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ऑनलाइन दंगल में क्यों हार गईं जायरा?

ये दंगल तो जायरा वसीम हार गई. उस दंगल में उसने फब्ती कसने वाले लड़कों को धूल चटाई थी लेकिन इस दंगल में वह खुद धूल फांकने को मजबूर कर दी गई. सोशल नेटवर्किंग साइट्स के दंगल को जीतना सचमुच मुश्किल है. लड़कियां इस दंगल को लगातार हार रही हैं और यह बहुत दुखद है.

दंगल फिल्म में खूब वाहवाही बटोरने वाली जायरा वसीम 16 साल की नन्ही बच्ची है. जम्मू कश्मीर की है और अपनी मर्जी की जिंदगी जीने की ललक रखती है. पर लोगों को उसके इस हक से तकलीफ है. उसके फिल्म में काम करने, बाल कटवाने या किसी पॉलिटीशियन से मिलने पर ऐतराज है. सो, उसके खिलाफ सोशल मीडिया पर बवाल मचा दिया गया.

ऐसा हर दिन होता है. किसी न किसी लड़की को सोशल मीडिया पर लताड़ा जाता है. लड़की सिलेब्रिटी होती है तो सब जान जाते हैं, हमारे-आपके घर की होती है तो चुपचाप एकाउंट डिलीट कर देती है. 2013 में तो पूरा का पूरा म्यूजिक बैंड ही डिलीट हो गया था. लोगों को ऐतराज था कि कश्मीर में लड़कियां म्यूजिक बैंड कैसे बना सकती हैं. सो, नोमा, अनीका और फराह ने प्रगाश को खत्म कर दिया. प्रगाश उनके बैंड का नाम था- कश्मीरी में जिसका मतलब होता है, अंधेरे से उजाले की ओर. यह दिलचस्प है कि जिस पॉलिटीशियन से मिलने पर जायरा को ट्रोल का शिकार होना पड़ा, उसी ने प्रगाश के खिलाफ 2013 में फतवा जारी किया था.

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सोशल मीडिया कितने ही उजालों को अंधेरों में बदल रहा है. कितने ही सपनों की रोजाना रगड़ाई करता है. सपने देखने का हक हमें नहीं. हम औरते हैं. बकौल, सिमोन द बोउआर, हम पैदा नहीं होतीं- हम बनाई जाती हैं. हमें तो पैदा होने के हक भी नहीं मिलता. सोशल मीडिया अपने लतीफों में भी हमारी पैदाइश के हक को जमींदोज करने में मजे लेता है. व्हॉट्सएप का एक लतीफा है- भारत के सेक्स रेशो पर 1000 लड़कों पर 943 लड़कियां हैं जिसका मतलब है 57 लड़के सिंगल रह जाते हैं... और यही लड़के आगे चलकर अटल, कलाम, रतन टाटा और मोदी बन जाते हैं. बाकी के 943 लड़के तीन सीटी के बाद कुकर को चेक करते हैं और गैस सिलिंडर का नॉब बंद करते हैं. सो, यहां भ्रूण हत्या जैसे गंभीर मसले को भी पांच लाइन के व्यंग्य में निपटा दिया जाता है.

लताड़ा जाना हमारी आदत है. यहां तक बर्दाश्त किया जा सकता है लेकिन सोशल मीडिया की लताड़ गाली-गलौच से आगे निकल जाती है. बलात्कार और हत्या की धमकी से लेकर ऊपर से नीचे तक छील देने की कोशिश- आपने अपने विचार प्रकट किए नहीं कि ढोल नगाड़ा समझकर बजाना शुरू. सिंगर सोना महापात्र ने 'सुल्तान' की रिलीज से पहले सलमान खान के रेप कमेंट का विरोध किया तो सलमान के फैन्स ने उन्हें ट्विटर पर गालियां देनी शुरू कर दीं. सोना को लिखना पड़ा- फैन्स के कमेंट्स से ही पता चलता है कि उनके हीरो ने उनके लिए कैसा रोल मॉडल सेट किया है.

एक्टिविस्ट कविता कृष्णनन को एंटी रेप प्रोटेस्ट पर वेब चैट में बलात्कार की धमकी मिलती है. शिकारी कहता है- लड़कियों से कहो, वे उत्तेजक कपड़े मत पहनें, हम उनका रेप नहीं करेंगे. वैसे यहां आप अपनी बात कहें न कहें, आपकी किसी भी हरकत पर आपको ट्रोल का शिकार होना पड़ सकता है. क्रिकेटर मोहम्मद शमी को सिर्फ इसलिए ट्रोल का शिकार होना पड़ा क्योंकि उनकी बीवी ने स्लीवलेस ड्रेस पहनी. साउथ इंडियन ऐक्ट्रेस ट्रिशा को ट्विटर पर अपना एकाउंट सिर्फ इसलिए डिलीट करना पड़ा क्योंकि जलीकट्टू समर्थकों को उनका पेटा से जुड़ा होना रास नहीं आया. ऐक्ट्रेस अनुष्का शर्मा को ब्वॉयफ्रेंड कहे जाने वाले क्रिकेटर विराट कोहली के खराब फॉर्म का जिम्मेदार बताया गया और सोशल मीडिया पर उनकी ऐसी की तैसी की गई.

