घर के काम की एवज में पैसे देने पड़ें तो पासबुक के पन्ने फड़फड़ाने लगेंगे
हम उम्मीद करते हैं कि औरतों को जीते-जी भी इस योगदान की एवज में कुछ मिल जाए. कुछ मिल जाए- से हमारा मतलब प्यार और सम्मान भर नहीं है. वह तो हर व्यक्ति के जीने की अनिवार्य शर्त है. ह्यूमन राइट है.
होम मेकर की क्या कीमत होती है. एक्सिडेंटली यह तय हो गया... शब्दश: मुंबई के एक एक्सीडेंट में एक महिला की मौत का मुआवजा ट्रिब्यूनल ने 32 लाख रुपए तय किया. महिला गृहिणी थी. आम तौर पर एक्सीडेंट के क्लेम उम्र, पेशे वगैरह के हिसाब से तय किए जाते हैं. इस लिहाज से उसका क्लेम उतना नहीं बनता था लेकिन इस मामले में मोटर एक्सीडेंट क्लेम ट्रिब्यूनल ने औरत की जिम्मेदारियों को महत्वपूर्ण बताया. चूंकि उसकी गैर मौजूदगी में पति, बच्चों या यूं कहें कि परिवार को बहुत अधिक तकलीफ भुगतनी पड़ती है. इसलिए बीमा कंपनी और दुर्घटना के दोषी को इतने पैसे देने ही पड़ेंगे. हम उम्मीद करते हैं कि औरतों को जीते-जी भी इस योगदान की एवज में कुछ मिल जाए. कुछ मिल जाए- से हमारा मतलब प्यार और सम्मान भर नहीं है. वह तो हर व्यक्ति के जीने की अनिवार्य शर्त है. ह्यूमन राइट है.
पारिवारिक जिम्मेदारियों की एवज में प्यार-सम्मान मिले, यह काफी नहीं है. जैसा कि हाल ही में मिस वर्ल्ड बनी मानुषी छिल्लर ने कहा था. उनसे सौन्दर्य प्रतियोगिता में जो-जो सवाल पूछे गए थे, उनमें से एक यह भी था कि दुनिया में किस काम के लिए सबसे ज्यादा मेहनताना मिलना चाहिए. उन्होंने कहा था, मां को. लेकिन अगले ही मिनट मानुषी ने अपने कमेंट में करेक्शन कर दिया. मेहनताने से उनका मतलब नकदी नहीं. प्यार और सम्मान है. दरअसल दिक्कत यह है कि पारिवारिक जिम्मेदारियों के बदले औरतों को प्यार और सम्मान भी नहीं मिलता. उनसे पूछा जाता है, घर पर रहकर आखिर तुम करती क्या हो. जो कुछ भी वे करती हैं, उसकी एवज में अगर पैसे देने पड़ें तो बैंक की पासबुक के पन्ने फड़फड़ाने लगेंगे. बीवी, मां, बहू... सिर्फ औरत होने के पेशे में वर्किंग आवर्स बहुत लंबे हैं. पूरे हफ्ते काम करने पर भी कोई लीव नहीं मिलती. प्रमोशन का भी कोई चांस नहीं होता. और तो और, इन पदों का कोई पे डे नहीं होता क्योंकि वेतन तो मिलता ही नहीं.
दुनिया भर में औरतें बिना शिकायत इस नौकरी से बंधी रहने पर मजबूर होती हैं. मानुषी भले ही प्यार और सम्मान से संतुष्ट हो रही हों, लेकिन औरतें जीवन भर ठन-ठन गोपाल बनी रहती हैं. फिर कहा जाता है, बीवियों के आने पर भाइयों का प्यार खत्म हो जाता है. मदरहुड कोई ग्लोरी नहीं है. सैलरी डॉट कॉम का कहना है कि मां और बीवी बनने वाली हर औरत एक साथ 10 पदों पर काम करती है. वह भी हफ्ते में करीब 97 घंटे. ऑर्गेनाइजेशन फॉर इकोनॉमिक कोऑपरेशन एंड डेवलपमेंट (ओईसीडी) की एक स्टडी में कहा गया कि भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका जैसे उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं में हाउसहोल्ड प्रोडक्शन आर्थिक गतिविधि का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है. चूंकि यह अनपेड है इसीलिए ज्यादातर औरतों द्वारा किया जाता है.
