1947 के बंटवारे के वक़्त 2020 की तरह जनता कर्फ्यू होता तो शायद नुकसान कम होता
कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि ये कोरोना महामारी करोड़ों लोगों को प्रभावित करने वाला है. दूसरे शहर में मज़दूर वर्ग आर्थिक संकट के आशंका में लॉकडाउन को न मानते हुए पैदल ही सैंकड़ो मील की दूरी तय करने को मजबूर है
1947 में भारत के विभाजन के वक़्त कई लाख लोगों की जाने गयी और करोड़ों लोगों को अंजान शहर में पलायन करना पड़ा. विभाजन के वक़्त तीन राष्ट्र पूरी तरह से बंटवारे में सम्मिलित थे, ब्रिटिश राज, भारत और नव निर्मित मुल्क पाकिस्तान. साथ- साथ पूरी दुनिया की भी नजर थी इन पर. बंटवारे के वक़्त तीनों देशों की सरकारों की समझदारी के बावजूद जनसंख्या स्थानान्तरण को लेकर सही दिशा निर्देश नहीं ला पाए. जैसा की कोरोना त्रासदी के कारण लॉकडाउन और इससे जुड़े कई अलग नीतियों का पालन केंद्र और राज्य की सरकारों के द्वारा करवाया गया है. अगर ऐसी ही कुछ नीतियां उस वक़्त लाई जाती तो बंटवारे का कुछ अलग ही दृश्य होता, जान माल का नुकसान कम होता और दोनों देश के बीच दूरियां भी कम होती. अर्थव्यवस्था और सत्ता संभालना भी जरूरी था, लेकिन जान-माल की सुरक्षा सर्वोपरि होनी चाहिए थी. उस वक़्त कुछ मजबूरियां रही होंगी, इस कारण दंगों पर नियंत्रण नहीं हो पाया.
कोरोना त्रासदी शुरु होने से कुछ दिनों पहले मैंने एक किताब ऑनलाइन ऑर्डर किया 'रेमनेन्ट्स ऑफ अ सेपरेशन' आंचल मल्होत्रा लेखिका द्वारा लिखित. इस किताब में 21 अलग-अलग कहानियां हैं, जो कि भारत पाकिस्तान के विभाजन के समय जो लोग विस्थपित हुए थे, उनकी आपबीती पर आधारित है. ये अविभाजित भारत में रह रहे लोग जोकि मज़हबी आधार पर बंटवारे के वक़्त दूसरे मुल्क में रह रहे थे, ये उनकी कहानियां हैं. मुल्क का बंटवारा हो रहा था. हालाँकि घर और शहर उनका ही था. अपने भरे-पूरे घर को छोड़ कर किसी दूसरे मुल्क में जाना बहुत ही कठिन था. बिना किसी सही दिशा निर्देश के कारण, लोगों के लिए विस्थापन का निर्णय लेना और भी कठिन हो चुका था. अगर देखा जाए तो 1947 में ये मुख्यतः पंजाब और सिंध प्रांत का बंटवारा था. कुछ कहानियां पूर्व और पश्चिम बंगाल के बंटवारे की भी हैं. बंगाल का विभाजन पहले भी एक बार 1905 में मज़हब के आधार पर हो चुका था.
भारत का विभाजन अगर कोई राजनीतिक मुद्दा या सत्ता पाने की अभिलाषा थी तो इसका सबसे अधिक नुकसान पंजाब का हुआ. कहानियां मूलतः अविभाजित पंजाब प्रान्त की अलग अलग जगहों की हैं. क्वेटा जो कि अफ़ग़ान बॉर्डर के करीब बलूचिस्तान में आता है नार्थ - वेस्ट - फ्रंटियर जो ख़ैबर दर्रा के नज़दीक है, जालंधर जो भारत में है, लाहौर, कराची, अमृतसर, और कई सारी स्थानों पर रहने वाले लोग जो सरहद पार कर अपनी और अपने परिवार की जान की रक्षा कर, आज चाहे भारत या पाकिस्तान के किसी और शहर में रह रहे हों. ये सारी कहानियां उनके या उनके परिवार के द्वारा सुनाई गयी है. कहानी पढ़ते वक़्त ऐसा लगता है की मैं भी उस वक़्त और उसी जगह का हिस्सा हूं. ये मानव इतिहास का सबसे बड़ा पलायन था, जिसमें कितने ही लोग आपसी दंगों की भेंट चढ़ गए, कितने ही घर जला दिए गये, कितने ही लोगों को कई साल कैम्पों में रहना पड़ा, कितने लोग को विस्थापित होना पड़ा. यह अनुमान नहीं था कि विभाजन के कारण जनसंख्या स्थानान्तरण आवश्यक होगा या नहीं? ऐसा लगता है, ये बंटवारा किसी जल्दबाजी में किया गया हो, बिना किसी उचित रणनीति के. इसका अंदाजा इससे होता है कि कालांतर में पूर्वी पाकिस्तान भाषा के आधार पर नया मुल्क बांग्लादेश बन गया. इन बंटवारे के फलस्वरूप इसका परिणाम इन प्रांतों में रह रहे लोगों को भुगतना पड़ा है.
