अब शायर इमरान प्रतापगढ़ी के जरिए मुसलमानों का साथ पाने को बेताब है कांग्रेस
पिछले लोकसभा चुनावों में अपनी शेरो-शायरी के जरिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के खिलाफ आग उगलने वाले इमरान प्रतापगढ़ी को कांग्रेस के अल्पसंख्यक विभाग का अध्यक्ष बनाया गया है. सोनिया गांधी के इस फ़ैसले को लेकर पार्टी में सवाल तो उठ ही रहे हैं, साथ ही नेताओं को हैरानी भी हो रही है कि इससे उत्तर प्रदेश में कांग्रेस मजबूत होगी या उसका रहा-सहा भट्टा ही न बैठ जाए. अगले साल यूपी में विधानसभा चुनाव हैं, जहां कई सीटों पर मुस्लिम मतदाता निर्णायक भूमिका में हैं. लेकिन सियासी हैसियत से मुसलमानों में अपना जनाधार रखने वाले किसी नेता को इस पद पर बैठाने की बजाय एक शायर पर दांव लगाने से तो यही लगता है कि कांग्रेस को अब भी कोई करिश्मा होने की उम्मीद है.
इसमें कोई शक नहीं कि इमरान प्रतापगढ़ी एक बेहतरीन शायर हैं और उन्होंने बेहद कम वक्त में ही शोहरत की बुलंदी को छुआ है. उनकी शायरी सुनने के लिए यूपी से बाहर के प्रदेशों में भी मुशायरे में हजारों लोगों की भीड़ जुटती है. मुस्लिम युवा तो उनके जबरदस्त दीवाने हैं, शायद इसलिए कि अक्सर उनकी शायरी में नरेंद्र मोदी निशाने पर होते हैं. शायरी करते-करते सियासत में कूदने वाले इमरान ने 2019 में ही कांग्रेस का दामन थामा और उसी वक़्त पार्टी ने उन्हें मुरादाबाद से लोकसभा चुनाव का उम्मीदवार बना दिया. लेकिन यह जरूरी नहीं होता कि मुशायरे में जुटने वाली भीड़ वोटों में भी तब्दील हो ही जाए, लिहाजा वह चुनाव हार गए.
ऐसा माना जाता है कि इमरान प्रतापगढ़ी यूपी की प्रभारी पार्टी महासचिव प्रियंका गांधी की 'गुड बुक' में हैं और इस फैसले में भी उनका ही दिमाग बताया जाता है. दरअसल, प्रियंका व राहुल गांधी को लगता है कि समाज के एक खास वर्ग में शोहरत का मुकाम हासिल कर चुके इमरान जैसे चेहरे को आगे लाकर कांग्रेस से छिटक चुके मुस्लिम वोट बैंक को वापस पार्टी में लाया जा सकता है. लेकिन पार्टी में नेताओं का एक वर्ग है जो राहुल-प्रियंका की इस थ्योरी को नहीं मानता कि किसी एक चेहरे से कोई करिश्मा हो सकता है. उनका मानना है कि इन दोनों नेताओं को यह समझना होगा कि पिछले एक दशक में राजनीति का मिजाज पूरी तरह से बदल चुका है और सत्ता में वापसी के लिए अब गांवों व बूथ स्तर तक पार्टी को मजबूत करने की तरफ ध्यान देना होगा.
अगर कांग्रेस को आज इमरान प्रतापगढ़ी जैसे नाम का आसरा लेकर मुस्लिम वोटों को लुभाने के लिए मजबूर होना पड़ा है, तो उसके लिए भी पार्टी नेतृत्व ही जिम्मेदार है क्योंकि उसने पिछले दसेक सालों में ऐसा कोई नेता राष्ट्रीय स्तर पर तैयार नहीं किया, जिसकी मुसलमानों में गहरी पैठ हो और उनकी तकलीफ़ों को उज़ागर करने की कुव्वत होने के साथ ही सरकार को निशाने पर लेने का जज़्बा भी हो. बेशक इमरान के पास मुस्लिमों का दर्द बयां करने वाले बेहतरीन अल्फ़ाज़ हैं, लेकिन सियासी तजुर्बा न होना ही उनकी सबसे बड़ी कमी है. शायद इसीलिए कांग्रेस के मुस्लिम युवा नेता भी यह मानते हैं कि उनका उपयोग चुनाव-प्रचार के लिए किया जाता, तो बेहतर होता. इस पद पर संगठन की समझ रखने वाले किसी और अनुभवी मुस्लिम नेता को लाया जाता, ताकि वो सपा-बसपा का परचम थामे मुस्लिम नौजवानों को वापस कांग्रेस के झंडे तले लाता.
याद रखने वाली बात यह भी है कि गोधरा की घटना से गुजरात में भड़के साम्प्रदायिक दंगों के बाद हुए चुनाव में कांग्रेस ने मशहूर गीतकार व संवाद लेखक जावेद अख्तर का सहारा लिया था. बताते हैं कि तब उन्होंने सोनिया गांधी के लिए हिंदी में एक चुनावी सभा में दिया गया भाषण तैयार किया था. उस भाषण में गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए एक शब्द इस्तेमाल किया गया था- "मौत का सौदागर". सिर्फ उस एक शब्द ने ही गुजरात में कांग्रेस को जिस मुकाम पर ला दिया, वैसी हालत यूपी में न हो, इसके लिए पार्टी को इमरान प्रतापगढ़ी की तक़रीरों पर खास खयाल रखना होगा.
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