प्रसिद्ध कार्टूनिस्ट आरके लक्ष्मण का एक कार्टून याद आता है, जो उन्होंने मशहूर फिल्म अभिनेता शत्रुघ्न सिन्हा के पहली बार संसद में जाने के समय बनाया था. उसमें शत्रु का कैरीकेचर एक घुटने के बल बैठकर डायलॉग बोल रहा था- 'मैं संसद की ईंट से ईंट बजा दूंगा.'


अपने पुराने अनुभव के आधार पर यह आरके लक्ष्मण की संसदीय राजनीति में फिल्मी सितारों की उपयोगिता दिखाने की अपनी खास स्टाइल थी. उनका आशय यह था कि अब ये संसद में काम तो क्या ही करेंगे, डायलॉगबाजी ज्यादा चला करेगी. उनकी आशंका गलत नहीं थी. हिंदी फिल्मों से लोकसभा या राज्यसभा में जाने वाले आधिकतर सितारे काम के न काज के, दुश्मन अनाज के वाली कहावत को ही चरितार्थ करते आए हैं. इनमें वैजयंती माला, अमिताभ बच्चन, राजेश खन्ना, धर्मेंद्र, शत्रुघ्न सिन्हा, रेखा, हेमा मालिनी, जया प्रदा, गोविंदा, जावेद अख्तर, किरण खेर, मुनमुन सेन, शताब्दी राय, दीपिका चिखालिया, आरविंद त्रिवेदी, नितीश भारद्वाज जैसी कई फिल्मी हस्तियां शामिल हैं.


संसद में उपस्थिति हो, क्षेत्र की समस्याओं को उठाना हो, सांसद निधि का ठीक से इस्तेमाल करना हो या क्षेत्र के दौरे कर लोगों से संपर्क रखना हो, अधिकांश फिल्मी सितारे इसमें नाकाम रहते हैं. चुने जाने के बाद इनकी एक झलक देख पाना भी मतदाताओं के लिए दूभर होता है, अपनी समस्याओं को दूर कराना और अपने क्षेत्र के बुनियादी ढांचे को इनसे सुधरवाना दूर की बात है. 2004 में बीकानेर से चुने गए धर्मेंद्र और उत्तर मुंबई में बीजेपी के राम नाईक जैसे दिग्गज को परास्त करने वाले गोविंदा के तो लापता होने के पोस्टर उनके क्षेत्रवासियों ने दीवारों पर चिपका दिए थे.


अक्सर देखा गया है कि बॉलीवुड के सितारे अपनी लोकप्रियता और ग्लैमर की वजह से पैराशूट में सवार होकर सीधे संसद में पहुंच तो जाते हैं, लेकिन सामाजिक जीवन में कोई उल्लेखनीय काम दर्ज नहीं करा पाते. इसके बरक्स अगर हम दक्षिण भारत की फिल्मी हस्तियों पर नजर डालें तो वे अपने समाज और समुदाय के आम जीवन में बड़ा बदलाव लाती हैं. भारी लोकप्रियता और अपनी सफलता के चरम वाले दौर में भी वे एकदम निचली पायदान पर बैठी जनता के रोजमर्रा की जिंदगी से जुड़े रहते हैं. उनके असर और भाषा वाले राज्यों में उनके फैन क्लब किसी पार्टी के स्थानीय कार्यालय की तरह संचालित होते हैं. ये फैन क्लब सितारों की फिल्में रिलीज होते समय ढोल-नगाड़ों के साथ उन्हें हिट कराने तो जाते ही हैं, किसी भी आपदा, सामाजिक तनाव और लोगों से सुख-दुख में अपने सितारे का प्रतिनिधि बनकर खड़े हो जाते हैं. स्कूलों और अस्पतालों के संचालन हेतु खुद दक्षिण के स्टार अपनी जेब से पैसा खर्च करते हैं. इसीलिए अपने प्रशंसकों और क्षेत्र की जनता के साथ उनका जीवंत और ईमानदारी भरा जुड़ाव स्थापित होता है.


जब सितारों को अपने राजनीतिक हस्तक्षेप की जरूरत होती है, तो यही फैन क्लब उनके प्रशिक्षत और समर्पित कार्यकर्ताओं की तरह काम में जुट जाते हैं. बॉलीवुड के सितारों के साथ ऐसा नहीं है. जब उनका कैरियर ढलान पर आता है, तब वे राजनीति की गोद में लुढ़कने की कोशिश करते हैं. उन्हें न तो सामाजिक कार्यों से कोई मतलब होता है, न विचारधारा से कोई प्रयोजन. ये किसी भी राजनीतिक दल की शरण में बिना सोचे चले जाते हैं. इनके फैन क्लब अगर कहीं होते भी हैं, तो उनका काम सेल्फी लेने तक ही सीमित होता है.