हां, ये सेलिब्रिटी हैं और इसीलिए उन पर सभी का ध्यान जाना स्वाभाविक है. इनके पक्ष में कुछ लोग खड़े हो भी जाते हैं. ये खुद भी अपनी बात कहने की हिम्मत रखती हैं. पर हमारे जैसी दूसरी औरतों का क्या... जायरा वसीम सी नन्ही बच्चियों का क्या जिनके सपनों ने अभी पंख टटोलने की शुरुआत की है. गैर सरकारी संगठन फ्रीडम हाउस का एक सर्वे कहता है कि ऑनलाइन एब्यूस का शिकार होने वाली 38 परसेंट औरतें इसके खिलाफ आवाज उठाने से बचती हैं. 28 परसेंट कहती हैं कि एब्यूस का शिकार होने के बाद उन्होंने अपनी ऑनलाइन मौजूदगी ही कम कर दी. 30 परसेंट इसे अपसेटिंग कहती हैं और 15 परसेंट का कहना है कि इससे उन्हें जबरदस्त मेंटल ट्रॉमा जैसे डिप्रेशन, स्ट्रेस और नींद न आने जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ा, फिर भी उनमें से बहुत कम ऐसा मानती हैं कि ऑनलाइन एब्यूज, हिंसा के बराबर है.

इस सर्वे में शामिल 30 परसेंट औरतों को तो यह भी नहीं मालूम कि उन्हें ऑनलाइन एब्यूस से बचाने वाला कोई कानून भी है. इसकी शिकार होने वाली एक तिहाई औरतों का कहना है कि उन्होंने एब्यूस की शिकायत दर्ज कराई लेकिन शिकायत दर्ज कराने वाली 38 परसेंट को इससे कोई मदद नहीं मिली.

जाहिर सी बात है, सोशल मीडिया प्लेटफॉर्मों पर एब्यूस को रिपोर्ट करने का मकैनिज्म बहुत कमजोर है. पीड़ित एब्यूस को शिकायत करने की बजाय उन्हें ब्लॉक करते हैं लेकिन ब्लॉक करना भी कई बार काम नहीं आता क्योंकि शिकारी संगठित तरीके से कैंपेन चलाते हैं- कई-कई एकाउंट्स का इस्तेमाल करते हैं. पत्रकार स्वाति चतुर्वेदी की किताब आई एम अ ट्रोल में ट्रोल करने वालों की ऐसे ही संगठित फौज का जिक्र है जो पैसे लेकर किसी को भी ऑनलाइन पिछियाने में लग जाते हैं. इनमें अनाम से लेकर बड़े नाम तक हो सकते हैं. कोई पैसे लेकर ट्रोल करता है तो कोई पैसेवाला, प्रभुत्व वाला होकर.

ऑनलाइन दंगल में क्यों हार गईं जायरा?

आप कुछ मत करिए- कुछ मत कहिए. अपनी राय प्रकट मत कीजिए- ऑनलाइन या लाइन तोड़कर बाहर खुले में. तभी अमेरिका में पिछले दिनों महिलाओं का सड़क पर उतर आना, राष्ट्रपति ट्रंप को ही नागवार गुजरा. वह ट्रोल से बाज नहीं आए. ट्विटर पर लिख डाला- प्रदर्शनकारियों को देखकर मुझे लगा कि हमारे यहां अभी चुनाव हुए हैं- मैं कहता हूं कि विरोध करने वाले वोट क्यों नहीं देते? ट्रंप के सपोर्टर भी ट्रोल करने से बाज नहीं आते. अमेरिकी चुनावों के दौरान तो महिला मीडियाकर्मियों को इसकी खूब मिसाल देखने को मिली थी.

फिर भी जायरा जैसी बच्चियों का घबराना स्वाभाविक है. पर इस घबराने से काम चलने वाला नहीं है. उसे आना होगा, सवाल पूछना होगा- स्त्री मुक्ति से लेकर देह मुक्ति तक के विमर्श करने होंगे. इतने सवाल पूछने होंगे कि एक-एक सवाल पर दम निकले. देर तक उलझना होगा. कहना होगा कि विचार आपके भी हैं, विचार हमारे भी. पसंद नापसंद हम सबकी है. बेशक आपको आजादी समझ नहीं आती, लेकिन सर्टिफिकेट देना आता है. पर हमें किसी का सर्टिफ़िकेट नहीं चाहिए. हम जो हैं- प्रकट हैं. हम थोपी हुई हर नैतिकता, हर नियम के खिलाफ हैं- हम प्रतिरोध से उपजे हैं. हमें न समझाइए. बहुत सोच-समझ कर राय बनाते हैं. चाहे दाएं को सूट करे या बाएं को. जायरा और हमें मिलकर इस दंगल को जीतना ही होगा.

नोट: उपरोक्त लेख में व्यक्त दिए गए विचार लेखक के निजी विचार है. एबीपी न्यूज़ का इनसे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कोई सरोकार नहीं है.

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