देश की प्रमुख विपक्षी पार्टी कांग्रेस में नेतृत्व को लेकर असमंजस बना हुआ है. ऐसे बिखराव के वक्त में पार्टी के भीतर अनिर्णय की यह स्थिति ठीक नहीं है. न पार्टी के लिए, न ही लोकतंत्र के लिए. शशि थरूर व कैप्टन अमरिंदर सिंह जैसे नेता जरूर इस अनिश्चय की स्थिति को बदलने की कोशिश करते दिखाई दे रहे हैं. देखते हैं उनके प्रयास क्या रुख इख्तियार करते हैं. कांग्रेस की इस भीतरी कमजोरी का असर कई सतह पर दिखाई दे रहा है. चाहे वह कर्नाटक में कांग्रेस-जेडीएस सरकार गिर जाने का मामला हो, राज्यसभा में सत्ता पक्ष का बहुमत न होने के बावजूद तीन तलाक विधेयक पास हो जाने का या गोवा में विधायकों के पाला बदलने का. इसके अलावा सोनभद्र हत्याकांड में तो प्रियंका गांधी की सक्रियता से कांग्रेस की मौजूदगी नजर भी आई, लेकिन इसके फौरन बाद ही उन्नाव रेप पीड़िता के साथ दुर्घटना जैसे मामलों में पार्टी फिर कहीं नहीं थी, जबकि राजनीति सतत खुद को हर समय, हर पल जीवंत बनाए रखती है और अपने कार्यकर्ताओं से इसी की मांग भी करती है.


पार्टी की कमजोरी का फायदा उठाते हुए ही बीजेपी ने बड़ी चतुराई से राज्यसभा में तीन तलाक विधेयक पारित करा लिया. यही नहीं सत्ता पक्ष ने एनआईए, यूएपीए और सूचना के अधिकार वाले बिल पर भी मौके का फायदा उठाया. ऐसे वक्त में जबकि कांग्रेस का इन मामलों में सशक्त हस्तक्षेप होना था, पार्टी कहीं नजर नहीं आ रही है. जबकि तीन तलाक जैसे मसले पर पार्टी को अच्छे से तैयारी कर के सदन में बहस कर लेनी थी, जिससे विपक्ष और खुद कांग्रेस की उपस्थिति का अहसास होता. अब इस बिल के पारित हो जाने को मीडिया वाले अमित शाह की जीत बता रहे हैं. निश्चित ही सत्ता पक्ष ने रणनीति से काम लिया और अपना लक्ष्य हासिल करने में सफल भी रहा. हालांकि इसके पीछ एक कारण मुसलमानों की विभिन्न विचारधारा वाले धड़ों में एकता की कमी भी है. देश के मुसलमान इस समय उस तरह एकजुट नहीं हो पाए, जैसे शाह बानो वाले मामले के वक्त उन्होंने एकता दिखाई थी.


कांग्रेस की कमजोरी का एक अन्य संकेत प्रभावशाली नेताओं के उससे लगातार दूर होते जाने में भी नजर आ रहा है. संजय सिंह जैसे वफादार बीजेपी में जा रहे हैं. ऐसी परिस्थितियों में शशि थरूर व कैप्टन अमरिंदर सिंह अगर कांग्रेस के नेतृत्व का मसला हल करने के लिए कोई उपाय करना चाहते हैं, तो इसमें कोई बुराई नहीं है. अगर वे ग्रांड ओल्ड पार्टी की निष्क्रियता खत्म कर के उसे पुनः मुख्यधारा की प्रभावशाली पार्टी के रूप में लाने की पहल कर रहे हैं तो यह पार्टी के साथ ही देशहित में भी होगा. अगर वे इस मुद्दे को लेकर गंभीर हैं तो ऑल इंडिया कांग्रेस कमेटी का अधिवेशन बुलाने के लिए हस्ताक्षर अभियान चला सकते हैं. एआईसीसी को इसका वैधानिक अधिकार है कि वह कांग्रेस कार्यसमिति को भंग कर दे. इसके बाद पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र स्थापित करते हुए उसका पुनर्गठन किया जाए.


शशि थरूर ने तो बहुत स्पष्टवादी होते हुए पिछले दिनों एक टीवी चैनल व समाचार एजेंसी के इंटरव्यू में यह तक कह दिया कि कांग्रेस कार्य समिति नए अध्यक्ष का चयन करने के लिए अधिकृत नहीं है, क्योंकि वह कोई चुना हुआ मंडल नहीं है. वे सही भी हैं कि सन 1991 से कांग्रेस कार्य समिति के ज्यादातर सदस्य तत्कालीन अध्यक्षों द्वारा नामित किए जाते रहे हैं. चाहे वे पीवी नरसिम्हाराव हों, सीताराम केसरी, सोनिया या राहुल गांधी. इन सब ने अपनी पसंद के लोगों को कांग्रेस कार्य समिति का सदस्य बनाया. थरूर यह उदाहरण भी दे सकते हैं कि कांग्रेस अध्यक्ष अक्सर बहुत जल्दी तय किया जाता रहा है. जैसे 31 अक्टूबर 1984 को इंदिरा गांधी की हत्या के बाद लगभग फौरन ही राजीव गांधी को कांग्रेस की जिम्मेदारी सौंप दी गई थी. यह सब कुछ इतनी जल्दी में हुआ था कि अगले दिन के बहुत से अखबारों में इसकी खबर तक नहीं आ पाई. अब थरूर और कैप्टन कदम उठा रहे हैं तो उन्हें सतर्क रहना होगा कि वे कांग्रेस व गांधी परिवार के उतने निकट नहीं हैं, जितने दूसरे पुराने नेतागण हैं. कांग्रेस की अपनी आंतरिक राजनीति भी है. ऐतिहासिक प्राचीन पार्टी के अध्यक्ष का मनोनयन करने में इस आंतरिक सियासत का भी दखल होगा. बता देना उचित होगा कि फिलहाल कांग्रेस में नेतृत्वकर्ता की भूमिका निभाने के इच्छुक कम नजर आ रहे हैं, एक ऐसी भूमिका, जो बदले में बहुत कुछ की उम्मीद करती है.


(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)