पूर्व केंद्रीय वित्त मंत्री और बीजेपी के दिग्गज नेता अरुण जेटली के निधन पर जिस तरह की श्रद्धांजलियां तमाम राजनीतिक खेमों से आ रही हैं, उससे स्वर्गीय जेटली की सर्वप्रियता का अंदाजा होता है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह, रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह समेत सत्तारूढ़ एनडीए के तमाम छोटे- बड़े नेता तो जेटली जी को शिद्दत से याद कर ही रहे हैं, ममता बनर्जी, मायावती, केजरीवाल और शशि थरूर जैसे विपक्षी खेमे के नेता भी उनका गुणगान करते नहीं थक रहे. इसकी वजह है जेटली की सौम्य और मिलनसार राजनीति. ऐसा नहीं है कि जेटली अपने विरोधियों के प्रति नरमी बरतते थे, लेकिन कटु और तिक्त वाणी तथा निजी हमलों के इस दौर में भी उनकी पलटजवाबी में शालीनता झलकती थी.


मौजूदा भारतीय राजनीति में जेटली उन विरले लोगों में शुमार थे, जिनका चुनावी जनाधार न के बराबर था, इसके बावजूद सत्ता की ऊपरी पायदानों से उन्हें कभी कोई लुढ़का नहीं पाता था. वह एक तर्कशील वक्ता और पार्टी प्रवक्ता होने के साथ-साथ कानून के भी बड़े जानकार थे. वित्तीय मामलों में उनकी गहरी पकड़ थी. लेकिन उनकी सबसे बड़ी और सर्वोपरि खासियत थी दिल्ली की लुटियंस राजनीति में उनकी पैठ. विपक्ष में रहते हुए भी यह पैठ केंद्रीय सत्ता के गलियारों में उनकी आसान पहुंच बनवाती थी, जिसके दम पर वह मीडिया और कार्पोरेट जगत को अपनी मुट्ठी में किए रहते थे. उनके चौतरफा प्रभाव और शक्ति का मंत्र इसी तंत्र से सिद्ध होता था. जनता के सीधे समर्थन का अभाव जेटली इसी मंत्र से पूरा करते थे.


अरुण जेटली को आप अजातशत्रु नहीं कह सकते. राजनीति का श्रीगणेश करते ही पार्टी के अंदर उनके कई प्रतिस्पर्द्धी पैदा हो गए थे. लेकिन अपनी कुशाग्रबुद्धि, व्यावहारिक राजनीति के प्रशिक्षण और मीडिया में शीर्ष संपर्कों के बूते वह सबको चारो खाने चित्त कर देते थे. जेटली को राजनीतिक दीक्षा जनता के बीच सड़कों पर नहीं बल्कि आपातकाल के दौरान 19 माह की जेल काटने के दौरान मिली थी. दरअसल जेपी आंदोलन के दौरान जब जेटली दिल्ली विश्वविद्यालय के श्रीराम कॉलेज में पढ़ रहे थे और एवीबीपी की तरफ से छात्रसंघ के अध्यक्ष थे तभी आपातकाल लगा और उनकी गिरफ्तारी हो गई. तिहाड़ जेल में जेटली की घनिष्ठता पूर्व परिचित संघ नेताओं और अटल बिहारी वाजपेई, आडवाणी, मलकानी, नानाजी देशमुख जैसे दिग्गजों के साथ बढ़ी. 1977 में जेल से निकलते ही जेटली का कन्फ्यूजन दूर हो गया था और उन्होंने तय कर लिया था कि आगे सिर्फ और सिर्फ राजनीति ही करनी है.


जेटली चुनाव की मैदानी राजनीति में नहीं उतरे थे लेकिन 80 के दशक में अपने वकालत के अनुभव और राजनीतिक मुकदमों को झेलने की काबिलीयत के चलते उन्होंने बीजेपी के शीर्ष नेताओं के मन में जगह बना ली थी. 1987-88 में जब राम जेठमलानी कथित बोफोर्स घोटाले को लेकर राजीव गांधी को लगातार अखबारों में घेर रहे थे, तब जेटली तथ्य जुटाने के लिए उनकी मदद में दिन-रात एक किए हुए थे. इस घोटाले ने जब राजीव सरकार की बलि लेकर 1889 में बीजेपी के समर्थन से वीपी सिंह की राष्ट्रीय मोर्चा सरकार बनवाई, तो जेटली को सरकार के अतिरिक्त सॉलीसीटर जनरल पद का ईनाम मिला. 1990 के सितंबर में जब आडवाणी जी सोमनाथ से अयोध्या के लिए रथयात्रा लेकर निकले तो जेटली प्रेस के लिए रोजाना असरदार विज्ञप्तियां तैयार किया करते थे.


