BLOG: विधानसभा चुनाव 2018- बीजेपी के लिए सबसे कमजोर कड़ी दिख रहा है राजस्थान
राजस्थान में राजधानी जयपुर से लेकर गांव-ढाणियों तक चुनाव की तैयारियां और चर्चाएं शुरू हो चुकी हैं. मारवाड़, मेवाड़, ढूंढ़ाड़, हाड़ौती, शेखावटी यानी हर क्षेत्र में चुनावी सरगर्मी तेज हो गई है. इस गहमागहमी के बीच राज्य में एक ही दिन 7 दिसंबर को होने जा रहे विधानसभा चुनावों को लेकर कांग्रेस के अभी से फूले नहीं समाने के कई कारण हैं. एक तो राज्य में हर पांच साल में सरकार बदल जाने का अमल अबकी कांग्रेस के पक्ष में जा रहा है, दूसरे पीसी जोशी, अशोक गहलोत और सचिन पायलट जैसे कांग्रेसी धुरंधरों की स्थानीय गुटबाजी चरम पर नहीं है, और सबसे अहम बात यह है कि तमाम प्रतिष्ठित चुनाव-सर्वेक्षण कांग्रेस को स्पष्ट बहुमत मिलने के आंकड़े प्रस्तुत कर रहे हैं. राजस्थान में विधानसभा की कुल 200 सीटें हैं और वहां बहुमत का आंकड़ा 101 सीटों का है.
गुटबाजी और आपसी कलह के लिए देश के हर अंचल में कुख्यात कांग्रेस पार्टी राजस्थान में एकजुटता की मिसालें पेश कर रही है. करौली में कांग्रेस की संकल्प रैली के दौरान लम्बा जाम लग गया, तो प्रदेश अध्यक्ष सचिन पायलट एक कार्यकर्ता की मोटरसाइकिल लेकर पूर्व मुख्यमंत्री और वरिष्ठ कांग्रेसी दिग्गज अशोक गहलोत को अपने पीछे बैठाकर रैलीस्थल पर पहुंचे. कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने सागवाड़ा की रैली में दोनों नेताओं की इस दोस्ती का बखान भी किया. अक्सर देखा जा रहा है कि कांग्रेस की रैलियों में शामिल होने के लिए एक ही बस में सवार होकर रैली में उठाए जाने वाले मुद्दों पर चर्चा करते हुए प्रदेश प्रभारी अविनाश पांडे, सीपी जोशी, अशोक गहलोत, भंवर जीतेंद्र सिंह, मोहन प्रकाश और सचिन पायलट एक साथ रैली स्थलों पर पहुंचते हैं.
इसके उलट खुद को पार्टी विथ डिफरेंस और अनुशासन का प्रतिमान कहने वाली बीजेपी में आपसी गुटबाजी और भितरघात चरम पर है. बता दें कि राजस्थान में बीजेपी प्रदेशाध्यक्ष पद के लिए पार्टी आलाकमान ने जोधपुर से सांसद और केंद्रीय मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत का नाम तय कर दिया था. लेकिन मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने शेखावत के नाम पर वीटो कर दिया और अपने गुट के नेताओं से लामबंदी भी कराई. अगले कदम में शाह ने शेखावत को प्रदेशाध्यक्ष न बनवा पाने की भरपाई उनको प्रचार समिति का अध्यक्ष बनवा कर ली. अब वहां बीजेपी के एक प्रचार अभियान का नेतृत्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे अपनी यात्राओं के माध्यम से कर रही हैं, तो दूसरे की कमान स्वयं अमित शाह ने संभाल रखी है.
अभी जयपुर, जोधपुर, उदयपुर और कोटा संभाग में पार्टी के बूथ स्तर के कार्यकर्ताओं और समाज के विभिन्न वर्गों से हुई मुलाकात में अमित शाह ने मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के बजाए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कामकाज के नाम पर वोट मांगा. अमित शाह के इन कार्यक्रमों में बीजेपी महासचिव ओम माथुर और गजेंद्र सिंह शेखावत तो दिखे लेकिन वसुंधरा एक बार भी शामिल नहीं हुईं. शेखावत की तरह ओम माथुर को भी राजे का विरोधी माना जाता है. बीजेपी के गढ़ हाड़ौती क्षेत्र के कोटा में पूर्व मंत्री और विधायक प्रताप सिंह सिंघवी ने बीजेपी के कद्दावर नेता और सांसद ओम बिरला के खिलाफ एक ट्वीट कर दिया. इसी संभाग के बीजेपी विधायक प्रहलाद गुंजल और चंद्रकांता मेघवाल में भी ठनी हुई है.
अजमेर संभाग से पार्टी के दो बड़े नेता और मंत्री वासुदेव देवनानी और अनीता भदेल एक दूसरे के विरोध में जुटे हुए हैं. उदयपुर संभाग में पार्टी का सबसे बड़ा धड़ा गृहमंत्री गुलाब चंद कटारिया का है. कटारिया के धुर विरोधी माने जाने वाले निर्दलीय विधायक रणधीर सिंह भिंडर वसुंधरा के चहेते बने हुए हैं. इस बेलगाम होती गुटबाजी का ही नतीजा है कि हिंदी पट्टी के तीन बड़े राज्यों में होने जा रहे विधानसभा चुनावों में बीजेपी के लिए राजस्थान सबसे कमजोर कड़ी साबित हो रहा है.
