असीम अपेक्षाएं. बेतरतीब समस्याएं. वादों की लंबी लाइन. उनमें ज्यादातर पूरे नहीं. इतना ही नहीं सभी दावे भी कसौटी पर खरे नहीं उतरते. उस पर सत्ता विरोधी फैक्टर...विपक्ष की रार...संसद में जबर्दस्त तकरार. सरकार के फैसलों पर लगातार जोरदार वार-प्रहार. कहीं कोई कमी नहीं है. गली से लेकर संसद तक विपक्ष कोई मौका नहीं चूक रहा. न ही कोई मुरव्वत. मगर सभी प्रतिकूल परिस्थितियों को मोदी धता बता रहे हैं. एक लाइन पर सभी फैक्टरों पर भारी मोदी फैक्टर...सियासी दंगल में निर्विवाद रूप से मोदी की 56 इंच की छाती का मुकाबला तो दूर कोई नाप लेने वाला भी नहीं मिल पा रहा. सारे सियासी सूरमा दंगल में आने से पहले ही हांफते नजर आते हैं. लोकसभा चुनाव के बाद यदि दिल्ली और बिहार को छोड़ दें तो हर चुनाव में मोदी का करिश्मा और कारगर ही रहा है. प्रदेश स्तर के चुनाव तो दूर, दिल्ली में स्थानीय निकाय के चुनाव में भी मोदी का सिक्का चला. हालांकि, आम आदमी पार्टी ने हाउस टैक्स खत्म करने वाला जो प्रस्ताव दिया था, वही चुनाव जीतने के लिए काफी था. मगर मोदी का चेहरा बीजेपी का ऐसा ट्रंपकार्ड है, जिसके आगे अभी कोई भी मुद्दा या व्यक्ति टिक नहीं पा रहा.
...मैं कहता हूं, मैं बढ़ता हूं, नभ की चोटी चढ़ता हूं....अज्ञेय की बिल्कुल इन्हीं पंक्तियों की तरह...मोदी नित नई ऊचाईयां नाप रहे हैं. वो कह रहे हैं. लोग शिद्दत से सुन रहे हैं. विपक्ष फाउल-फाउल चिल्ला रहा है. घेरेबंदी भी हो रही है. मगर जनता को जैसे उनकी आवाज ही नहीं सुनाई पड़ती. बस अपनी धुन में मगन बैलौस मोदी बढ़ते जा रहे हैं. सियासत के आसमान में लगातार एक नई ऊंचाई की तरफ चढ़ते चले जा रहे हैं. या यूं कहें कि वे हिंदुस्तानी सियासत के सर्गेई बुबका या उसेन बोल्ट हो गए हैं. जिनका मुकाबला खुद से है. जैसे पोलवाल्ट के मैदान में सर्गेइ बुबका हर बार अपना ही रिकॉर्ड तोड़ते थे या अब जैसे रनिंग ट्रैक पर उसेन बोल्ट जब दौड़ते हैं तो दर्शक ही नहीं, उनके साथ दौड़ रहे लोग भी वास्तव में बोल्ट को बस असहाय से आगे निकलता देखने को बेबस नजर आते हैं.
सियासी चुनौती भी नहीं
मोदी की राह विपक्ष में देशव्यापी स्तर पर कोई बड़ा या विश्वसनीय चेहरा न होने से भी और आसान हो गई है. सियासत के मैदान का सच है कि मोदी के मुकाबले विपक्ष का कोई नेता पूरे देश में जिसका सिक्का चलता हो, ऐसा कोई नहीं दिखता. विपक्ष में नेतृत्व की विकल्पहीनता ने मोदी की राह और आसान कर दी है. विपक्ष एकजुट नहीं है और विपक्ष के पास अलग-अलग क्षेत्रों में जरूर कुछ बड़े नाम हैं, लेकिन वे अपने राज्य की सीमाओं में कैद होकर रह गए हैं. विकास और सुशासन के मुद्दे पर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश हैं. ममता बनर्जी लोकप्रियता के आधार पर पश्चिम बंगाल में झंडा गाड़े हैं. तेलंगाना में केसीआर हैं. मगर इनमें से कोई नेता ऐसा है नहीं कि देशव्यापी अपील है. हैदराबाद और चेन्नई जैसी जगहों पर जहां बीजेपी को सीटें नहीं मिलती हैं, लेकिन मोदी की रैलियों में उनका करिश्मा वहां भी साफ नजर आता है.
