तो अब तय हुआ है कि मुलायम सिंह यादव अलग से उम्मीदवार नहीं उतारेंगे और न खुद अखिलेश यादव को ललकारेंगे. तय हुआ है कि पिता के उम्मीदवारों की सूची का आदर बेटा करेगा यानि सूची में शामिल सभी नेताओं को टिकट दे दिया जायेगा. यह भी सुनने में आ रहा है कि उन चार बर्खास्त मंत्रियों को भी टिकट दिया जायेगा जिन पर अखिलेश यादव की गाज गिरी थी. अब जब यह सब होना ही था था तो फिर यह सारी माथाफोड़ी क्यों की गयी. सारा नाटक क्यों किया गया. कुछ कह रहे हैं कि सारा नाटक रचा गया. नुक्कड़ों पर चर्चा है कि पिता ने बेटे को वारिस बनाने के लिए तमात दुश्मनों को एक ही वार से खेत कर दिया.


चाचा शिवपाल से लेकर अंकल अमरसिंह तक को ठिकाने लगा दिया. अखिलेश की छवि अचानक पाकसाफ हो गयी. भ्रष्टाचार के तमाम आरोप शिवपाल के सर मढ़ दिए गये. दलाली के आरोप अमर सिंह की पीठ पर लाद दिए गये. साढ़े चार मुख्यमंत्री वाले राज्य में चारों चारों खाने चित हुए और आधा नेता टीपू सुल्तान बन गया. अब अखिलेश की छवि एक ऐसे ट्रेनी मुख्यमंत्री की है जो चाचा और पिता से जूझता रहा लेकिन विकास के काम करवाता रहा. एक ऐसा मुख्यमंत्री जो युवा और महिलाओं में लोकप्रिय है. एक ऐसा मुख्यमंत्री जो कुछ करना चाहता है और कुछ करने का माद्दा भी रखता है. लेकिन बड़ा सवाल यही कि इतना सब होने के बावजूद क्या अखिलेश यादव एक बार फिर से मुख्यमंत्री बन पाएंगे....क्या कांग्रेस और अजीत सिंह के दल आरएलडी के साथ का गठबंधन बिहार जैसे महागठबंधन की शक्ल ले सकेगा....... क्या मुस्लिम मतदाता अब आंख मूंद कर इस गठबंधन में यकीन करने लगेगा.


अब भी जिंदा है जाति


इन सभी सवालों के जवाब बता पाना बहुत मुश्किल है. लेकिन इतना जरूर कहा जा सकता है कि तीन महीन पहले अखिलेश कहीं रेस में भी नहीं दिखाई दे रहे थे तब मायावती आगे चल रही थी लेकिन अब दो ही दलों के दो ही नेताओं की बात हो रही है. अखिलेश यादव बनाम नरेन्द्र मोदी होने लगा है सारा चुनाव. हालांकि यहां एक वर्ग का यह भी मानना है कि मायावती का वोटर आमतौर पर शांत रहता है और उसकी खामोशी दोनों खेमों को उखाड़ सकने की ताकत रखती है. चलो एक बार मान लिया जाए कि मुकाबला अखिलेश और मोदी के बीच होगा तो क्या यह भी मान लिया जाए कि दोनों की तरफ से किए गये काम क्या वोट का आधार बनेंगे. पिछले दिनों पश्चिमी यूपी के दौरे से तो ऐसा लगता नहीं. पूरा चुनाव जात पर लड़ा जाएगा ऐसा आभास साफ साफ हो रहा है. आप नाम मत पूछिए. आप जात पूछिए तो आप को अंदाज हो जाएगा कि जात के हिसाब से वोट देने की परंपरा इस बार भी निभाई जाएगी.


