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BLOG: क्योंकि टीवी का स्पेस औरतों का अपना स्पेस है

मंत्री महोदय को तकलीफ है कि औरतें टीवी क्यों देखती हैं. देखती हैं तो इतनी मशगूल क्यों हो जाती हैं कि मर्दों की चौधराहट भूल जाती हैं. उस चौधराहट का अहंकार भूल जाती हैं. अपना कथित धर्म भूल जाती हैं. औरतों का कथित धर्म क्या है? दिन भर दफ्तर में थके-मांदे पति का मुस्कुराकर स्वागत करना. उसे चाय-पानी पिलाना. उसे घर में पहनने वाले कपड़े थमाना. उसके हाथ मुंह धुलाना. पत्नियां अपना कथित धर्म भूल गई हैं. क्योंकि वे टीवी देखने में मस्त हैं. टीवी उनका ऐसा भी क्या साथी बन गया है, जो अपने जीवनसाथी को भूल गई हैं.

इस दुख को प्रकट करने वाले मंत्री महोदय गोवा के कला और संस्कृति मंत्री दयानंद मंडरेकर हैं. इससे पहले उनका मंत्रालय दफ्तरों में लड़कियों के स्लीवलेस टॉप और जींस पहनने पर पाबंदी लगाते-लगाते रह गया था. मंत्रालय ने इसे विदेशी संस्कृति का कुप्रभाव बताया था. तब विपक्षी पार्टियों के विरोध के बाद मंत्रालय को यह आदेश वापस लेना पड़ा था. इस बार मंत्री जी अपने देश की संस्कृति, अपनी पारिवारिक परंपरा की चिंता में दुबले हुए जा रहे हैं. पत्नी धर्म खतरे में पड़ा रहा है, तो उसके लिए दुखी हो रहे हैं. धर्म-परंपरा पर खतरा देश पर खतरा है. खतरे में देश हो तो किसे चैन आएगा? वैसे ऐसा नहीं है कि सिर्फ मंत्री महोदय को यह चिंता है. औरतें टीवी देखती हैं तो सब कुछ भूल जाती हैं-ऐसा जुमला फेंकने वाले बहुत से अपने आस-पास मिल जाते हैं. ऐसे जोक्स व्हॉट्सएप पर भी खूब शेयर किए जाते हैं. वैसे व्हॉट्सएप को लेकर भी हंसी-हंसी में ऐसे ही ताने मारे जाते हैं. हमारे-आपके इर्द-गिर्द बसों, दफ्तरों, बाजारों में हंसते-हंसाते हुए अक्सर यह कहा जाता है. कई बार शॉपिंग पर जाते हुए- कई बार किटी पार्टियों पर हंसी-ठट्टा करते हुए. ये चुटकुला तो बचपन से ही सुना है कि दो औरतें एक पेड़ के नीचे चुपचाप बैठी थीं. औरतें टीवी देखते, सहेलियों से बातें करते, उनके साथ शॉपिंग करते, उनके साथ किटी पार्टियां करते- इतनी मस्त क्यों हो जाती हैं कि सब कुछ भूल जाती हैं. बेशक, वे सब कुछ भूल ही जाना चाहती हैं. रोजाना का रूटीन- उसमें बसी ऊब और तल्खी. समेटकर रखा गया अपना उदास एकांत. इसीलिए वे सहेलियो की खिलखिलाहट में डूब जाती हैं. टीवी की दुनिया भी उन्हें एक सहेली सा एहसास कराती हैं. गोपी, इशिता, सिमरन, प्रज्ञा उन्हें अपनी वही सहेलियां नजर आती हैं. जिन्हें दूब की तरह कुचलो तो भी वे दूब की तरह उगी रहती हैं. औरतें ऐसी ही तो होती हैं.

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ओईसीडी देशों के एक सर्वे में कहा गया है कि भारत में पुरुष 24 घंटों में से केवल 19 मिनट घर के कामकाज में बिताते हैं जबकि औरतें 298 मिनट. लेकिन अगर औरतें अपने दिन के 221 मिनट इंटरटेनमेंट, टीवी, घूमने-फिरने में बिताती हैं, तो पुरुष इसी तरह की मौजमस्ती में करीब 283 मिनट खर्च कर देते हैं. काम तो काम है, चाहे घर पर हो या बाहर. लेकिन बाहर काम करने वाली औरतो का समय भी घरेलू कामकाज में मर्दों से ज्यादा ही खर्च होता है. ऐसे में टीवी का स्क्रीन अगर सुकून देता है तो क्या बुरा है? आप हेप एंड हैपेनिंग हैं तो गेमिंग कंसोल आपको कंसोल करेगा. वह भी एक स्क्रीन ही है. नीलसन का एक सर्वे कहता है कि गेमिंग कंसोल अब टीवी व्यूइंग को चुनौती दे रहे हैं. बड़े शहरों में पुरुषों की तरह औरतों ने भी टीवी के साथ-साथ गेमिंग पर अधिक से अधिक समय बिताना शुरू कर दिया है.

