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BLOG: क्या चौथी बगावत करेगा बहुगुणा परिवार?

उत्तराखंड की राजनीति काफी हद तक स्व. हेमवती नंदन बहुगुणा से प्रभावित रही है.  दो ऐसे अवसर आए हैं जहां कांग्रेस के शामियाने को छोड़कर उसे ललकारा गया. दोनों ही बार हेमवती नंदन बहुगुणा ने कांग्रेस को छोड़ा था. इस परिवार की कांग्रेस से तीसरी बगावत तब हुई जब विजय बहुगुणा कांग्रेस को छोड़कर बीजेपी में शामिल हुए.

इसी तरह अब उनकी बहन और कांग्रेस की वरिष्ठ नेता डा. रीता बहगुणा के कांग्रेस छोडकर बीजेपी में आने  की चर्चा  परिवार की चौथी बगावत के रूप में देखा जा सकता है. हालांकि परिवार की इन बगावतों में उसका स्वरूप और क्षेत्र अलग अलग रहा है. जहां एच एन बहुगुणा राष्ट्रीय क्षितिज पर कांग्रेस के शीर्ष परिवार से मतभेदों के चलते दो बार कांग्रेस से अलग हए वहीं विजय बहुगुणा उत्तराखंड में राज्य के मुख्यमंत्री हरीश रावत से अपने वर्चस्व और द्वंद्व की लडाई में अलग हुए. जबकि राजनीतिक हलकों में कहा जा रहा है कि रीता बहुगुणा यूपी की राजनीति में काफी समय से अपनी उपेक्षा महसूस कर रही हैं. खासकर शीला दीक्षित को यूपी का चेहरा बनाए जाने के बाद से धीरे धीरे उनकी राजनीतिक गतिविधियां भी कम दिखने लगी. और जहां राहुल गांधी के यूपी मे खटिया वार्ता के आयोजन जोर शोर से किया गया, तब भी रीता बहुगुणा उसमें नजर नहीं आई. जबकि इससे पहले यूपी में कांग्रेस के नाम पर जितना कुछ प्रचार तंत्र में संभव था, उनकी सक्रियता नजर आती थी. बदलते राजनीति माहौल में उन्होंने बीजेपी का दामन थाम सकती हैं.

रीता बहुगुणा का बीजेपी में प्रवेश को वह इस रूप में लोगों के समझ रख सकती है कि कांग्रेस के पुराने तजुर्बेकार नेता बीजेपी से जुड़ रहे हैं. चुनाव से पहले आमतौर पर दल बदलने वाले नेता उन पार्टियों के प्रति रुझान दिखाते हैं जिनके पक्ष में माहौल बनता हुआ दिखता है. इसके अलावा बीजेपी उन्हें ब्राहमण चेहरे के तौर पर प्रचार को प्रभावी बना सकती है. यूपी की राजनीतिक भूमि में एचएन बहुगुणा का प्रभाव रहा है, कहीं न कहीं रीता बहुगुणा उऩ मतदाताओं को झकझोरने का प्रयास कर सकती हैं.  एचएन बहगुणा की समाजवादी और धर्मनिरपेक्षता के जो राजनीतिक आधार रहे हैं वो समय के साथ इस मोड़ पर पहुंचे हैं कि उनके बेटे विजय बहगुणा बीजेपी से अपने को जोड़ चुके हैं. रीता बहुगुणा को भी इस नए परिवेश में शायद ही कोई दिक्कत आए.

चर्चा में तो यह भी है कि विजय बहुगुणा को देर सबेर राज्यपाल बनाया जा सकता है. और रीता बहगुणा उत्तराखंड की राजनीति में भी सक्रिय हो सकती है. अब यह अलग पहलू है कि यूपी या उत्तराखंड में आज के हालातों में रीता बहगुणा की अपनी धमक कितनी है. लेकिन अगर वह इन दो राज्यों को जीतने की मंशा पाले बीजेपी के अभियान का एक सशक्त हिस्सा तो बन ही सकती है.  उनके भाई विजय बहुगुणा जहां अपने ही घेरे में रहने वाले, विवादों से घिरे नेता के रूप में देखे गए और पहाड़ों में लोगों से उनका सहज संवाद नहीं हो पाया, वहीं उनकी तुलना में रीता बहुगुणा को संपर्क साधने की कला में प्रवीण है. वह किसी हद तक मुखर भी हैं.

