देश तरक्की कर रहा है. पीछे खबर आई है कि पुणे में 21 साल की एक लड़की के शरीर में यूट्रेस ट्रांसप्लांट किया गया है. लड़की में जन्म के समय से ही यूट्रेस नहीं था. वह मां बनना चाहती थी. तो मां ने अपना यूट्रेस उसे डोनेट कर दिया. देश में यूट्रेस ट्रांसप्लांट का यह पहला सफल ऑपरेशन है. खबर अच्छी है, देश में मेडिकल प्रोग्रेस की कहानी कहती है. मां बनना एक अद्भुत अनुभव जो है. जाहिर है हमारे यहां इस अनुभव को पूर्ण ही तब माना जाता है, जब अपना खुद का पैदा किया हुआ बच्चा हो. गोद देने का कॉन्सेप्ट जरा हमारे दिमाग में घुसता नहीं है.
ट्रांसप्लांट ऑपरेशन के लिए अस्पताल को सरकारी मंजूरी की जरूरत पड़ती है. अलग-अलग राज्यों में स्थित अस्पतालों को अलग-अलग अथॉरिटीज से मंजूरी लेनी होती है. वैसे हमारे यहां 1994 का ऑर्गन ट्रांसप्लांट एक्ट इसकी इजाजत तभी देता है, जब अंगदान करने वाला व्यक्ति आपका निकट संबंधी हो. यह ट्रांसप्लांट आसान था-बात मां बेटी की थी. मां ने कहा- मेरे लिए यूट्रेस का कोई मतलब नहीं, अगर मेरी बेटी मां न बन पाए तो. मां हमारे लिए भगवान से भी ऊपर है. वह जन्म देती है. जन्म देने का दर्द सहती है. जन्म देने के बाद पालन-पोषण का दर्द सहती है. इस उपकार से हर कोई तर जाता है. लेकिन मां बनना सिर्फ भावनाओं का ही सवाल नहीं है. इसमें सिर्फ प्रेम नहीं, पैसे भी खर्चने पड़ते हैं. तो लीजिए आप इमोशंस की दुनिया से धड़ाम जमीन पर आ गए.
सच्चाई यह है कि पैसे न हों तो आपके पास किसी इमोशन का स्पेस नहीं होता. हर रिलेशनशिप की ऐसी-तैसी हो जाती है. क्या कोई मानेगा कि हमारे देश में मां बनने के कारण सचमुच कोई गरीब हो जाता होगा. आईआईटी रुड़की की हाल की एक स्टडी में कहा गया है कि प्रसव और शिशु देखभाल के खर्चे के कारण 46.6 परसेंट औरतें गरीबी के गर्त में गिर जाती हैं. हमारे देश में मेटरनल एक्सपेंडिचर यानी मातृत्व व्यय एक सामान्य परिवार की आय के 40 परसेंट के करीब है. पिछले दस सालों में स्वास्थ्य पर होने वाला खर्चा जेब से बाहर हो रहा है और 5 करोड़ से ज्यादा लोग इसकी वजह से गरीबी का शिकार हो रहे हैं. स्टडी में यह भी कहा गया है कि जिन परिवारों में औरतें अंगूठा छाप हैं, उनकी हालत और भी खराब होती है. खून की कमी उनमें सबसे अधिक देखी जाती है.
इसके अलावा दलित और आदिवासी औरतों का तो पूछिए ही मत. वे सरकारी अस्पतालों में जाना पसंद करती हैं. लेकिन अक्सर उनके बच्चों की देखभाल अच्छी तरह से नहीं हो पाती क्योंकि डिलिवरी में ही उनका इतना पैसा खर्च हो जाता है. सरकार तरह-तरह की स्कीमों, जैसे जननी सुरक्षा योजना आदि के जरिए गरीब महिलाओं की मदद करती है. लेकिन क्या उन्हें मदद मिल पाती है? एनएफएचएस-4 का डेटा खुद कहता है कि जननी सुरक्षा योजना के तहत सिर्फ 36.4 परसेंट औरतों को अस्पतालों में डिलिवरी के लिए पैसा मिल पाया है. तो मां बनना इतना भी आसान नहीं. फिर हम अपनी औरतों की सेहत भी कहां संभाल पाते हैं?