फिर भी औरतें टीवी देखना पसंद करती हैं- तभी तो उन्हीं को केंद्र में रखकर टेलीविजन सोप्स बनाए जाते हैं. इनमें हीरोइन भी औरत है तो वैम्प भी औरत. पुरुषों पर कैमरा सिर्फ नाचता भर रहता है. टिका रहता है तो सिर्फ औरतों पर. कई बार सुकून भी होता है कि कम से कम कोई जगह तो ऐसी है जहां सिर्फ औरतों का राज है. उनकी अपनी दुनिया है. इस दुनिया में मर्दों के लिए बहुत कम स्पेस है. यह अलग बहस का मुद्दा है कि टीवी पर अब भी औरतें ट्रेडीशनल रोल में ही हैं- कई बार इसी ट्रेडीशन की चेरी भर रह जाने को विवश. लेकिन फिर भी यह दुनिया उनकी अपनी ही है. दुनिया अपनी हो तो कई बार इस पर अपनी तरह के शासन का मौका भी मिल जाता है. बीते दिनों लीना यादव की पार्च्ड में औरतों के औरतों के साथ ढेरों संवाद थे. एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म मेकर शांता जैकब ने लिखा था- फिल्मों में आम तौर पर औरतों का औरतों से संवाद बहुत कम होता है. किसी भी फिल्म में देख लीजिए. औरत अगर फिल्म की मेन कास्ट है तो भी पुरुष किरदारों के इर्द-गिर्द ही मंडराने को बाध्य है. पार्च्ड इस मामले में अलग थी. सहेलियों के, संगियों की, साथिनों की फिल्म थी. शायद ऐसा संवाद उन्हें टीवी के छोटे स्क्रीन में मिल जाता है. औरतें टीवी इसीलिए देखती हैं. अपने से किरदारों से एक मूक संवाद का आनंद इनमें भरपूर मिलता है. फिर भी किसी को इस बात का दर्द हो सकता है कि वे अपने कथित धर्म को भूल गई हैं. पति सेवा उनका धर्म है इसीलिए शादी के अगले ही दिन लड़की चुपचाप किचन में पहुंच जाती है और सासु मां, जिठानी जी, ननद रानी वगैरह से पूछती है-कोई काम हो तो बताइए. मैं कुछ करूं? मां रात को कितने भी बजे सोए, सुबह पांच बजे हॉस्टल जाने वाले बेटे-बेटी के लिए पूड़ी आचार पैक करना नहीं भूलती. देर सबेर आने वाले रिश्तेदारों के लिए एक्सट्रा खाना बनाने से उसे खीझ जरूर हो, पर बनाती जरूर है. यह सब उसके धर्म-कर्तव्य के दायरे में जो आते हैं. ऐसे में अगर वह अपने लिए स्पेस कैसे तलाश सकती है? tv आदमी दिन भर के बाद (अब रात भर की शिफ्ट के बाद भी) थका-मांदा घर लौटता है तो उसकी सेवा पानी तो जरूरी है. यह बात और है कि ऑफिस ब्रोकर जैसी वेबसाइट में दफ्तरों में काहिली करने वालों में भारतीयों का नाम भी शुमार है. हमारे यहां कॉरपोरेट्स, एमएनसीज के आने के बाद समय बर्बाद करने वाली टर्म्स में एक टर्म डेस्क ब्रेकफास्ट भी जुड़ गया है जिसने सरकारी दफ्तरों में ताशबाजी की जगह ले ली है. सुबह का नाश्ता भी दफ्तर में और लंच के अलावा आधे घंटे की छुट्टी और. इसके अलावा नेट सर्फिंग, मोबाइल चैट वगैरह अलग से. वेबसाइट का सर्वे कहता है कि करीब दो से तीन घंटे लोग रोज बर्बाद करते हैं. फिर भी सेवा तेरा धर्म है. मंत्री महोदय औरतों को सेवा की याद दिलाना चाहते हैं- भले ही उस सेवा का मेवा मनपसंद हो या नापसंद.
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