दिल्ली विधानसभा चुनावों के लिए प्रचार तेजी पर है. सर्वों में अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी को बहुत आगे बताया जा रहा है. लेकिन केजरीवाल या तो उतने आत्मविश्वास में नजर नहीं आते या फिर कोई जोखिम उठाने को तैयार नहीं दिखते. जानकारों का कहना है कि दिल्ली में वोटर छह महीने आठ महीने पहले अपनी राय नहीं बनाता है. दिल्ली का वोटर अंतिम समय में पलट जाने के लिए चर्चित रहा है . जिस किसी को पिछला यानि 2015 का विधानसभा चुनाव याद है वह इस बात को अच्छी तरह से समझता है. तब खुद केजरीवाल ने भी उम्मीद नहीं की थी कि आप को 70 में से 67 सीटें मिल जायेंगी


2015 आमतौर पर मुकाबला बीजेपी और आप के बीच तगड़ा माना जा रहा था, जो आखिरी दिनों में आप के पक्ष में कुछ कुछ झुकाव लेते दिख रहा था. लेकिन नतीजे इस कदर एकतरफा आएंगे ऐसा तो शायद ही किसी ने सोचा होगा. तब मैं भी दिल्ली बहुत घूमा था और मुझे लगता था कि बहुत हुआ तो आप को पचास सीटें मिल पाएंगी. इससे ज्यादा तो कतई नहीं. लेकिन कांग्रेस वोटर ने आखिरी वक्त में गोता लगाया था और केजरीवाल की झोली भर दी थी. इस बार भी क्या ऐसा ही होता दिख रहा है .


बीजेपी-कांग्रेस को नहीं मिल रहा फ्री बिजली और पानी का तोड़


पांच साल में बड़ा फर्क आया है. केजरीवाल एक्टीविस्ट से पोलिटिश्यन बन गये हैं. उनके नजदीक के लोगों का कहना है कि अब वो एंग्री यंग मैन नहीं रहे. केजरीवाल ने अपने वोट बैंक को पुख्ता करने का काम किया है. मुफ्त बिजली मुफ्त पानी का तोड़ बीजेपी और कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय पार्टियों को मिल नहीं रहा है. अरविंद सिर्फ दिल्ली तक सीमित हैं इसलिए वह तो मुफ्त पानी बिजली दे सकते हैं लेकिन बीजेपी और कांग्रेस अगर दिल्ली में ऐसा वायदा करती हैं तो उन्हें उन राज्यों में भी ऐसा ही करना पड़ेगा जहां वह सत्ता में हैं. मसलन अब यूपी में बीजेपी की सरकार है और वहां बीजेपी कैसे मुफ्त पानी बिजली दे सकती है. ऐसा ही कुछ कांग्रेस कैसे राजस्थान में कर सकती है. बीजेपी ने चालीस लाख को मालिकाना हक देने के वायदे पर सारी उम्मीदे रखी हुयी हैं. इसका असर कच्ची बस्तियों में दिखता भी है. कहीं कहीं ऐसा वोटर मोदी के गुण गाते नजर आता है. लेकिन कुछ जगह इस वायदे के पूरा होने पर शंका जाहिर करता है. क्योंकि 70 सालों से सभी दल ऐसा ही वायदा करते आ रहे हैं और कभी किसी ने पूरा नहीं किया. कुछ जगह कच्ची बस्तियों में लोगों का कहना था कि वहां पानी बिजली सड़क का काम तो आम आदमी पार्टी ने किया और श्रेय बीजेपी ले जाना चाहती है.


बीजेपी के साथ सबसे बड़ी दिक्कत यही है कि 10 सालों से यहां एमसीडी में बीजेपी का कब्जा है. नाली, सड़क, कचरा, रोड लाइट जैसी बुनियादी बातों के लिए एमसीडी जिम्मेदार मानी जाती है और लोग काम से निराश ही दिखाई देते हैं. इसका तोड़ बीजेपी निकाल नहीं पाई है, उल्टे उसने बहुत से पार्षदों को विधानसभा चुनाव के टिकट थमा दिये हैं. इसी गफलत के दौर से आप भी गुजर रही है. बहुत सी जगह लोग केजरीवाल की तारीफ तो करते दिखते हैं लेकिन स्थानीय आप विधायक के प्रति नाराजगी व्यक्त करने में देर नहीं लगाते. कुछ जगह भ्रष्टाचार की बात करते हैं तो कुछ जगह कामचोरी की. कुछ विधायकों पर पैसा खाने के आरोप भी लगे हैं तो कुछ पर उपेक्ष करने के. ऐसे 15 विधायकों के टिकट काटे गए हैं. 24 नए चेहरों पर दांव लगाया गया है. यानि केजरीवाल कोई मौका नहीं छोड़ना चाहते और साथ ही कोई जोखिम भी नहीं उठाना चाहते.