हालांकि, वास्तव में प्रशासनिक या सुशासन या जनाकांक्षाओं के मोर्चे पर अभी मोदी के सामने चुनौतियां कम नहीं हैं. तीन साल में ऐसा बहुत कुछ है, जिस पर मोदी पर सवाल उठाए जा सकते हैं. मगर किसी विश्वसनीय विपक्षी चेहरे के अभाव में ये सवाल मोदी के कद्दावर और करिश्माई कद के आगे इतने बौने साबित होते हैं कि उनका कोई मतलब ही नहीं रह जाता. बावजूद इसके कि मोदी सरकार में सब कुछ बहुत अच्छा नहीं हो रहा है. अगर उनके पास गिनाने को उज्जवला, जीएसटी, फसली बीमा योजना, मुद्रा, और जन धन आदि तो है, लेकिन बेरोजगारी के मुद्दे पर सरकार के हाथ कुछ ठोस नहीं. विदेश से काला धन भी नहीं आया. नोटबंदी से जिस तरह की आर्थिक क्रांति की आशा थी, वैसा भी कुछ नहीं हुआ. आर्थिक मोर्चे पर भी बहुत कुछ गिनाने को मोदी सरकार के पास नहीं है. जो है, उसे आंकड़ों की बाजीगरी ज्यादा माना जा रहा है. कश्मीर सुलग रहा है. पाकिस्तान भी बाज नहीं आ रहा. नक्सली हिंसा भी फिर सिर उठा रही है. मगर तीन सालों में मोदी के दामन पर भ्रष्टाचार का आरोप न होना, कम बड़ी उपलब्धि नहीं है. बड़े और कड़े फैसले लेने की उनकी साहसिक छवि भारतीय जनमानस के दिलो-दिमाग पर लगातार तारी है. एक समृद्ध और शक्तिशाली भारत निर्माण की दिशा में मोदी ने आस और भरोसा जगा रखा है. बल्कि यूं कहें कि ये भरोसा दिन पर दिन बढ़ रहा है तो गलत नहीं होगा.
मोदी त्रिशूल
भारतीयों के दिलों और दिमाग में मोदी किसी काले जादू का प्रयोग कर घर नहीं कर गए हैं. बल्कि रणनीतिक, राजनीतिक और व्यवहारिक स्तर पर ‘मोदी त्रिशूल’ का यह अचूक वार है. मोदी फैक्टर को अचूक और अकाट्य बनाने वाल यह त्रिशूल है...नीतियां, व्यक्तित्व और संवाद. इन तीनों फैक्टरों का त्रिशूल मोदी ने लगातार अपने राजनीतिक कौशल के सियासी तप और जप कर ऐसा गाड़ा है कि उनका डमरू लगातार ढिमक...ढिमक बज रहा है और सियासत के इस नए ककहरे पर भारतीय जनता झूम रही है. विपक्ष लाख सम्मोहन मारण उच्चाटन मंत्र का जाप कर रहा हो, लेकिन उसका हर वार उलटा ही पड़ रहा है. दरअसल, जिन हालात में पिछली सरकार गई, उस समय देश में बहुत नकारात्मक माहौल था. खासतौर से विश्वास का संकट था. इसीलिए मोदी सरकार के पास बहुत कुछ ठोस दिखाने को नहीं है, लेकिन मोदी जो कर रहे हैं, वह देश और समाज के लिए अच्छा होगा, यह आस या भरोसा तीन साल में मोदी के त्रिशूल को और मारक और प्रभावी कर रहा है.
नीतियों व वादों में जनभागीदारी
मोदी सरकार ने बनने के साथ ही नीतियों के साथ भी जनता को जोड़ा. बड़ी नीति हो चाहे छोटी...हर मसले पर जनभागीदारी का शासन-प्रशासन में नया अध्याय जोड़ा. राष्ट्रीय स्तर पर आम जीवन के उन पहलुओं को वे राष्ट्रीय स्तर पर लाए, जिन पर पहले इस तरह से और शीर्ष स्तर पर चर्चा नहीं होती थी. अब उज्जवला योजना को ही लें. मोदी ने गांवों में गरीब महिलाओं को धुएं से मुक्ति देने के लिए गैस कनेक्शन की योजना बनाई. सरकारी सब्सिडी का बोझ कम करने के लिए देश के उच्च और मध्य वर्ग से सब्सिडी छुड़वाई और जितने लोगों ने छोड़ी, उतने ही गरीबों के घर में गैस का चूल्हा जला.
इसी तरह स्वच्छता को जनता के भले और उसकी जिम्मेदारी से जोड़ा. चाहे बेटी बचाओ अभियान हो या फिर योगा, सभी नीतियों में सामाजिक भागीदारी को जोड़ा. यहां तक कि बजट बनाने से लेकर शिक्षा की नीतियों को बनाने में भी जनता से रायशुमारी की गई. माईगव या नरेंद्रमोदी. इन जैसे एप के जरिये सीधे जनता से तमाम विषयों पर राय मांगी. समय-समय पर नीतियां जब बनीं तो सुझाव देने वाले लोगों को खुद पीएम और सरकार ने भी जिक्र किया. यह भले ही प्रतीकात्मक स्तर पर रहा हो, लेकिन जनता को यह अहसास दिलाया कि उनकी भी सरकार में सुनी जाती है. उनकी राय का महत्व है. यह भाव अहम है.