राजस्थान में 2013 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने 163 सीटों पर जीत दर्ज की थी और कांग्रेस मात्र 21 सीटों पर सिमट गई थी. सूबे में लोकसभा की सभी 25 सीटों पर भी बीजेपी का ही कब्जा है. लेकिन पिछले दिनों अलवर व अजमेर की लोकसभा और मांडलगढ़ विधानसभा उपचुनाव में मिली जीत ने कांग्रेस में नई जान फूंक दी थी. बीजेपी के लिए चुनाव के ऐन पहले तगड़े झटके वाली बात यह भी है कि राजस्थान के मारवाड़ क्षेत्र में गहरा प्रभाव रखने वाले बीजेपी के संस्थापक सदस्य और पूर्व विदेश मंत्री जसवंत सिंह के बेटे मानवेंद्र सिंह और उनकी बहू चित्रा सिंह कांग्रेस में शामिल हो गए हैं. शिव विधानसभा क्षेत्र से बीजेपी विधायक मानवेंद्र ने गत 22 सितम्बर को पचपदरा स्वाभिमान रैली के दौरान ‘कमल का फूल, मेरी भूल’ कहते हुए बीजेपी को अलविदा कह दिया था. मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे आज भी तुरुप का इक्का बनी हुई हैं. अपनी 4 अगस्त को मेवाड़ से शुरू होकर पूरे राजस्थान में 58 दिन चली गौरव यात्रा के दौरान जब वे बस की छत पर आती थीं, तो उन्हें देखने के लिए भीड़ उमड़ पड़ती थी. वसुंधरा के लिए कहा जाता है कि चुनावों के दौरान वे किसी इलाके में राजपूत होती हैं, यानी पूर्व राजमाता विजया राजे सिंधिया की बेटी तो किसी इलाके में जाट यानी अपने धौलपुर ससुराल की बहू. तो फिर किसी इलाके में वे अपने बेटे की पत्नी से रिश्ता जोड़ते हुए गुर्जर हो जाती हैं.
अंग्रेजी मीडिया या तोप लोगों से बात करते हुए वे ‘एलीट क्लास' में होती हैं तो प्रचार के दौरान आम महिला से जुड़ी हुई और अभिवादन में राम-राम करती हुईं एक आम महिला बन जाती हैं. वह दिल्ली और लंदन के पांच सितारा होटलों से लेकर धौलपुर या जोधपुर की किसी ढाणी में चारपाई पर आराम से बैठ जाती हैं और आदिवासियों की पोशाक भी उतने ही अंदाज से पहनती हैं जितनी कि जोधपुरी बंधेज या फिर कोई डिजायनर साड़ी. महिला मतदाताओं में उनका आज भी जबर्दस्त क्रेज है. लेकिन स्थानीय निकाय और पंचायती राज संस्थाओं के उपचुनावों में जिस तरह से कांग्रेस ने लीक से हटकर राजपूत-ब्राह्मण कार्ड खेला और अब ब्राह्मण, राजपूत और दलितों की नाराजगी को हवा देकर विधानसभा में राजनीतिक लाभ लेना चाहती है, उससे वसुंधरा का यह जादू फीका पड़ सकता है. ओबीसी आरक्षण में आरक्षण देने की राजपूत समाज की मांग और विरोध राजपूतानी वसुंधरा को मंहगा भी पड़ सकता है.
हर राज्य की तरह राजस्थान में भी बीजेपी ने अपने चुनाव अभियान को 'मिशन 180' नाम दिया है, और आज भी वह राम मंदिर, राजपूताना के गौरव, हिंदुत्व, गोहत्या, लव-जिहाद जैसे भावनात्मक मुद्दों को हथियार बना कर चल रही है. उधर दलितों, गूजरों और जाटों के आरक्षण आंदोलन में झुलस चुके राजस्थान में अब एट्रोसिटी एक्ट के मुद्दे पर राजपूत और ब्राह्मण लामबंद हो रहे हैं. फसल के सही दाम नहीं मिलने और कर्ज के कारण हो रही आत्महत्याओं के मामलों को लेकर किसानों और स्थायित्व व वेतनमान को लेकर चिकित्सकों के आंदोलनों ने राजे सरकार की नाक में दम कर रखा है. जाट बहुल 21 विधानसभा सीटों और सीपीएम, बीएसपी और निर्दलीय उम्मीदवारों के प्रभाव वाले शेखावटी इलाके में बीजेपी का दामन छोड़ चुके घनश्याम तिवाड़ी, राजपा के प्रदेश अध्यक्ष नवीन पिलानिया और निर्दलीय विधायक हनुमान बेनीवाल मिलकर तीसरा मोर्चा बनाने में जुटे हैं.
महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि 2018 के विधानसभा चुनाव के लिए राज्य में 67.53 लाख नए मतदाता जुड़े हैं. वसुंधरा ने 2013 के चुनाव से पहले 15 लाख नए रोजगार सृजित करने का जो दावा किया था वह आज भी अधर में है. उद्योगों से छंटनी जारी है. ऐसे में स्वाभाविक तौर पर मतदान में ज्यादा दिलचस्पी लेने वाले युवा मतदाताओं का रुझान सरकार का भाग्य तय करने में अहम भूमिका निभाएगा. लेकिन राजस्थान में सत्ता का ऊंट किस करवट बैठेगा, यह 11 दिसंबर को ही पता चलेगा.
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(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)