‘प्रेज़िडेंट अंकल जी. मेरी मां शबनम को माफ कर दीजिए.’ 12 साल के ताज की स्लेट पर लिखी इस गुहार पर चर्चा अब बेमानी है. अमरोहा के चर्चित बामनखेड़ी कांड की गुनहगार शबनम को जल्द फांसी हो सकती है. यह काफी पहले साबित हो चुका है कि उसने अपने ही परिवार के सात लोगों को जान से मारा है. क्या उसके लिए किसी के मन में दया जाग सकती है? वह देश की पहली औरत होने वाली है जिसे फांसी दी जाएगी. सारी तैयारियां भी हो चुकी हैं. क्या अब भी यह गुंजाइश बनती है कि उस पर रहम करने की अपील की जाए?


वैसे यह गुंजाइश तो हमेशा ही बनी रहेगी कि किसी को रेयरेस्ट ऑफ रेयर मामलों में भी मौत की सजा मिलनी चाहिए या नहीं? जिसे लोग लीगल मर्डर भी कहते हैं. यह बहस काफी लंबी है- जिसके पक्ष और विपक्ष में ढेरों तर्क हैं. जघन्य अपराध करने वालों के साथ रहम नहीं किया जाना चाहिए- आम तौर पर लोगों की यही राय होती है. चूंकि उनकी तरफ से भी पीड़ितों पर दया नहीं की गई थी. इसी के चलते 2018 में नन्हीं बच्चियों के साथ बलात्कार के दोषियों को मौत की सजा देने के लिए क्रिमिनल लॉ में संशोधन भी किए गए हैं. क्या शबनम को उसके अपराध के लिए माफी मिलनी चाहिए?


जरा नन्हे बच्चे की तरफ देखिए
शबनम के बेटे की स्लेट पर लिखी इबारत को देखने आप क्या कहेंगे? जब शबनम ने हत्याएं की थीं, तब वह प्रेग्नेंट थी. जेल में ही उसने बच्चे को जन्म दिया था. अगर जेल में कोई महिला अपराधी या आरोपी बच्चे को जन्म देती है तो बच्चे को उसके साथ छह साल तक रहने दिया जाता है. फिर बच्चे को जेल से बाहर जाना पड़ता है. ताज को भी छह साल बाद जेल से बाहर करके शबनम के एक जानने वाले के सुपुर्द कर दिया गया. पर ताज मां से मिलने जेल जाता रहता है. अपनी मां को फांसी की सजा से वह बहुत आहत है. कोई भी बच्चा हो सकता है. पूरे मीडिया की नजरें उसकी मां की तरफ लगी हैं. उसके जुर्म की कहानियां दोहराई जा रही हैं. फांसी की पूरी प्रक्रिया का ब्यौरा दिया जा रहा है. इससे नन्हे बच्चे की मानसिक स्थिति की कल्पना की जा सकती है.


इस सिलसिले में कांग्रेस की नेता सोनिया गांधी की याद आती है जिन्होंने 2000 में राजीव गांधी की हत्या की दोषी नलिनी की फांसी की सजा को उम्रकैद में बदलने की अपील की थी जिसके बाद तमिलनाडु की गवर्नर फातिमा बीवी ने मौत की सजा को उम्र कैद में बदल दिया था. उस वक्त नलिनी की भी एक बच्ची थी. बीबीसी रिपोर्ट के मुताबिक सोनिया गांधी नहीं चाहती थीं कि नलिनी की बच्ची के सिर से मां का साया उठे.


जेंडर और अपराध के बीच गहरा नाता होता है
यूं जेंडर और अपराध के बीच का संबंध बहुत हद तक सामाजिक होता है जिसे ज्यादातर लोग नजरंदाज करते हैं. जैसे अपराध से अपराधी को अलग करके नहीं देखा जा सकता, उसी तरह अपराध के सामाजिक कारणों को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता जोकि किसी अपराध के इरादे तो प्रभावित करते हैं. अपराध कोई अपवाद नहीं होता, बल्कि समाज के ताने-बाने में गुंथा होता है जिसमें जेंडर एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है. नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी ने 2016 में डेथ पैनेल्टी पर एक स्टडी की थी. इसमें बताया गया था कि जिन 12 महिलाओं को मौत की सजा मिली है, वे सभी या तो पिछड़े वर्गों की हैं या अल्पसंख्यक हैं. यहां तक कि 2005 में हैदराबाद में नेशनल पुलिस एकैडमी के एक लेक्चर में पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने भी इस बात का इशारा किया था कि डेथ पैनेल्टी के फैसले कई बार सामाजिक और आर्थिक आधार पर पक्षपातपूर्ण होते हैं. जैसा कि शबनम के मामले में अदालत ने कहा था कि प्रेमी के प्यार और वासना में वह किस तरह अपने परिवार के प्रति अपने कर्तव्य को भूल गई.