मोदी का एसटीपी या संवाद
एस मतलब सेगमेंटिंग यानी किसके बीच बात रखनी है. दूसरी यानी टारगेटिंग मतलब कौन लक्ष्य है. तीसरी पोजिशनिंग यानी किसी भी मुद्दे या परिस्थिति में किस तरह से पेश आना है. मोदी इन तीनों ही मोर्चों पर पूरी तरह सतर्क रहते हैं. वे किस तबके के बीच हैं, उसके लिहाज से ही अपनी बात रखते हैं. उद्योगपतियों के बीच गए तो उनके विषय पर ही बोलेंगे. इसी तरह आम आदमी से वह उसके मतलब की बात बोलोंगे. युवा, महिला जैसा भी तबका होगा और वह जो सुनना चाहता होगा, उसकी बात करेंगे. इसी तरह वह जो आयोजन है, उसका लक्ष्य भी नहीं भूलते. विकास पर पूरा जोर देने के बावजूद सियासी जरूरत के लिहाज से पीएम पद के लायक न समझे जाने वाले मुद्दों पर भी बोलने से वे गुरेज नहीं करते. यूपी में हिंदुत्व पर पर वह प्रखर होते हैं और श्मसान और कब्रिस्तान का मुद्दा भी उठाने से भी उन्होंने संकोच नहीं किया.
उनकी एक टीम नेपथ्य में मुद्दों और वक्त की नजाकत के लिहाज से उनको फीडबैक देती रहती है. उसी लिहाज से वह सियासी मंच पर आगे आते हैं. किसी भी मुद्दे पर कैसे पोजिशनिंग करनी है या उसे क्या मोड़ देना है, उसमें मोदी को महारथ हासिल है. 2007 में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने 'मौत का सौदागर' क्या कहा कि मोदी ने पूरी चुनावी बाजी ही पलट दी. इसी तरह अय्यर ने चायवाला का कटाक्ष किया तो मोदी ने पूरे देश में गरीब बनाम सत्ताधीश की लड़ाई में इस एक जुमले को परिवर्तित कर दिया. पूरे देश में चाय पर चर्चा जैसे इवेंट आयोजित कर कांग्रेस और विपक्ष को संभलने का मौका ही नहीं दिया. अभी हाल ही में अखिलेश के 'गुजरात के गधे' के जुमले को कैसा घुमाया यह भी सबने देखा अभी दो माह पहले ही देखा है.
मजबूत व्यक्तित्व, कड़े कदम
मोदी की छवि फिलहाल टेफलॉन कोटेड है. विपक्ष के किसी प्रहार का असर होना तो दूर, खरोंच तक नहीं आती. मोदी परंपरागत राजनीति से हटकर कई अलोकप्रिय फैसले बिना किसी हिचक के लेते हैं. मसलन 2007 में जब पंजाब में एनडीए और हरियाणा में कांग्रेस की सरकारें किसानों के बिजली के बिल माफ कर रही थीं, उस समय मोदी ने गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर ऐन चुनाव से पहले बिजली का बिल न जमा करने वाले किसानों के हाथों में बेड़ियां डलवा दी थीं. मतलब उन्हें जेल भेज दिया था. इसके बावजूद वे चुनाव डंके की चोट पर जीते. अभी नोटबंदी जैसा खतरनाक और आलोकप्रिय फैसला भी वह अपने पक्ष में मोड़ ले गए. जिस समय जनता लाइन में खड़ी थी. विपक्ष पूरी तरह से मोदी पर हल्ला बोल रहा था. उसी समय मोदी ने चुनावी रैलियों में इस फैसले को कालाबाजारियों, भ्रष्टाचारियों बनाम आम और गरीब आदमी बना दिया.
यहां तक कि आम आदमी को भी परेशानियों में कोई उल्लेखनीय कमी नहीं आती दिख रही, लेकिन राष्ट्र प्रथम के मोदी के नारे और उसके पीछे की नीयत पर जनता अभी भरोसा कर रही है. मोदी जो कर रहे हैं, वह अंततः राष्ट्रहित में होगा, इस भाव ने जनता ने सरकार से शिकवों और शिकायतों को भी बैकसीट पर डाल दिया है. लोग महसूस कर रहे हैं कि मोदी जो कदम उठा रहे हैं, वे यदि पहले ही उठाए जाते तो शायद भारत की तस्वीर और तकदीर कुछ अलग ही होती है. अब देर से ही सही, लेकिन सरकार की तरफ़ से हुई कुछ शुरूआतों से जनता को जो उम्मीद बंधी है, वह उसकी क़ीमत अभी तो चुकाने को भी तैयार दिखती है.
(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आकड़ें लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)