पृथ्वीराज कपूर, सुनील दत्त और नरगिस के अलावा कोई फिल्म सितारा ऐसा याद नहीं आता, तो समाजसेवा करके राजनीति में दाखिल हुआ हो. पृथ्वीराज कपूर ने जब आवाज उठाई, तो थिएटर कलाकारों को रेलयात्रा में 75% छूट दी गई. उन्हें 1952 में राज्यसभा के लिए नामांकित किया गया था. सुनील दत्त और नरगिस (इन्हें सामाजिक कार्यों के चलते इंदिरा गांधी ने राज्यसभा में भेजा था) फिल्म इंडस्ट्री का सहयोग लेकर सीमा पर हमेशा सैनिकों का मनोरंजन करने और उन्हें प्रोत्साहित करने जाया करते थे. 1984 में जब सुनील दत्त कांग्रेस की ओर से चुनाव लड़ रहे थे तो महाराष्ट्र के दिग्गज कांग्रेसी शिवाजीराव पाटील के साथ उनकी बेटी स्मिता पाटील और युवा राज बब्बर भी गली-गली जाकर प्रचार करते थे.


विनोद खन्ना भले ही राजनीति में नौसिखिया थे लेकिन उन्होंने अपने क्षेत्र में इतने पुल बनवाए कि उन्हें 'सरदार ऑफ ब्रिज' भी कहा जाने लगा था. हालांकि बॉलीवुड के सुनील दत्त, विनोद खन्ना, शत्रुघ्न सिन्हा जैसे सितारे केंद्र सरकार में मंत्री जरूर बने, लेकिन राजनीति में कोई भी हिंदी फिल्म कलाकार दक्षिण भारतीय कलाकारों जितनी ऊंचाई पर नहीं पहुंच और टिक सका.


तमिलनाडु के दिवंगत मुख्यमंत्री करुणानिधि, एमजी रामचंद्रन और जे जयललिता और आंध्र प्रदेश के एनटी रामाराव कुछ ऐसे ही नाम हैं. दक्षिण भारतीय फिल्म सितारों का जुड़ाव दर्शकों के साथ इस हद तक होता है कि मात्र फिल्म फ्लॉप हो जाने पर कई प्रशंसक आत्मघात कर बैठते हैं. द्रविड़ समाज में व्यक्तिपूजा की जड़ें गहरी और प्राचीन हैं और इसके आर्य संस्कृति से टकराव और पीछे हटते जाने के ऐतिहासिक और सांस्कृतिक आयाम हैं. सुपरस्टारों की तो बात ही छोड़ दीजिए, आपको पिद्दी-से लगने वाले नेता या अभिनेता-अभिनेत्रियों के मंदिर बनते दिख सकते हैं. अपने जमीन से जुड़े प्रशंसकों के दम पर मेगास्टार रजनीकांत और कमल हासन ने तो अपनी राजनीतिक पार्टियां भी बना ली हैं. प्रकाश राज निर्दलीय लड़ रहे हैं. तेलुगू फिल्म स्टार चिरंजीवी के भाई और सुपरस्टार पवन कल्याण ने जन सेना बना ली है. लेकिन यह सब उन्होंने हवा में नहीं, बल्कि ज्वलंत सामाजिक मुद्दों को लेकर सक्रियता दिखाने और ताकतवर केंद्रीय सत्ता के खिलाफ मुखर होने के बाद किया है.


बॉलीवुड में तो हर राष्ट्रीय मुद्दे पर खामोशी छा जाती है, चाहे वह फिल्मों से जुड़ा मामला ही क्यों न हो. किसी बोल्ड कंटेंट का मामला हो या पाकिस्तानी कलाकारों के बॉलीवुड में काम करने का, इंडस्ट्री दोफाड़ हो जाती है. महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना ने तब पाकिस्तानी कलाकारों के होने के कारण 'ऐ दिल है मुश्किल' का विरोध किया और ‘पद्मावत’ पर करणी सेना का दबाव बना, तो बॉलीवुड को सांप सूंघ गया. लेकिन दक्षिण में हासन उन सितारों में से थे जिन्होंने सुपरस्टार विजय का उस समय खुलकर समर्थन किया, जब तमिलनाडु में बीजेपी ने उनकी फिल्म 'मेरसल' में जीएसटी का मजाक उड़ाने पर आपत्ति जताई और उन दृश्यों को हटाने की मांग की. हासन ने बाकयादा एक पत्रिका के कॉलम में हिंसक हिंदू कट्टरता के उत्थान की निंदा की. राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता अभिनेता प्रकाश राज ट्वीट कर चुके हैं, 'अगर नैतिकता के नाम पर मेरे देश की सड़कों पर प्रेमी जोड़ों को गाली देना और धमकाना आतंकित करना नहीं है...अगर क़ानून हाथ में लेना और लोगों को गौहत्या के शक में मार डालना आतंकित करना नहीं है... अगर गालियों के साथ ट्रोल करना, धमकी देना आतंकित करना नहीं तो असल में क्या है?'