जेटली परदे के पीछे की राजनीति के माहिर खिलाड़ी थे. कुशल रणनीतियां बनाना, प्रभावशाली चुनाव अभियान संचालित करना, विश्वसनीय और असरदार ढंग से अपनी बात रखना उन्हें छात्र राजनीति के दौर से घुट्टी में मिला हुआ था. वीपी सिंह की सरकार बीच में ही गिरने के बाद 1991 के आम चुनाव के दौरान उन्होंने आडवाणी के प्रचार अभियान को संभाला था. इसे महज संयोग नहीं कहा जा सकता कि 1999 के आम चुनाव से ठीक पहले उन्हें राष्ट्रीय प्रवक्ता बनाया गया और बीजेपी की अगुवाई में एनडीए की सरकार बन गई! देखा जाए तो जेटली किसी जमाने में बीजेपी के अंदर आडवाणी गुट के आदमी माने जाते थे, और सुषमा स्वराज, वेंकैया नायडू, अनंत कुमार से लेकर वर्तमान पीएम नरेंद्र मोदी तक इस गुट का हिस्सा थे.


गुजरात दंगों के बाद 2002 में जब मोदी ने विधानसभा भंग की थी तो राज्य में बीजेपी का इंचार्ज उन्होंने जेटली को ही बनाया था और गुजरात विधानसभा चुनावों में अपार सफलता हासिल की थी. आपसी खींचातान के बीच संघ का समझौता उम्मीदवार बन कर आए पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने जब जेटली को 2007 की शुरुआत में पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता के पद से हटा दिया तो उन्हीं की चाणक्य नीति के चलते 2008 में उनको कर्नाटक का प्रभारी बनाना पड़ा. कर्नाटक में उन्होंने बीजेपी को ऐतिहासिक जीत दिलाई. नतीजा यह हुआ कि आपस में लड़-झगड़ रहे बीजेपी के दूसरे पायदान के नेताओं के बीच में से जेटली को 2009 के पूरे आम चुनाव की कमान सौंप दी गई. यह बात और है कि 2004 के मुकाबले 2009 में 22 सीटें कम मिलने पर मेनका गांधी और अरुण शौरी समेत दूसरी पंक्ति के कई नेताओं ने जेटली को खुले तौर पर निशाने पर ले लिया. इससे पार्टी के अंदर जेटली
का राजनीतिक कद तो घटा लेकिन उनके बाहरी रुतबे में कोई कमी नहीं आई.


इसकी वजह थी पार्टी में तेजी से उभर रहे नरेंद्र मोदी के साथ उनकी निकटता. यह निकटता उस समय पैदा हुई थी जब 1995 में पार्टी का काम करने पहुंचे मोदी को दिल्ली में किसी ने गंभीरता से नहीं लिया था, लेकिन जेटली ने उनकी हर सुख-सुविधा का ध्यान रखा. तभी तो 1999 में जेटली के सूचना एवं प्रसारण मंत्री बनते ही मोदी जी ने उन्हें गुजरात से राज्यसभा का सदस्य बनवाया था. मोदी जब 2014 में पीएम बने तो अमृतसर से करारी हार झेलने के बावजूद उन्होंने जेटली को वित्त, रक्षा और कॉर्पोरेट मामले जैसे महत्वपूर्ण केंद्रीय मंत्रालय सौंप दिए. हालांकि वित्त मंत्री के तौर पर जेटली बैंकों के एनपीए, नोटबंदी, जीएसटी की दरों और प्रक्रिया की जटिलता, रफाल डील, डिफाल्टरों की फरारी, महंगाई, रिजर्व बैंक पर दबाव, नकदी की अनुपलब्धता जैसे कई संगीन आरोपों और विवादों से घिरे रहे, लेकिन अपना बचाव भी वे तर्कपूर्ण ढंग से करते रहे.


मोदी के लिए जेटली का क्या महत्व था, इसका पता इसी बात से चलता है कि सख्त बीमार होने के बावजूद वे उन्हें अपने दूसरे कार्यकाल के मंत्रिमंडल में शामिल करना चाहते थे और उन्हें राजी करने के लिए उनके घर तक पहुंच गए थे. विभिन्न क्षेत्र की हस्तियों को मुकदमों से बरी कराना, पार्टी के लिए भारी वित्त जुटाना, पूंजीपतियों और दिग्गज पत्रकारों से करीबी संबंध रखना जेटली की यूएसपी थी. अपने इन्हीं गुणों के चलते वह पार्टी के अंदर अपने प्रतिद्वंद्वियों पर भारी पड़ते थे. एक प्रसिद्ध पत्रिका ने कभी लिखा था कि 1984 की 2 सीटों से बीजेपी 1989 में 86 सीटों तक आ पहुंची है और इस सफलता में एक पूर्व छात्र नेता द्वारा इंतजाम किए गए पैसों का बड़ा हाथ रहा है. पत्रिका का इशारा जेटली की तरफ ही था. ऐसे नेता पार्टियों को विरले ही मिलते हैं. जेटली जी को मेरी विनम्र श्रद्धांजलि!


(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)