ये कहानियां उस वक़्त के अच्छे बीते हुए पल को याद दिलाती हैं. कैसी खुशहाल जिंदगी थी, कैसा उनका घर था, कैसे अच्छे संबंध थे पड़ोसियों के साथ, कैसे साथ मिल कर त्योहार मानते थे, कैसे सारे बच्चे साथ मिलकर खेलते थे और अचानक से हवा में एक तनाव सी पैदा होने लगी और लोगों के अंदर घुटन सी होने लगी. देश के विभाजन के मुद्दे ने सब कुछ बदल दिया और अपना शहर अजनबी मुल्क हो गया. बहुत कठिनाईयां से, सरहद पार किया, जितनी जरूरी का सामान था, उतना ही साथ ला पाये. जरूरी के सामान हर किसी के हिसाब से अलग-अलग था, किसी ने साथ बर्तन लाए, जिससे कैंप में मिले हुए राशन से खाना बना कर अपने परिवार के पेट भर सके. कोई जड़ी लगी साड़ियां लेकर आई, जिसे जला कर सोने-चांदियां के अवशेष को बेच कर अपने परिवार का गुजारा हो जाये. कुछ बहुत जरूरी सामान पड़ोस में रख आए और कुछ घरों के अंदर सुरक्षित छुपा कर, घर में ताला लगा चाबी साथ लाए. अलग-अलग जरूरी सामान था, गहने, रुपए, ज़मीन के कागज़ात, चाबियों के गुच्छे, इत्यादि. कई तो घर की चौखट भी लांघ नहीं पाए, कइयों का साथ सरहद पार करने से पहले ही छूट गया. बहुत ही कठिन वक़्त था, बीते वक़्त को सोच कर या कहानियां सुन कर हम उस वक़्त को महसूस नहीं कर सकते. आज बीते वक़्त ने इस गहरी घाव पर हल्की सी लेप जरूर लगा दी है, पर उस वक़्त को इन परिवारों के लिए भूलना मुश्किल हैं. ये जरूर है कि, वहां कुछ खूबसूरत बीते पल को याद कर मन हल्का हो जाता है.
कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि ये कोरोना महामारी करोड़ों लोगों को प्रभावित करने वाला है. दूसरे शहर में मज़दूर वर्ग आर्थिक संकट के आशंका में लॉकडाउन को न मानते हुए पैदल ही सैंकड़ो मील की दूरी तय करने को मजबूर है. सरकार प्रयासरत है, कैसे भी करके इनको रोकने के लिए. लोग किसी के नियंत्रण में नहीं हैं. सोशल मीडिया पर अफवाहों का भी दौर है. अच्छी बात यह है कि इस पलायन के दौरान, किसी से आपसी दुश्मनी नहीं है. हर कोई, जितनी जल्द हो सके, अपने घर जाना चाहते हैं. अपने लोगों से मिलना चाहते हैं. सोशल डिस्टेन्सिंग को पालन करते हुए सरकार का रेलवे को चलाने का और दूसरे शहर में लॉकडाउन में फंसे छात्र, पर्यटक और मज़दूरों को घर पहुंचाने का निर्णय सराहनीय है.
बंटवारे के वक़्त मूलतः उतर भारत के लोगों को अपने घर से पलायन करना पड़ा था. कई साल लग गए उनको संभलने में, सरकार के नीतियां से ज्यादा लोगों के आत्म बल ने उनका साथ दिया. कोरोना त्रासदी के समय पूर्वांचल भारत के लोग सबसे ज्यादा प्रभावित होंगे. पूर्वांचल भारत की आर्थिक व्यवस्था पहले से ही लचर है. इस रिवर्स पलायन से इन सभी राज्य सरकारों को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है.
जब ये मालूम हो कि राज्य की स्वास्थ्य और अर्थव्यवस्था पहले से ही ठीक नहीं है. ऐसे में बिना किसी भेद-भाव के, खुद ही ज़िम्मेदारी लेते हुए अपने गांव-मोहल्ले में इस त्रासदी को नियंत्रण में रख, आर्थिक सुधार के लिए कुछ प्रयास खुद से भी करने होंगे.
(हेमन्त झा एक विपुल विचारशील लेखक हैं, नियमित रूप से सार्वजनिक समस्याओं, कार्यक्रमों और शीर्ष प्रकाशनों में पब्लिक मुद्दों पर अपने विचार व्यक्त करते हैं)
(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)