उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव विकास के साथ शुरु हुए थे और कसाब से होते हुए गधा तक पहुंच गये हैं. अगर गधे बोल सकते तो जरुर चुनाव आयोग का दरवाजा खटखटा चुके होते . यही कहते हैं कि हम न तो वोटर हैं, न ही हम में से कोई चुनाव में खड़ा हुआ, किसी सियासी दल का चुनाव चिन्ह भी गधा नहीं है और किसी भी सियासी दल ने अपने घोषणा पत्र में हमारे विकास का कोई वायदा नहीं किया है. ऐसे में हम जैसे सीधे सादों और काम के मारों को क्यों बेवजह चुनावों में घसीटा जा रहा है. क्यों कोई नेता यूपी के गधों की तुलना गुजरात के गधों से करता है. कोई हमारी बेबसी पर आंसू बहाता है तो कोई हमसे प्रेरित हो रहा है. अगर कोई सचमुच हमारे काम से प्रेरणा हासिल कर रहा है तो फिर उसके दल को चाहिए कि हमें चुनावी सभा में ले जाना शुरु करें. अपने भाषण की शुरुआत हमसे करवाए और हमारे सर पर हाथ रख कर कमस खाए कि जैसे हम हमारे मालिक के वफादार होते हैं उसी तरह सियासी दल भी चुनाव जीतने के बाद वोटरों के प्रति अपनी वफादारी निभाएगा और अपने चुनावी घोषणा पत्र को सौ फीसद अमल में लाएगा. अगर वह दल ऐसा नहीं कर पाएगा तो वोटर उसे अगली बार गधे पर सवार कर देगा.


वैसे सूत्र बता रहे हैं कि गधे प्रधानमंत्री के संबोधन से खुश हैं. आजादी के 79 सालों में आज तक किसी प्रधानमंत्री छोड़ किसी मुख्यमंत्री तक ने गधों को इतनी तवज्जो नहीं दी जितनी इस बार मिली है. आमतौर पर तो गधा कहीं का कह कर गधों को ही गाली दी जाती रही है. चुटकुला चलता है कि एक बार एक कुम्हार ने अपनी बेटी की शिकायतों से तंग आकर उसकी शादी गधे से करने की धमकी दी. उस दिन से गधा रात दिन काम में जुता रहता, मालिक की हर मार सहता सिर्फ इस उम्मीद में कि एक दिन मालिक अपनी धमकी पर अमल करेगा . गधों का इस से ज्यादा अपमान और क्या हो सकता है लेकिन प्रधानमंत्री गधों के श्रम की तारीफ कर रहे हैं. कह रहे हैं कि गधे की तरह काम में लगे रहते हैं ...छुट्टी तक नहीं लेते हैं. गधों के लिए यह उपमा और तुलना गर्व की बात है. वैसे सुना है कि बीजेपी शासित राज्यों के गधे इस टिप्पणी पर ज्यादा खुश हैं और गैर बीजेपी शासित राज्यों ( खासतौर से कांग्रेस ) के गधे इसमें भी किसी तरह की राजनीतिक साजिश देख रहे हैं .

गधे अगर चुनाव आयोग जा पाते तो वहां जरुर बताते गधा मेले के बारे में. वह बताते कि राजस्थान में दौसा जिले के लूनियावास गांव में हर साल गधों का मेला लगता है . गधा मालिक प्यार से किसी गधे का नाम सलमान रखता है तो किसी का रितिक. इसी तरह गधियों के नाम कैटरीन से लेकर अनुष्का तक पर रखे जाते हैं. गधों की दौड़ भी होती है और टीवी चैनल वाले गधे को पृष्ठभूमि में खड़ा कर गधा मालिक की बाइट भी लेते हैं. गधे भी जानते हैं कि वह टीवी पर आ रहे हैं लिहाजा उस समय ढेंचू ढेंचू नहीं करते, उल्टे मालिक की बाइट पर सर हिला उस बाइट की ताइद करते हैं. गधे की सवारी की जहां तक बात है तो गधों को इस पर जरुर घोर एतराज होता होगा. गांव देहात में किसी ने लड़की छेड़ दी या छोटी मोटी चोरी कर ली तो उसका काला मुंह कर गधे पर उल्टा लटका कर गांव भर में घुमाने की खबरें आज भी आती रहती हैं. जिसने अपराध किया उसे दंड दो भाई लेकिन गधे का ही इस्तेमाल क्यों .....उसे बैलगाड़ी में या मोटरसाइकल पर भी बिठाया जा सकता है या फिर भैंस पर लेकिन गधा ही क्यों. यह बात समझ से परे हैं. सजा आरोपी के साथ साथ गधे को भी क्यों दी जाती है.

वैसे गधा इतना सीधा भी नहीं होता है. गधे तो जब गुस्सा आता है तो वह ऐसी दुलत्ती मारता है कि पोर पोर दिनों तक दुखता है. मैं स्वयं ऐसी ही वारदात का भुगतभोगी रहा हूं और अपने अनुभव से कह रहा हूं. पीठ पर पड़ी थी दुलत्ती और हफ्ता भर दर्द होता रहा था. उस पर तुर्रा यह कि किसी को दर्द की वजह भी नहीं बता सकता था. प्रधानमंत्री का भाषण सुनते सुनते ख्याल आया कि मतदाताओं को भी गधों से प्रेरणा लेनी चाहिए. अगर नेता चुनाव जीतने के बाद वायदे नहीं निभाएं तो वोटरों को भी अगले चुनाव में ऐसी दुलत्ती ( जमानत जब्त करवा कर ) मारनी चाहिए कि नेता अगले चुनाव तक इस दुलत्ती का दंश झेलने को मजबूर हो जाएं.

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