एच एन बहुगुणा जब दूसरी बार कांग्रेस को छोड़कर बाहर आए थे तो उन्होंने पहाड़ी जनता को इस भावना से झकझोरा था कि हिमालय टूट सकता है, लेकिन झुक नहीं सकता.  सीधे सीधे वह उस कांग्रेस को चुनौती देकर बाहर निकले थे, जिसकी पार्टी संस्कृति में वह रचे बसे थे. जिससे दूर छिटक कर उनकी राजनीतिक धारा की कल्पना नहीं की जा सकती थी. लोकसभा की सीट छोडकर वे गरजते हुए कांग्रेस से बाहर आए थे. अपनी चुनौतियों के साथ. देश जान चुका था कि इंदिरा गांधी के छोटे बेटे संजय गांधी के साथ उनकी निभ नहीं रही.  इससे पहले का वो समय, जब उन्होंने आपातकाल के बाद कांग्रेस को छोड़ा था और बाबू जगजीवन राम के साथ कांग्रेस फॉर डेमोक्रेसी बनाई थी.  थोड़े अंतराल में इसका जनता पार्टी से मिलना स्वाभाविक था.  कहना होगा कि दोनों ही बार पहाड़ की जनता ने अपने जननायक का पूरा साथ दिया.

लेकिन जब उनका बेटा कांग्रेस से बगावती तेवर के साथ है, तो पहाड़ का यही जनमानस ने इसे एक राजनीतिक दांव ही माना. और सीधे सीधे कांग्रेस के अंदर के दो शीर्ष नेताओं की टकराहट इस कदर बढी कि एक को धुर विरोधी बीजेपी का हाथ थामना पड़ा. हालांकि कहा यह भी जाता है कि विजय बहुगुणा के बीजेपी से पहले भी आमंत्रण मिलता रहा है. बीजेपी उनको साथ लेकर बहुगुणा के पहाड़ों में प्रभाव का इस्तेमाल करना चाहती थी. लेकिन विजय ने कांग्रेस में जाना ही ठीक समझा.

कांग्रेस से बगावत करने वाले या सिमटे रहने वालों के लिए लोगों में न कोई उत्साह बचा, न कोई उत्सुकता.  बहुगुणा परिवार की पहली दो बगावतों से अलग बहुगुणा के बेटे विजय बहुगुणा की बगावत को लेकर सनसनी तो रही लेकिन धमक नहीं. पहाड़ों में खास प्रतिक्रिया नहीं हुई.  यह हेमवती नंदन बहुगुणा और उनके बेटे की जनमानस पर पैठ के अंतर को साफ करता है. हेमवती नंदन बहुगुणा के लिए पहाड़ के लोगों में गहरा आदर था.

लेकिन विजय अपने डेढ दशक में उत्तराखंड के लोगों से किसी तरह का संवाद नहीं बना सके. उनकी पूरी कार्यशैली केवल राज करने के लिए कोशिशों पर टिकी दिखती है. इसलिए यह तीसरी बगावत में न नगाडा बजा न ढोल. अब परिवार की चौथी बगावत होती है तो इसके पीछे सीधा आशय यही होगा कि रीता बहुगुणा कहीं न कहीं पार्टी मे अपने को उपेक्षित पा रही है. साथ ही यह बीजेपी इसे अपने मनोबल को बढने के तौर पर देख सकती है.

किसी समय दशकों से कांग्रेसी संस्कृति में पले बढ़े, नेहरूजी को आदर्श मानने वाले एचएन बहुगुणा कभी यह घर छोड़कर जा सकते हैं इसकी कोई कल्पना नहीं करता था. इलाहाबाद से ही उनका नाता नहीं था बल्कि वह नेहरू परिवार के साथ गहरे जुड़े थे. इसके अलावा उनकी राजनीति के तेवर शैली उस राजनीति के ही करीब थी, जिसमें कांग्रेस के उच्च शिखर से निचले कार्यकर्तांओं को दक्ष किया जाता था. बहुगुणा और जगजीवन राम ने उस घर को छोड़ा था. कांग्रेस के साथ डेमोक्रेसी शब्द जोड़ने का भाव ही यह था कि जिस कांग्रेस में वे अब तक थे, उसमें डेमोक्रेसी नहीं रही. इसलिए आपातकाल के बाद एक नए दल को बनाने की जरूरत हुई. उस उद्वेग में माहौल ऐसा था कि जनसंघ को भी जोड़कर जिस जनता पार्टी को बनाया गया उसमें तमाम उलझने वाले सवाल पीछे छूट गए थे.

केवल दक्षिण के कुछ इलाकों को छोड़ कर पूरे भारत में कांग्रेस खासकर इंदिरा गांधी को एक सबक देने की तैयारी थी. गाय बछिया का चिन्ह हलधर किसान से हार गया था. हेमवती नंदन बहुगुणा के साथ वामपंथी धारा और पार्टियां अपना स्वाभाविक रिश्ता रखती थी. साथ ही मुस्लिम बिरादरी में वह स्वीकार्य़ नेता थे. आगे अलग इतिहास है कि किस तरह 18 महीने में ही जनता पार्टी बिखर गई. एक बार फिर बहुगुणा कांग्रेस में वापस लौटे .