राजनीति में दो और दो चार भी होते हैं और पांच भी होते हैं. कभी कभी छह भी होते हैं. बिहार में महागठबंधन बना तो उसने दो और दो को छह कर दिया था. यूपी में क्या हो सकेगा. क्या हमें प्रियंका गांधी और डिंपल यादव एक मंच पर एक दूसरे दल को वोट देने की अपील करते दिखाई देंगी. क्या हमें एक ही मंच पर अखिलेश यादव, राहुल गांधी और जयंत भाषण देते दिखाई देंगे. इससे भी बड़ी बात कि क्या हमें मुलायम सिंह और अखिलेश यादव एक ही मंच पर नजर आएंगे या मुलायम सिंह अलग से भी अखिलेश को वोट देने की अपील करते नजर आएंगे.


क्या है गणित?


अगर ऐसा होता है तो बीजेपी और बीएसपी की नींद उड़नी तय है लेकिन अगर गठबंधन सिर्फ कागजी होता है...अगर पिछली बार के चुनाव के हिसाब से सपा तीस फीसद, कांग्रेस 12 फीसद और आरएलडी दो प्रतिशत का जोड़ सामने रख दिया जाता है तो दो और दो चार हो जाएं ऐसा होना जरुरी नहीं होगा. गठबंधन का अर्थमेटिक होता है लेकिन उससे ज्यादा बड़ी कैमेस्ट्री होती है. जब यह कैमेस्ट्री गठबंधनों के धड़ों के साथ साथ जनता से भी जुड़ जाती है तो हमें बिहार जैसे नतीजे दिखते हैं जहां महागठबंधन लगभग तीन चौथाई बहुमत हथियाने में कामयाब हुआ था. यूपी में तीस फीसद वोट पर लोग सत्ता पाते रहे हैं. इस हिसाब से देखा जाए तो बीजेपी कागजों में सबसे अच्छी स्थिति में है. उसके पास पिछले लोकसभा चुनावों में 43 फीसद वोट थे. अब अगर इसमें से दस फीसद भी साथ छोड़ गये तो भी उसे आराम से चुनाव निकाल लेना चाहिए. लेकिन बीजेपी को भी पता है कि राजनीति में दो और दो हमेशा चार नहीं होते.


अभी तक के सर्वे यूपी में त्रिशंकु विधानसभा के गठन की बात कर रहे हैं जहां बीजेपी सबसे बड़े दल के रुप में उभर सकती है. यह सर्वे तब किए गये थे जब मुलायम खेमे में झगड़ा उबाल पर था. सवाल उठता है कि अब जब सब करीब करीब साफ हो गया है तो इससे बीजेपी का नफा नुकसान क्या रहने वाला है.


क्या है जातिय समीकरण?


एबीपी न्यूज सीएसडीएस का सर्वे बताता है कि मुलायम के दल में फूट पड़ने की सूरत में बीजेपी को फायदा होगा. लेकिन यहां फूट तो पड़ी है लेकिन दोनों अलग अलग चुनाव मैदान में उतर नहीं रहे हैं लिहाजा बीजेपी को संभावित लाभ मिलने में दिक्कत भी आ सकती है. बीजेपी ने अपनी पहली सूची में गैर यादव ओबीसी और गैर जाटव दलित वोटों का ज्यादा ध्यान रखा है. एक भी मुसलमान को टिकट नहीं देकर भी अपने इरादा साफ कर दिये हैं . उसे यकीन है कि मायावती के सौ मुस्लिम उम्मीदवार उसका काम आसान करेंगे. लेकिन उसे डर है कि अगर संभावित गठबंधन पर मुस्लिम यकीन करने लगा तो मायावती की सोशल इंजिनियरिंग तो पूरी तरह से पिटेगी ही साथ ही बीजेपी का कमल भी मुरझा जाएगा. हां , अगर मोदी का जादू चला, नोटबंदी का सकारात्मक असर हुआ, मुस्लिम वोट बंटा, गैर यादव ओबीसी और गैर जाटव दलितों को तोड़ने में बीजेपी कामयाब हुई तो यूपी में कमल खिल सकता है. बड़ा सवाल यही है कि क्या इतने सारे अगर मगर के साथ चुनाव जीता जा सकता है. अन्य जगह का तो पता नहीं लेकिन यूपी में शायद जीता भी जा सकता है.