अब के जो फैसला होगा वो यहीं पर होगा, हमसे अब दूसरी हिजरत नहीं होने वाली....
आज से 27 साल पहले राहत इंदौरी ने जब दिल्ली के लाल किले के सालाना मुशायरे में ये शेर पढ़ा था महफिल दाद-व-तहसीन के वाह वाह के साथ तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठी. 50 से 60 हज़ार का मजमा इस्तकबाल और एहतराम में खड़ा हो गया. दरअसल, उन्होंने अपनी शायरी से ये बताया कि वतन परस्ती क्या होती है, कौमों का दर्द क्या है और उसको लेकर उनका फैसला क्या है. उनके इस शेर ने उन्हें न सिर्फ एक शायर की हैसियत से मारुफ किया बल्कि एक ऐसे अवामी शायर के तौर पर शोहरत बख्शी, जिनके अशार में न सिर्फ ज़माने का दर्द-व-कर्ब है, बल्कि सच का एलान भी है.
राहत इंदौरी की शायरी का मौज़ू सिर्फ वतन परस्ती या देश से मुहब्बत तक ही महदूद नहीं रहा. बल्कि उन्होंने हर तरह की शायरी की. इंसान दोस्ती के मौज़ू पर भी खूब शेर कहे. उनका कलाम एक ऐसे इंसान की शायरी है, जो अपने सीने में धड़कता हुआ ऐसा दिल रखता है, जिसमें ज़माने का दर्द-व-मुहब्बत मिलकर सिमटा हुआ है. इसीलिए तमाम-तर रुकावटों के बीच उन्होंने शम-ए-इंसानियत को रोशन रखा.
हम से पहले भी मुसाफ़िर कई गुज़रे होंगे कम से कम राह के पत्थर तो हटाते जाते
सदियों के साझा सफर पर उनकी गहरी नज़र थी. हां! ये बात सही है कि इस सफर में ऐसे कई पड़ाव दिखते हैं, जहां मुहब्बत की जगह नफरतें अपने हाथों में सत्ता थामें हुए दिखती हैं. लेकिन मुद्दतों की इस लंबी यात्रा में ऐसी साझी विरासतों की बुनियाद पड़ी कि हर तरफ कई साझी परम्पराएं, रिवायतें उठ खड़ी हुईं, जो अब दो जिस्म एक जान बन गईं हैं. जिसे अलग करना मुहाल है. तभी तो राहत इंदौरी कहते हैं:
लगेगी आग तो आएंगे घर कई ज़द में यहां पे सिर्फ़ हमारा मकान थोड़ी है
उनकी शायरी में ग़म-ए-जानां के साथ ग़म-ए-दौरां भी है. वो मुहब्ब्तों के भी शायर हैं. वो इश्क और हुस्न के भी कायल हैं, लेकिन इंदौरी साहब इश्क में खोने की बजाए इश्क के वकार को गिरने नहीं देते.
उस की याद आई है सांसो ज़रा आहिस्ता चलो धड़कनों से भी इबादत में ख़लल पड़ता है ये ज़रूरी है कि आंखों का भरम क़ाएम रहे नींद रक्खो या न रक्खो ख़्वाब मेयारी रखो
राहत साहब की शायरी में कद्रों का एहसास है. वो किसी भी कीमत पर पुराने मूल्यों को गिरने नहीं देना चाहते. उनकी शायरी में उसे बचाने की शिद्दत दिखती है.
मिरी ख़्वाहिश है कि आंगन में न दीवार उठे मिरे भाई मिरे हिस्से की ज़मीं तू रख ले
उनकी शायरी में बीते हुए वक्त का दर्द है. मौजूदा वक्त की बेबसी का एहसास है, लेकिन वो आने वाले वक्त को लेकर पुर्उम्मीद नज़र आते हैं.
झुलस रहे हैं यहां छाव बांटने वाले वो धूप है कि शजर इल्तेजाएं करने लगे
भारत हो या पाकिस्तान, अरब देश हों या पश्चिमी देश अमेरिका, यूरोप, जहां-जहां भी हिंदी-उर्दू से प्यार करने वाले आबाद हैं, उनकी रूह में अपने देश की मिट्टी की सोंधी खुशबू की तड़प है, उन देशों की महफिलों में राहत इंदौरी के अशार गूंजते हैं.
हम अपनी जान के दुश्मन को अपनी जान कहते हैं मोहब्बत की इसी मिट्टी को हिंदुस्तान कहते हैं