खुशी की बात है कि एनडीए की केंद्र सरकार ने देश के उत्तर-पूर्वी राज्य मेघालय में पिछले 27 सालों से लागू ‘अफस्पा’ (AFSPA) अधिनियम पूरी तरह हटा लिया है. अरुणाचल प्रदेश में यह केवल आठ थाना क्षेत्रों में ही लागू रहेगा, जबकि असम में इसके प्रभाव-क्षेत्र को कम करने पर विचार हो रहा है. तत्कालीन मुख्यमंत्री माणिक सरकार द्वारा राज्य में विद्रोही गतिविधियां पूर्ण रूप से समाप्त हो जाने का दावा किए जाने के बाद 18 सालों तक लागू रहा यह अधिनियम त्रिपुरा से तीन साल पूर्व ही हटा लिया गया था.
भारत की संसद ने सशस्त्र बल विशेष शक्तियां अधिनियम (अफस्पा) 11 सितंबर 1958 को पारित किया था और पूर्वोत्तर राज्यों में बढ़ रहे अलगाववाद, हिंसा और विदेशी आक्रमणों से प्रतिरक्षा के लिए पहले पहल मणिपुर और असम में उसी साल इसे तत्काल प्रभाव से लागू कर दिया गया. साल 1972 में कुछ संशोधनों के बाद इसे समूचे उत्तर-पूर्व में आयद कर दिया गया था. अस्सी के दशक में राष्ट्रविरोधी तत्वों का खात्मा करने के लिए इंदिरा सरकार ने पंजाब में भी इस अधिनियम के तहत सेना को विशेष अधिकार दिए थे और काम पूरा होने पर उन्हें वापस ले लिया गया था. लेकिन नब्बे के दशक में जब कश्मीर घाटी अशांत हुई तो लद्दाख क्षेत्र को छोड़ जम्मू-कश्मीर में जुलाई 1990 से लागू किया गया यह अधिनियम अभी तक जारी ही है.
अफस्पा एक ऐसा अद्वितीय सैन्य अधिनियम है, जिसे देश के अशांत (डिस्टर्ब्ड) क्षेत्रों में ही लागू किया जाता है. इस अधिनियम की धारा 3 के अंतर्गत केंद्र सरकार किसी क्षेत्र को अशांत घोषित करती है, हालांकि राज्य सरकार की भी इसमें थोड़ी-बहुत भूमिका होती है. विभिन्न धार्मिक, नस्लीय, भाषाई, जातीय, इथनिक समुदायों के बीच संघर्ष से उपजे माहौल के चलते राज्य सरकार की राय लेकर केंद्र सरकार क्षेत्र विशेष को अशांत घोषित कर सकती है, जिसके बाद उस क्षेत्र में अधिनियम की धारा 4 के तहत सेना को बिना किसी वारंट के लोगों को गिरफ्तार करने, संदिग्ध वाहनों की जांच करने और सिर्फ शक की बिना पर उग्रवादियों के ठिकाने नष्ट करने के लिए बमबारी करने का अधिकार मिला जाता है. इस धारा के दम पर कोई भी सैन्य अधिकारी बिना ठोस कारण जाने ही सामने वाले की मृत्यु होने तक गोलीबारी कर सकता है.
यहीं से इस अधिनियम का दुरुपयोग होने की संभावना शुरू होती है. आखिरकार हमारे समर्पित सैन्य अधिकारी भी शूरवीर और देशभक्त होने के बावजूद हैं तो मिट्टी के पुतले ही ! इस अधिनियम में मिले अभयदान के चलते उनसे भी गलतियां हो सकती हैं. इसीलिए मणिपुर की मानवाधिकार कार्यकर्ता इरोम शर्मिला ने इस कानून के खिलाफ लगातार 16 सालों तक भूख हड़ताल की. 2 नवंबर, 2000 को मणिपुर की राजधानी इम्फाल के मालोम में असम राइफल्स के जवानों द्वारा 10 बेगुनाह लोगों के मारे जाने के दो दिन बाद ही इरोम आमरण अनशन पर बैठ गई थीं. परिणामस्वरूप यूपीए सरकार ने कलेजा सख्त करके 2004 में मात्र इम्फाल नगर निगम क्षेत्र से अफस्पा हटाया था, जबकि इरोम की मांग समूचे उत्तर-पूर्व समेत जम्मू-कश्मीर से भी इस अधिनियम को विदा कर देने की थी, जो आज तक पूरी नहीं हुई.