दिल्ली के वोटर की पसंद


पानी बिजली के बिल से मुक्त दिल्ली का वोटर ऐसा नहीं है कि बीजेपी के खिलाफ है. लोग कहते हैं कि दिल्ली में कुतुबमीनार जैसा कद या प्रधानमंत्री मोदी का है या फिर मुख्यमंत्री केजरीवाल का . मोदीजी ने देश के लिए बहुत कुछ किया है, देश का नाम दुनिया में रोशन किया है ऐसा बहुत से लोग कहते मिल जायेंगे. लेकिन दिल्ली विधानसभा चुनाव में वोट की बात आती है तो आमतौर पर झुकाव आप की तरफ दिखता है. लोकसभा चुनावों में आप को छोड़ कर बीजेपी के साथ जा चुके लोगों का कहना है कि विधानसभा में आप के साथ जाएंगे और लोकसभा में मोदी के साथ. यह बात भी केजरीवाल के पक्ष में जाती दिखती है और उधर बीजेपी के सामने नए तरह का सकंट खड़ा करती है.


आखिर क्यों बीजेपी ऐसा स्थानीय कद्दावर नेता तैयार नहीं कर पा रही है, जो दिल्ली में पहले शीला दिक्षित और अब केजरीवाल से टक्कर ले सकें. बीजेपी 1998 में सत्ता से हटी थी और 22 साल का वनवास हो गया है. इस बीच मदनलाल खुराना से लेकर सुषमा स्वराज का दौर खत्म हुआ. डा हर्षवर्धन पर बीजेपी कभी खुलकर दांव नहीं लगा पाई. हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि 2013 में डा हर्षवर्धन ने ही बीजेपी को 31 सीटें दिलवाई थी. उसके बाद कभी किरण बेदी को आजमाया गया तो कभी पुरबिया वोट के लालच में मनोज तिवारी को कमान सौंपी गई. लेकिन कोई प्रयोग सफल नहीं हुआ .


दिल्ली चुनाव जे पी नड्डा की पहली परीक्षा


खैर , नए अध्यक्ष जे पी नड्डा को नतीजों के बाद इस पर भी सोचना होगा. कहा जा रहा है कि दिल्ली उनके लिए चुनौती है. टिकट बंट चुके हैं, सामूहिक नेतृत्व की रणनीति तय हो चुकी है, पांच हजार सभाएं करने पर सहमति हो चुकी है. अब इसके बाद जे पी नडडा के लिए करने को कुछ खास नहीं बचता है. ज्यादा से ज्यादा वह अपने मीठे स्वभाव से नाराज कार्यकर्ता को मनाने का, घर से निकलने का माहौल बना सकते हैं. नड्डा बिहार के मूल रुप से हैं. जाहिर है कि इस रिश्ते का इस्तेमाल पुरबिया वोटरों के लिए हो सकता है. लेकिन जहां पूरा चुनाव मोदी के चेहरे और शाह की रणनीति पर लड़ा जा रहा हो वहां नड्डा के लिए खास गुंजदायश बचती नहीं है.


जेएनयू और शाहीन बाग से बनाई दूरी


उधर केजरीवाल का सारा ध्यान अपने काम और सिर्फ काम पर है. काम में इतना मसरूफ हैं कि न तो जामिया जाने का समय निकाल पाए और न ही जेएनयू. शाहीन बाग को तो भूल ही गये हैं. यह सब भी हिंदू भाइयों को ध्यान में रख कर किया जा रहा है. केजरीवाल को लगता है कि मुस्लिम के पास कांग्रेस के अलावा कोई विकल्प नहीं है और हिंदू को साथ रखना जरुरी है. हालांकि कुछ जानकारों का कहना है कि शाहीन बाग की उपेक्षा केजरीवाल को मुस्लिम बहुल सीटों में परेशानी में भी डाल सकती है. खासतौर से ऐसी सीटों पर जहां के स्थानीय आप विधायक से जनता वैसे भी खुश नहीं है.


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