इसीलिए संगठन से जुड़े कई अर्थशास्त्रियों का कहना है कि होम मेकर्स जो काम करती हैं, उसे राष्ट्रीय आय में शामिल किया जाना चाहिए. इसे नजरंदाज करके हम अर्थव्यवस्था में औरतों के योगदान को अंडरइस्टिमेट करते हैं. इस अनपेड वर्क को पेड बनाने का अभियान दुनिया भर में चल रहा है. वह भी कई सालों से. 1972 में सेल्मा जेम्स ने इटली में इंटरनेशनल वेजेज फॉर हाउसवर्क कैंपेन शुरू किया था. कैंपेन का कहना यह था कि हाउसवर्क औद्योगिक गतिविधि का आधार होता है और इसीलिए इसे पेड होना चाहिए. इसके बाद यह कैंपेन ब्रिटेन और अमेरिका पहुंचा. अभी हाल ही में 2014 में इटैलियन वकील और पूर्व सांसद गुइलिया बोंगिओर्नो ने यह प्रस्ताव रखा था कि होम मेकर्स को सैलरी मिलने से घरेलू हिंसा के खत्म होने की उम्मीद की जा सकती है. अक्सर औरतें एक खराब रिलेशनशिप को इसीलिए ढोती रहती हैं क्योंकि उनके पास पैसे नहीं होते. वे पतियों पर निर्भर रहती हैं. इस लिहाज से भी सोचा जा सकता है और होम मेकर के रोल की कीमत तय हो सकती है.
दुनिया की इस सोच के सामने हमारी दलील क्या है... औरतें परिवार से प्यार करती हैं इसीलिए घर काम करती हैं. लेबर ऑफ लव. लेबर ऑफ लव की क्या कीमत. बेशक, हो भी क्या सकती है. 2012 में जब तत्कालीन महिला और बाल विकास मंत्री कृष्णी तीरथ ने यह प्रस्ताव रखा था कि होम मेकर्स का काम क्वांटिफाई होना चाहिए जिसका मेहनताना उनके पति द्वारा दिया जाए तो यह बहुत स्टुपिड लगा था. प्रस्ताव बेवकूफाना था भी. इस प्रस्ताव के साथ आप यह मानकर चले थे कि श्रम का दायित्व पति पर है, मतलब आदमी ही औरत का ओनर है. ऐसे में राज्य की जिम्मेदारी खत्म. फिर पति के बीवी के एकाउंट में पैसे जमा कराने से परिवार की आय तो बढ़ेगी नहीं.
दरअसल मर्दों और औरतों के बीच का श्रम विभाजन ही हैरेसमेंट का कारण बनता है. यह दुनिया भर की एक बड़ी समस्या है. औरतें उसी चूल्हा-चौखट, कपड़ा बासन, झाड़ू-पोछा, हाट-बाजार और बच्चों को खिलाने-सुलाने के कामों से जूझती रहती हैं. उनकी एनर्जी और समय की बरबादी होती है जिसकी थकान उनके शरीर को तोड़ डालती है. दिमाग को सुन्न बना देती है. समाज, देश और अर्थव्यवस्था में उनकी भागीदारी मुश्किल होती जाती है और अपने ढंग से जीने की गुंजाइश भी नहीं बचती. मार्केट इकोनॉमी ने पारिवारिक जीवन को नितांत निजी बना दिया है. क्या अच्छा हो कि घरेलू काम और बच्चों की परवरिश भी सामूहिक रूप में और समाजीकृत तरीके से की जाए. श्रम विभाजन हर लिहाज से हो.
अपने देश के ह्यूमन रिसोर्स को संभालने की जिम्मेदारी स्टेट की भी है. इसके बिना किसी देश-समाज की तरक्की कैसे हो सकती है. औरतें आधी आबादी हैं. इसीलिए इसका रास्ता निकालना जरूरी है. उन्हें कोई फेवर नहीं चाहिए. वे अर्थव्यवस्था में योगदान कर ही रही हैं. घर काम को समाजीकृत न किया जाए तो भी राज्य की जिम्मेदारी तो तय होनी चाहिए. वेनेजुएला होम मेकर्स को साल 2006 से न्यूनतम वेतन का 80% पे करता है. फिलीपींस में भी कई साल पहले यह मांग उठी थी. घर काम की सैलरी मिलने से औरतों को मजबूत किया जा सकता है- उसे प्रतिष्ठापूर्ण जीवन मिल सकता है. प्यार और आदर तो उसके साथ मिल ही जाएगा.
(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)