पर मौत की सजा से क्या सुधार संभव है
शायद नहीं. मौत की सजा से अपराधों के रुकने का कोई सबूत नहीं मिलता. विदेशों में कुछ जगहों पर इस तरह के रिसर्च किए गए हैं. किसी एक्सपर्ट का मानना है कि इससे अपराधों में कमी आती है, किसी का यह कहना है कि इसका अपराध पर कोई असर नहीं होता. एटलांटा के एमोरी विश्वविद्यालय में कानून की प्रोफेसर जोआना एम. शेफर्ड का कहना है कि फांसी देने से क्राइम ऑफ पैशन यानी प्रेम के कारण होने वाली हत्याओं में कमी आती है. लेकिन ऐसा तभी होता है जब सजा सुनाने और फांसी देने के बीच की अवधि कम होती है. दिलचस्प यह है कि इस तरह के अध्ययन अपने यहां की सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि के आधार पर नहीं किए गए हैं.


इसके अलावा मौत की सजा पर जजों में भी आम सहमति नहीं है. सेंटर ऑन डेथ पैनेल्टी के डेटा बताते हैं कि 2000 से 2015 के बीच ट्रायल कोर्ट्स ने जिन लोगों को मौत की सजा दी, उनमें से 30% को हाई कोर्ट्स ने रिहाई दे दी. 65% मामलों में मौत की सजा को कम सख्त सजा में बदल दिया गया. जाहिर सी बात है, अगर नए सबूत सामने आ जाते हैं तो मौत की सजा को पलटा नहीं जा सकता. मतलब, अगर सजा दे दी गई, तो फिर कुछ नहीं हो सकता.


मौत का बदला मौत- एक आदिम सिद्धांत है
जैसा कि कंडाला बालगोपाल जैसे ह्यूमन राइट एक्टिविस्ट, गणितज्ञ और वकील का कहना था, डेथ पैनेल्टी एक आदिम युग का सिद्धांत है. आंख के बदले आंख- जो कहता है कि अगर कोई शख्स किसी दूसरे शख्स को मारता है तो उसे भी मरना चाहिए. यह उस दौर का लॉजिक है, जब सजा का मतलब था, बदला लेना. लेकिन जब हम सजा को बदला लेने नहीं, न्याय देने के लिहाज से देखेंगे तो जैसे को तैसा वाला तर्क की बुनियाद हिल जाएगी. तब हम किसी के घर को आग के हवाले करने वाले व्यक्ति के घर को जलाएंगे नहीं. उसे जेल भेजा जाएगा या जुर्माना भरना होगा. किसी के बच्चे को अगवा करने वाले व्यक्ति के बच्चे को उससे दूर नहीं किया जाएगा. तो ऐसे में मौत की सजा को अपवाद क्यों माना जाना चाहिए.


वैसे विश्व के कुल 48 देशों में अब भी डेथ पैनेल्टी दी जाती है, 108 ने पूरी तरह से इस पर पाबंदी लगाई है, सात देश कुछ खास स्थितियों में ही मौत की सजा देते हैं और 28 देशों ने इसे प्रैक्टिस करना बंद कर दिया क्योंकि वहां पिछले 10 सालों में किसी को मौत की सजा नहीं दी गई. एमनेस्टी इंटरनेशनल के आंकड़े कहते हैं कि 2019 में 20 देशों में दोषियों को मौत की सजा दी गई है. चीन हर साल बहुत से लोगों को मौत की सजा देता है लेकिन इसका डेटा रिकॉर्ड नहीं करता. इसके बाद ईरान का नाम आता है जिसने 2019 में 251 से ज्यादा लोगों को डेथ पैनेल्टी दी थी. 2018 में पाकिस्तान में 632 से ज्यादा लोगों को मौत की सजा दी गई थी.


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