देश में हर दो में से एक महिला में खून की कमी है. दूसरे विकासशील देशों की तुलना में हमारे यहां सबसे अधिक कुपोषित महिलाएं हैं. पिछले दस सालों में मातृत्व मृत्यु दर (एमएमआर) में तेजी से गिरावट के बावजूद दुनिया में डिलिवरी से जुड़ी समस्याओं के कारण 15 परसेंट मौतें भारत में ही होती हैं. जाहिर सी बात है, औरतों की जान की कीमत कुछ नहीं- हां, मां बनने की कीमत जरूर चुकानी पड़ती है.
मां बनना औरत की जिम्मेदारी है. अगर नहीं बनेगी तो उस पर बांझ टाइप के लांछन लगेंगे. पूरी औरत ही नहीं मानी जाएगी. शादी के बाद बच्चा पैदा न करना चाहे, तो कैसी औरत. यह अधिकार हमने उसे दिया ही नहीं है. मजे की बात तो यह है कि कहीं-कहीं सरकारी नियम औरतों को अबॉर्शन तक का अधिकार नहीं देते. छत्तीसगढ़ के बैगा समुदाय में औरतों को बच्चा न होने वाला ऑपरेशन कराने का हक सिर्फ इसलिए नहीं है क्योंकि सरकार को बैगा जनजाति को संरक्षित करना जरूरी लगता है. 1979 का एक सरकारी नियम यह कहता है कि इसके लिए उन्हें सरकारी मंजूरी की जरूरत होती है. अब बैगा समुदाय के लोगों ने एक जनहित याचिका दायर करते हुए सरकार से यह नियम वापस लेने को कहा है क्योंकि ऑपरेशन न कराने के कारण हर साल बच्चे पैदा होते रहते हैं, और औरतों की सेहत बिगड़ती जाती है.
मां बनना उनके लिए किसी श्राप से कम है क्या...? अक्सर बच्चा पैदा करने के चक्कर में औरत का सत्यानाश ही हो जाता है. यूट्रेस ट्रांसप्लांट को लेकर भी इसी तरह की चिंताएं जताई जा रही हैं. बायोलॉजिकल मदरहुड की पितृसत्तात्मक स्तुति और रक्त संबंधों के आधार पर 'परिवार' बनाने की जरूरत- इसी ने ऐसे ट्रांसप्लांट्स को बढ़ावा दिया है. जब भी बायोलॉजिकल प्रजनन बाधित होता है, इन तकनीकों का प्रयोग किया जाता है. जब तक औरत मां बनने के दबाव से मुक्त नहीं होगी, तब तक उसके शरीर के हर हिस्से स्पेयर पार्ट्स की तरह बेचा और खरीदा जाता रहेगा. दुनिया बायोटेक्नोलॉजी का मार्केट बन रही है और इसमें औरत सिर्फ एक प्रॉडक्ट बन रही है. युमा शेरपा जैसी औरतें इस दुनिया के ढहने की कहानी कहती हैं जो तीन साल पहले दिल्ली में एग डोनेशन प्रोग्राम की बलि चढ़ चुकी हैं. अपने शरीर में एग्स हार्वेस्ट करने के प्रोसेस में युमा की मौत हो गई. इसीलिए मातृत्व की चिर परिचित अवधारणा से आजाद होने की जरूरत है. यह जिंदगी का हिस्सा हो, न कि पूरी जिंदगी. इसे महिमामंडित करने के बजाय अच्छी और किफायती देखभाल की जानी चाहिए.
हमारे देश में स्वास्थ्य पर जीडीपी का सिर्फ 2.5 परसेंट खर्च किया जाता है. मातृत्व अगर दूसरी दुनिया का शब्द है तो उसे इस दुनिया में भी केयर की जरूरत है. टेक्नोलॉजी का फायदा सामान्य औरतों को मिले. अस्पताल न्यूनतम खर्चे में इलाज करें. साफ-सुथरे हों. दवाएं मुफ्त मिलें. स्वास्थ्यकर्मी अच्छी तरह से व्यवहार करें. फैमिली प्लानिंग से लेकर डिलिवरी तक के बारे में पूरी और सरल शब्दों में जानकारी दें. इसीलिए जरूरत इस बात की है कि मदरहुड को सेफ बनाया जाए- उसे ईश्वरीय नहीं.
नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आकड़ें लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.