इतनी हिम्मत आज तक किसी बॉलीवुड स्टार में नहीं देखी गई. इसीलिए दर्शक उन्हें एकाध चांस देकर देखते हैं और फटा पोस्टर निकला जीरो समझ कर, किसी और को आजमाते हैं. हिंदी फिल्म सितारों की राय को राजनेता भी कितने हल्के में लेते हैं, इसका एक उदाहरण है तत्कालीन केंद्रीय गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे की प्रतिक्रिया, जब उन्होंने राज्यसभा पहुंची जया बच्चन द्वारा 2012 में असम से जुड़ी एक बहस के दौरान उनकी टिप्पणी पर कहा था, ''यह एक गंभीर मसला है, न कि कोई फिल्मी मुद्दा.'' नजरिए को लेकर भी दक्षिण और बॉलीवुड की फिल्मों में बड़ा फर्क है. कन्नड़, तमिल, तेलूगु और मलयालम सिनेमा में मुख्यधारा की फिल्में जातीय समीकरणों को खुलकर दिखाती हैं, जबकि बॉलीवुड में बिरले ही दलितों, पिछड़ी जातियों या अल्पसंख्यकों के जीवन और मुद्दों पर फिल्में बनती हैं. इसीलिए दक्षिण भारत का मतदाता अपने फिल्म स्टार को सिर्फ परदे का नायक नहीं मानता और उसके राजनीति में उतरते ही उसका जमीनी समर्थक बन जाता है.


केरल की महिला फिल्म कलाकारों ने अपने अधिकारों को लेकर 'वूमन इन सिनेमा कलेक्टिव' बनाने का एक अभूतपूर्व कदम उठाया था, इसके बरक्स बॉलीवुड में इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती. यही वो कुछ बुनियादी कारक हैं जो बॉलीवुड स्टारों को राजनीति की मुख्यधारा में पांव जमने नहीं देते और दक्षिण भारत के सुपरस्टारों को दशकों तक मुख्यमंत्री बनाए रखते हैं. 2019 के आम चुनाव में सनी देओल को बीजेपी ने स्वर्गीय विनोद खन्ना की सीट गुरदासपुर से मैदान में उतारा है, तो उर्मिला मातोंडकर उत्तर मुंबई से कांग्रेस के टिकट पर किस्मत आजमा रही हैं. राजनीति में आने से पहले इनका कोई पता-ठिकाना नहीं मिल रहा था.


गायक-अभिनेता मनोज तिवारी, रवि किशन, दिनेश लाल निरहुआ जैसे कुछ भोजपुरी सुपरस्टार भी बीजेपी की तरफ से ताल ठोक रहे हैं. लेकिन अगर इनके सामाजिक-सांस्कृतिक अवदान की बात की जाए, तो शून्य बटा सन्नाटा ही नजर आएगा. राजनीतिक दलों की दिक्कत यह है कि उन्हें हर हाल में चुनाव जीतना है. उन्हें लगता है कि बॉलीवुड या भोजपुरी सिनेमा के सितारों की चकाचौंध से प्रभावित होकर लोग उन्हें वोट दे देंगे. इसके चक्कर में सभी पार्टियां वर्षों से अपने लिए काम करते आ रहे समर्पित कार्यकर्ताओं की उपेक्षा कर देते हैं. लेकिन हकीकत यही है कि राजनीतिक दलों की विचारधारा और मुद्दों से दूर, जनता की समस्याओं से कटे ये सितारे प्रवासी पक्षियों की तरह होते हैं, जो पांच साल में एक बार नजर आते हैं. इनके ग्लैमर के जाल में फंसकर लोग इन्हें वोट तो दे देते हैं लेकिन फिर सालों साल तक पछताते रहते हैं.


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