घाटी के नागरिकों पर सेना द्वारा की जा रही ज्यादतियों का हवाला देकर जम्मू-कश्मीर से अफस्पा हटाने की मांग समय-समय पर उठती रही है. यह मांग उठाने वालों में मानवाधिकार कार्यकर्ता, अलगाववादी और विपक्ष में पहुंच जाने वाले राजनीतिक दल शामिल रहते हैं. यहां तक कि अब तो राज्य की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती और बीजेपी के साथ सत्ता में भागीदार पीडीपी भी कुछ हिस्सों से इसे हटाने पर सहमत हैं. लेकिन जम्मू-कश्मीर के किसी भी हिस्से से अफस्पा हटाने के बारे में फिलहाल दिल्ली सोच भी नहीं रही है. स्पष्ट है कि केंद्र सरकार पूरे जम्मू-कश्मीर को अशांत (डिस्टर्ब्ड) क्षेत्र मान कर चल रही है. रक्षा विशेषज्ञ भी कहते हैं कि चूंकि कश्मीर को लेकर पाकिस्तान की नीति अब भी नहीं बदली है और घाटी में अलगाववादी गतिविधियां बदस्तूर जारी हैं, ऐसे में अफस्पा हटाना राष्ट्र की संप्रभुता के लिए गंभीर खतरा साबित हो सकता है.
यह सच है कि यह अधिनियम भारतीय सशस्त्र बलों के लिए एक सुरक्षा कवच का काम करता है. क्रूर और निर्घृण आतंकवादी गतिविधियों के चलते हमारे सैनिक बल पहले ही असंख्य जाबांज अधिकारी और जवान खो चुके हैं. लेकिन जिन क्षेत्रों से उग्रवादी अपना बोरिया-बिस्तर समेट चुके हैं, वहां से अफस्पा को विदा कर देने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए. ह्यूमन राइट्स वॉच इस अधिनियम की आलोचना कर चुका है और 31 मार्च, 2012 को संयुक्त राष्ट्र संघ ने भारत से कहा था कि भारतीय लोकतंत्र में अफस्पा का कोई स्थान नहीं होना चाहिए. साल 2016 में सुप्रीम कोर्ट ने भी अपने एक फैसले में साफ किया था कि अफस्पा के तहत यह मानना कि सुरक्षा बलों को कुछ भी करने का अधिकार है, इस कानून की गलत व्याख्या है.
यह भी सच है कि अफस्पा के पीछे राजनीतिक नफा-नुकसान की दृष्टि काम करती है. उग्रवाद समाप्त होने के बावजूद असम सरकार ने इसी साल चुनाव से पहले पूरे राज्य को अशांत क्षेत्र घोषित कर दिया था जिसके बाद राज्य के सभी जिले इस अधिनियम की चपेट में आ गए. मेघालय में विद्रोही गतिविधियों पर सालों पहले काबू पा लिया गया था लेकिन अफस्पा अब जाकर हटाया जा रहा है. जम्मू-कश्मीर के कई जिलों में स्थिति अब सामान्य है लेकिन वहां इस अधिनियम को हटाने की दूर-दूर तक कोई संभावना नजर नहीं आती.
हमें ध्यान रखना चाहिए कि भारत में सबसे पहले अंग्रेज सरकार ने भारत छोड़ो आंदोलन को कुचलने के लिए 1942 में अफस्पा को एक अध्यादेश के जरिए लागू किया था. अब भारत में लोकतांत्रिक सरकारें काम-काज चलाती हैं. साल 2005 में जीवन रेड्डी कमेटी और वर्मा कमेटी ने अपनी रिपोर्टों में इस अधिनियम के दुरुपयोग को लेकर सेना और सुरक्षा बलों पर काफी गंभीर आरोप लगाए थे. इसी साल जनवरी में जम्मू-कश्मीर के शोपियां में सुरक्षा बलों की गोलियों से तीन नागरिकों की मौत हो गई, जो सुप्रीम कोर्ट के 2016 में दिए गए दिशा-निर्देशों का साफ उल्लंघन था.
समय की मांग और जरूरत है कि डिस्टर्ब क्षेत्रों की समीक्षा करके बिना किसी राजनीतिक लोभ-लाभ की परवाह किए नागरिकों के हित में स्थान विशेष के संदर्भ में अफस्पा हटाने को लेकर पुनर्विचार किया जाए. केंद्र सरकार के माध्यम से मेघालय से अफस्पा का पूरी तरह हटाया जाना इस दिशा में एक स्वागत योग्य कदम है.
(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)