BLOG: बुद्ध पूर्णिमा पर विशेष- हमें गौतम बुद्ध के उपदेशों की शरण में जाना ही पड़ेगा
सवाल उठता है कि दुनिया छोड़ने के लगभग 2500 साल बाद भी बुद्ध समूची मानवता के लिए इतने प्रासंगिक क्यों हैं? उन्हें क्यों याद किया जाना चाहिए?
आज बुद्ध पूर्णिमा है, यानी सम्पूर्ण विश्व को अहिंसा, समता, स्वतंत्रता, बंधुत्व, शांति, प्रेम और विज्ञाननिष्ठा की बुद्धिवादी और मानवतावादी शिक्षा प्रदान करने वाले महान गौतम बुद्ध की जयंती. वास्तव में गौतम बुद्ध के जीवन से पूर्णिमा का नाभिनालबद्ध संबंध रहा है. उनका जन्म, गृहत्याग (महाभिनिष्क्रमण), बोधिप्राप्ति, पहला धम्म प्रवचन और महापरिनिर्वाण पूर्णिमा की तिथि को ही हुआ था. इसीलिए पूर्णिमा का भारत समेत पूरे विश्व के बौद्ध धर्मावलंबियों के जीवन में विशेष स्थान है. वैशाख माह की पूर्णिमा तो उनके लिए अतिशय गौरवशाली और महत्वपूर्ण तिथि होती है, क्योंकि इसी दिन कपिलवस्तु के राजा सुद्धोदन और रानी महामाया के घर लुम्बिनी में ईसा पूर्व 563 के दौरान राजकुमार सिद्धार्थ का जन्म हुआ था और श्रमण पद्धति से तथागत का जीवन बिताने के बाद वैशाख की इसी तिथि को उनका कुशीनगर (यूपी) में महापरिनिर्वाण हुआ. आज गौतम बुद्ध की 2563 वीं जयंती है. सवाल उठता है कि दुनिया छोड़ने के लगभग 2500 साल बाद भी बुद्ध समूची मानवता के लिए इतने प्रासंगिक क्यों हैं? उन्हें क्यों याद किया जाना चाहिए?
वास्तव में बुद्ध ऐसे प्रथम भौतिकवादी दार्शनिक थे, जिन्होंने उत्तर वैदिक काल में ही बता दिया था कि किसी भी घटना के पीछे कोई न कोई कारण अवश्य होता है. अगर हम उस कारण को पहचान लें तो उस घटना का हमें पूर्वानुमान हो जाता है और हम अपना बचाव कर सकते हैं. फिर चाहे वह आंधी, तूफान, ज्वालामुखी, भूकंप, भू-स्खलन, बारिश, अकाल, बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाएं हों या जात-पात, ऊंच-नीच, अमीरी, गरीबी, अशिक्षा, भुखमरी, बेरोजगारी, चोरी, डकैती जैसी मानवजनित व्याधियां हों या जन्म, मृत्यु, बीमारी, जवानी, बुढ़ापा, विकलांगता जैसी जैव-वैज्ञानिक अवस्थाएं हों. इसका ताजा उदाहरण है- बंगाल की खाड़ी में उठा 'फानी' साइक्लोन और उसकी प्रकृति को समझकर बचाई गई लाखों लोगों की जान.
इसके उलट जब हमने उत्तराखंड के पहाड़ों की प्रकृति की अनदेखी की तो देश को केदारनाथ जैसी भीषण त्रासदी झेलनी पड़ी. बुद्ध ने तो इससे कई कदम आगे बढ़कर प्रज्ञा, करुणा, मैत्री, शील और समाधि की अवधारणा से मानव जाति को अभूतपूर्व दिशा प्रदान की थी. आत्मप्रचार, आत्मश्लाघा और व्यक्तिपूजा के इस युग में यह जानकर आश्चर्य होता है कि पूरे विश्व में गौतम बुद्ध ही ऐसे पहले व्यक्ति थे, जो अपनी पूजा करने को मना करके संसार से विदा हुए थे. वह अपने शिष्यों और अनुयायियों का भ्रम तोड़ने के लिए यह भी कहते थे कि उनसे कोई यह उम्मीद न रखे कि वह कोई चमत्कारी पुरुष हैं या किसी करामात से लोगों की जिंदगी बदल देंगे. बल्कि वह संदेश देते थे कि तृष्णाओं के कारण अपने हिस्से का दुख लोगों ने स्वयं पैदा किया है और इसे उन्हें ही दूर करना होगा, वह सिर्फ मार्ग बता सकते हैं. उन्होंने कहा था कि किसी बात पर आंख मूंद कर इसलिए भरोसा मत करो कि वह बात किसी महाज्ञानी पुरुष ने कही है या धर्मग्रंथों में लिखी है, बल्कि 'अप्प दीपो भव' यानी अपना दीपक खुद बनो. यह उनकी वैज्ञानिक चेतना का भी प्रमाण है. आज के ढपोरशंख बाबाओं की मंशा और गति देख कर बुद्ध की प्रासंगिकता का अंदाजा सहज की लगाया जा सकता है.
