लोकसभा 2019 के लिए हो रहे अंतिम चरण के चुनाव प्रचार की तनातनी में जिन महापुरुष ईश्वरचंद विद्यासागर की मूर्ति को तोड़ा गया, उनके बारे में कभी गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने कहा था- ‘किसी को आश्चर्य हो सकता है कि भगवान ने चार करोड़ बंगाली बनाने की प्रक्रिया में एक ही इंसान बनाया.’ यह बात किसी को अतिशयोक्ति लग सकती है लेकिन उस वार्तालाप का क्या करेंगे, जिसमें स्वयं रामकृष्ण परमहंस जैसे महासंत पुरुष ने विद्यासागर ने लिए कहा था- “आज (मैं) अंतत: सागर से आ मिला. अब तक नहरें या अधिक से अधिक नदियां देखी थीं. आप हैं क्षीरसागर!!”
रामकृष्ण परमहंस की किताबों वाली शिक्षा न के बराबर थी लेकिन वह दो-टूक, सीधी, खरी और गहरी बातें करने के लिए विख्यात थे. इस पर विद्यासागर कहा करते थे कि लगता है महापुरुष ने अपने वेल्लूरमठ के समुद्र तट का खारा पानी कुछ अधिक ही पी लिया है. लेकिन विद्यासागर का जीवन समर और उनके सामाजिक कार्य इतने महान थे कि परमहंस उनका बड़ा आदर और सम्मान करते थे. इसीलिए कभी पलट कर जवाब नहीं देते थे. विद्यासागर के बारे मेंटैगोर का तो यह भी कहना था कि वह एक ऐसे स्वदेशी नायक थे, जिनमें यूरोपीय आधुनिकता और भारतीय पारंपरिक मूल्यों - दोनों का समावेश था. जान पड़ता है कि ईश्वरचंद्र विद्यासागर का मूर्तिभंजन करने वाले यह जानते ही नहीं थे, कि यह महापुरुष वास्तव में थेकौन!
ईश्वरचंद्र विद्यासागर की शिक्षा पाने की लगन के बारे में जो बात सबसे अधिक प्रसिद्ध है- वो यह है कि घर में बिजली न होने की वजह से वह सड़क पर लैम्पपोस्ट की रोशनी में पढ़ाई किया करते थे. लेकिन उनकी मेधा के बारे में यहां एक बात जान लेनी चाहिए कि बचपन में एक बार अपने पिता के साथ कहीं पैदल जाते हुए उन्होंने मील के पत्थरों पर लिखे अंकों से ही अंग्रेजी की सारी संख्याएं सीख ली थीं. महज 21 साल की उम्र में कानून की पढ़ाई पूरी करते ही उन्हें कोलकाता के फोर्ट विलियम कॉलेज में पढ़ाने का अवसर मिल गया. पांच साल बाद वह संस्कृत कॉलेज में सहायक सचिव के तौर पर नियुक्त हुए. यहां शिक्षा पद्धति को सुधारने के प्रयास में तत्कालीन कॉलेज सचिव रसोमय दत्ता के साथ उनकी तकरार हो गई और उन्हें कॉलेज छोड़ना पड़ा. बाहर निकलकर उन्होंने विशेष तौर पर लड़कियों के लिए 'मेट्रोपोलिटन विद्यालय' सहित अनेक महिला विद्यालयों की स्थापना की. लेकिन जब उन्हें संस्कृत कालेज का प्रधानाचार्य बनाया गया तो उन्होंने नीची समझी जाने वाली जातियों समेत सभी जाति के बच्चों के लिए कॉलेज के दरवाजे खोल दिए. उस समय की जातीय और सामाजिक परिस्थितियों को देखते हुए उनका यह बड़ा क्रांतिकारी कदम था.
साल 1855 में विद्यासागर ने भारत के गवर्नर-जनरल को एक याचिका भेजी और विधवा विवाह पर लगा प्रतिबंध हटाने की मांग की. इसमें कहा गया था कि ब्राह्मणों की मान्यताओं को सभी हिंदुओं पर लागू नहीं किया जा सकता. उन्होंने बाकायदा एक पुस्तिका लिखकर विधवा विवाह को शास्त्र-सम्मत सिद्ध किया और हिंदू पंडितों के साथ शास्त्रार्थ भी किया. उनकी लगातार कोशिशों का ही नतीजा था कि विधवा पुनर्विवाह कानून-1856 पारित हुआ. उनकी कथनी और करनी में जरा भी अंतर नहीं था. उन्होंने खुद एक विधवा से अपने बेटे की शादी करवाई थी तथा बहुपत्नी प्रथा और बाल विवाह के खिलाफ जोरदार आवाज उठाई थी. यही वजह है कि स्त्री-सशक्तीकरण की दिशा में महत्वपूर्ण कार्य करने वालों में ईश्वरचंद्र विद्यासागर का नाम राजा राममोहन राय जैसे महापुरुषों के साथ ही लिया जाता है.