दोनों बगावतों में पहाड़ी जनमानस उनके साथ था. बहगुणा वापस कांग्रेस में लौटे और कहा गया कि भांजे (संजय गांधी ) ने मामा को मना लिया.  लेकिन बहुगुणा की दूसरी बगावत के लिए कुछ दिन बाकी थे. बहुगुणा कांग्रेस में तो लौटे लेकिन इंदिरा जी के मंत्रिमंडल में प्रणव मुखर्जी, बसंत साठे, शिवशंकर शंकरानंद, बूटा सिंह आदि के नाम लिए जा रहे थे, वहां हमेवती नंदन बहुगुणा का नाम शामिल नहीं था. उन्हें कहने के लिए महासचिव बनाया गया लेकिन कार्यालय महज दिखावटी रह गया.

हेमवती नंदन बहुगुणा ने यह स्थिति स्वीकार नहीं की. और हिमालयी संवेदना जगाते नारों के साथ फिर कांग्रेस को छोड़ा . लेकिन इस बार तुरुप के पत्ते की तरह उस लोकसभा सीट को भी त्याग दिया, जिससे वह सांसद बने. उसी सीट पर जब उपचुनाव हुआ तो वह ऐतिहासिक चुनाव कहलाया. इंदिरा गांधी के निधन के बाद लोकसभा चुनाव में सहानुभूति की बयार में बड़े बडे किले उखड़ गए. इलाहाबाद में अमिताभ बच्चन ने हेमवती नंदन बहुगुणा को हरा दिया.

बहुगुणा परिवार की तीसरी बगावत इस बारहोली के करीब एक हफ्ते पहले हुई है. विजय बहुगुणा मुख्यमंत्री पद से हटाए जाने के बाद कांग्रेस में कई बातों की मांग कर रहे थे. कहा जाता है कि वह अपने तीन खास लोगों को मंत्री पद दिलाना चाहते थे. उनकी कोशिश राज्यसभा में जाने की भी रही. लेकिन कांग्रेस ने राज बब्बर को टिकट दिया. हालांकि इससे पहले उनकी बातें हाईकमान पूरी करता रहा. विजय बहुगुणा ने लगातार कोशिश की कि वे भले सत्ता में नहीं हो लेकिन पहाड़ों की राजनीति में उनका वर्चस्व बना रहे. जोड़तोड उठापटक का दौर यहां तक चला कि विजय बहुगुणा बगावत के लिए तैयार हुए. यह अलग बात है कि इस बागवत का मुख्य सूत्र कहां है. सियासी जानकार कहते हैं कि सतपाल महाराज ने जिस रोज कांग्रेस छोडी उसी दिन से इस थियेटर की कहानी बुननी शुरू हो गई थी. कुछ कयास है कि राज्य के मंत्री हरक सिंह अपने को इन हालातों में कमजोर पा रहे थे. वह कुछ खास विभाग चाहते थे. कारण जो भी हों विजय बहुगुणा की बगावत तीसरी बगावत थी.

एक समय यूपी में एकछत्र राज करने वाली कांग्रेस को अपनी जमीन खोए एक अर्सा हो गया है. लगभग ढाई दशक से कांग्रेस वहां केवल अपनी सांकेतिक उपस्थिति ही दर्ज करा पा रही है. कांग्रेस जिस परिस्थिति में भी रही हो लेकिन इतना जरूर था कि रीता बहुगुणा ने कांग्रेस के ध्वज को अपने हाथों में संभाले रखा. छोटे मोटे सभी आंदोलनों में वह शिरकत करती रहीं. पार्टी को जोड़ने की कोशिश करती रहीं.  विधानसभा चुनाव में लखनऊ सीट पर वह चुनाव जीत कर आई. कांग्रेस जब फिर से राज्य में अपनी जड़े तलाश रही है अपने खोए वोटरों को फिर से पाना चाहती है तब रीता बहुगुणा ने शायद महसूस किया कि इस लडाई में उन्हें हाशिए पर रखा जा रहा है.

शीला दीक्षित को मुख्यमंत्री के रूप में प्रस्तुत करना और राज बब्बर को राज्य इकाई का अध्यक्ष बनाने के बाद वह सक्रिय भी नहीं दिखीं. इसमें अगर बहुगुणा परिवार की चौथी बगावत के स्वर देखे जा रहे हों तो आश्चर्य़ नहीं. हालांकि कांग्रेस और उऩके भाई विजय बहुगुणा ने इससे इंकार किया है.

Note: ये लेखक के निजी विचार हैं, इससे एबीपी न्यूज़ का  कोई संबंध नहीं है.

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