महात्मा बुद्ध का एक उपदेश यह है कि भूतकाल में मत उलझो, भविष्य के सपने मत देखो, वर्तमान पर ध्यान दो. खुशी का रास्ता इसी से निकलेगा. लेकिन आज हम देखते हैं कि कुछ राजनीतिक दल और सामाजिक संगठन लोगों को हजारों साल पीछे का सुनहरा सपना दिखाकर उनका भविष्य सुंदर बनाना चाहते हैं. बुद्ध का एक कथन यह भी था कि बुराई से बुराई को कभी खत्म नहीं किया जा सकता. लेकिन हम आज गुड टेररिज्म और बैड टेररिज्म की बहसों में उलझे रहते हैं. गौतम बुद्ध के विचारों का राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के जीवन पर बड़ा असर था. सत्य और अहिंसा के जिन प्रमुख हथियारों से उन्होंने शक्तिशाली अंग्रेजी साम्राज्य के भारत से पांव उखाड़े थे, वे हथियार उन्हें गौतम बुद्ध से ही मिले थे. लेकिन आज कुछ लोग गांधी जी के पीछे हाथ धोकर पड़े हुए हैं. यह बुद्ध की सीखों से मुंह फेरना भी कहा जा सकता है.
सभी जानते हैं कि राजकुमार सिद्धार्थ ने जब अपने इर्द-गिर्द गरीबी, बुढ़ापा, मृत्यु और बीमारी का तांण्डव देखा तो इनका मूल कारण खोजने के लिए उन्होंने अपने दुधमुंहे पुत्र राहुल और युवा पत्नी यशोधरा को सोता छोड़ आधी रात को गृहत्याग कर दिया था. लेकिन युद्ध और हिंसा से उनके मन में बचपन से ही विरक्ति थी. जब वह अपनी माता से पूछते थे कि क्षत्रिय आपस में हमेशा क्यों लड़ते रहते हैं तो उनकी माता कहती थीं कि युद्ध करना क्षत्रियों का धर्म है. लेकिन बालक सिद्धार्थ को यह समझ में नहीं आता था कि मनुष्य का मनुष्य को मार डालना धर्म कैसे हो सकता है. जब रोहिणी नदी के पानी को लेकर शाक्यों और कोलियों में युद्ध छिड़ा तो शाक्य कुल का होते हुए भी उन्होंने युद्ध में भाग नहीं लिया था. उनके युग के बहुत बाद लोगों को समझ में आया कि युद्ध कितना नुकसानदेह होता है. साहिर लुधियानवी ने लिखा भी है- 'जंग तो खुद ही एक मसअला है, जंग क्या मसअलों का हल देगी.'
यह सच है कि जिस महान देश भारतवर्ष में बौद्ध धर्म का जन्म हुआ और जिस गंगा-नर्मदा के आर-पार विशाल भूखंड में यह फला-फूला, राजाश्रयविहीनता, जातीय विद्वेष, धार्मिक विघटन और पथभ्रष्टता जैसे अन्यान्य कारणों से इसकी यहां से विदाई भी हो गई. चीन, थाइलैंड, कंबोडिया, श्रीलंका जैसे देशों ने इसे अंगीकार किया. लेकिन सदियों बाद बढ़ते धार्मिक उन्माद, जातीय भेदभाव, छुआछूत के कारण जब भारत को गौतम बुद्ध की फिर से जरूरत आन पड़ी, तो बाबासाहेब भीमराव आंबेडकर ने 14 अक्टूबर, 1956 के दिन अपने लाखों अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म में दीक्षित होकर भारत में इसे पुनर्जीवन दे दिया. इन दिनों हमारे समाज में जिस तरह सहिष्णुता छीज रही है, जीवन की गतिशीलता को जिस तरह बाधित करने के षड़यंत्र रचे जा रहे हैं, दलितों, स्त्रियों और अल्पसंख्यकों के प्रति जिस तरह की वैमनस्यता बढ़ रही है, मानवता के मुखौटे में चारों तरह जिस तरह अमानवीयता क्रूर नृत्य कर रही है, उसे देखते हुए गौतम बुद्ध के उपदेशों, संदेशों और सीखों की शरण में जाने के सिवा हमारे पास और दूसरा रास्ता ही क्या है?
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(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)