आधुनिक बंगाली गद्य भी विद्यासागर का हमेशा ऋणी रहेगा. भारी विरोध के बावजूद भाषा को पांडित्यपूर्ण आतंक से निकाल कर उन्होंने उसे सहज रूप देने की कोशिश की. बांग्ला की वर्णलिपि में उन्होंने अहम सुधार किया और उनकी लिखी पुस्तिका ‘वर्ण परिचय’ आज भी बांग्ला की उंगली पकड़ाने वाली मां मानी जाती है.
अकारण नहीं है कि आज भी जब कोई बंगाली अपने घर से बाहर कदम रखता है तो विद्यासागर की तस्वीर को प्रणाम करना नहीं भूलता. उनका मूर्तिभंजन होने से पूरा पश्चिम बंगाल और सही सोच रखने वाला भारत का हर संविधानपालक सदमे में है. हालांकि यह पहली बार नहीं हुआ है कि पश्चिम बंगाल में कोई मूर्तिभंजन हुआ या मूर्तियों का अपमान हुआ. चारू मजुमदार के नक्सल आंदोलन के बाद गांधी जी का चश्मा तोड़ देना आम बात हुआ करती थी. कुछ साल पहले ही बीजेपी के पितृपुरुष श्यामाप्रसाद मुखर्जी की प्रतिमा पर कुछ लोगों ने कालिख मल दी थी. लेकिन इन घटनाओं को हम वैचारिक मतभिन्नता से जोड़ सकते हैं. विद्यासागर की मूर्ति को हाथ लगाने का साहस कोई बंगाली आदमी नहीं कर सकता, फिर चाहे वह किसी भी दल से जुड़ा हो. हिंसा से लहूलुहान पश्चिम बंगाल के चुनाव प्रचार की परिणति और इसके आगे भी रक्तरंजित होने की कल्पना करके चुनाव आयोग ने प्रचार को समय से एक दिन पहले ही रोक देने का जो अभूतपूर्व निर्णय लिया है, उसे आयोग की दूरदर्शिता ही माना जाएगा.
बीजेपी के अध्यक्ष अमित शाह के रोड शो के दौरान हुए इस मूर्तिभंजन का जिम्मेदार बीजेपी और तृणमूल कांग्रेस एक दूसरे को बता रहे हैं. लेकिन यह जांच का विषय है कि विद्यासागर कॉलेज परिसर में स्थित उनकी मूर्ति दरअसल किसने खंडित की. मूर्ति तोड़े जाने के अगले ही दिन पश्चिम बंगाल के सारे अखबार आश्चर्य और शोक की खबरों से भरे थे. ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता कवि शंख घोष समेत समूचे ‘आमार सोनार बांग्ला’का हुंकार भरने वाले भद्रलोक की आक्रोश भरी प्रतिक्रियाएं यह जताने के लिए काफी थींकि विद्यासागर की मूर्ति का तोड़ा जाना कोई आम घटना नहीं है.
नैतिक मूल्यों के संरक्षक एवं शिक्षाविद विद्यासागर का मानना था कि अंग्रेजी और संस्कृत भाषा के ज्ञान का समन्वय करके ही भारतीय और पाश्चात्य परंपराओं के श्रेष्ठ को हासिल किया जा सकता है. उनकी इन्हीं मान्यताओं के कारण देश में पुनर्जागरण का शंखनाद संभव हुआ था और ऐसे ही महापुरुषों की वजह से बांग्ला अस्मिता आज भी फल-फूल रही है.पश्चिम बंगाल में चुनाव परिणाम जो भी हों, लेकिन ईश्वरचंद्र विद्यासागर की मूर्ति का तोड़ा जाना चुनावी हानि-लाभ से कहीं ऊपर की उथलपुथल है. हमारे देश और सर्वसमावेशी समाज को देर-सवेर इसके नफा-नुकसान का आकलन करना ही होगा.
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