961) के दौरान मौलवी इस्माइल अहमद चचालिया की गवाही को प्रकाश में लाने की कोशिश की गई है. यह रेड्डी का एक ऐसा प्रयास था जिसमें महज भारतीयों के योगदान को रेखांकित करने की ही कोशिश नहीं की गई थी बल्कि तमाम दमित लोगों की एकजुटता को इंगित किया गया था.


हालांकि रेड्डी की कृतियों में सबसे टिकाऊ और स्थायी महत्व वाली वह पुस्तक ही है, जिसे उन्होंने ‘गांधी एंड साउथ अफ्रीका 1914-1948’ शीर्षक से गोपाल गांधी के साथ मिलकर संपादित किया था. आश्चर्यजनक एवं विचित्र बात यह है कि दक्षिण अफ्रीका में गांधी की संलिप्तता से जुड़े अधिकांश विवरण और वर्णन आम तौर पर 18 जुलाई 1914 को गांधी के भारत प्रस्थान को उनके शुरुआती करियर के तार्किक परिणति बिंदु के रूप में दर्शाते हैं! दक्षिण अफ्रीका भारत में उनकी “असली” राजनीति की महज “पृष्ठभूमि” बन कर रह जाता है, जहां आगमन के पांच वर्षों से भी कम समय में उनको “महात्मा” की पदवी मिलने वाली थी. रेड्डी और गोपालकृष्ण गांधी के द्वारा किया गया दक्षिण अफ्रीका के बारे में गांधी के कथनों एवं लेखन का संचयन इस किस्म के दृष्टिकोण में मौजूद गंभीर अदूरदर्शिता का संकेत देता है. यह दृष्टिकोण गांधी की दक्षिण अफ्रीका में कायम मार्मिक और महत्वपूर्ण दिलचस्पी को नजरअंदाज कर देता है, जिसके तहत उनके द्वितीय पुत्र मणिलाल वहां अपना घर बसाने की कोशिशों में जुटे हुए थे. ठीक इसी तरह यह दृष्टिकोण हमें इस तथ्य को समझने नहीं देता कि दबे-कुचले लोगों की एकजुटता गांधी के विश्व-दृष्टिकोण का एक सांकेतिक हिस्सा थी. गांधी ने तो दक्षिण अफ्रीका छोड़ दिया था लेकिन दक्षिण अफ्रीका ने गांधी को कभी नहीं छोड़ा. ऐसा नहीं भी रहा हो, तब भी जैसे-जैसे आप बूढ़े होते जाते हैं, वैसे-वैसे बचपन और जवानी की यादें हिलोरें मारने लगती हैं. इस गुंजाइश के मद्देनजर यह बेहद उल्लेखनीय बात है कि गांधी की जिंदगी के अंतिम वर्षों में भी दक्षिण अफ्रीका उनके दिमाग में बसा हुआ था. एक हत्यारे की गोलियों का शिकार होने से दो दिन पहले 28 जनवरी को हुई अपनी प्रार्थना-सभा में उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में जारी संघर्ष के बारे में विस्तारपूर्वक बात की थी. अपने भाषण को समाप्त करते हुए उन्होंने कहा था- “मैं खुद दक्षिण अफ्रीका में 20 साल रहा हूं, इसीलिए कह सकता हूं कि वह मेरा देश है.”


जैसा कि रेड्डी और गोपाल गांधी की रचनावली दर्शाती है, गांधी की जिंदगी की सांध्य-वेला में दक्षिण अफ्रीका में हुए संघर्ष के दिग्गज और ट्रांसवाल इंडियन कांग्रेस तथा नाताल इंडियन कांग्रेस के अग्रणी व्यक्तित्व डॉ. यूसुफ लागू और डॉ. मोंटी नैकर उनसे मिले थे. दोनों ने मार्च व मई 1947 के बीच गांधी से कई मुलाकातें कीं और गांधी ने उनसे कहा था- “अब नारा महज ‘एशिया फॉर द एशियंस’ या ‘अफ्रीका फॉर द अफ्रीकंस’ नहीं रह गया है, बल्कि अब मसला धरती पर मौजूद तमाम दबी-कुचली नस्लों की एकजुटता का है.” मुझे यह कहना उचित जान पड़ता है कि इनुगा श्रीनिवासुलु रेड्डी अपनी पूरी जिंदगी इसी विचार से अनुप्राणित रहे. यह तथ्य कि कई संदर्भों में गांधी के आत्मीय हमसफर तथा सत्य के कठिन व कंटकाकीर्ण मार्ग के मुसाफिर भारत के इस लाल ने अपनी मातृभूमि की तरफ से भयंकर उपेक्षा झेली है, इस बात का एक और असगुन व अशुभ संकेत है कि भारत जेनोफोबिक आंचलिक संकीर्णता के रसातल में धंस चुका है.


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