जाति कभी नहीं जाती- यह कितनी बार लिखा जा चुका है, कहा जा चुका है. आईबी मिनिस्ट्री जिस ‘दलित’ शब्द को छपने, बोलने से रोकना चाहती है, उसी शब्द से जुड़ी पहचान के चलते हैदराबाद के प्रणय की जान गई और उसी हैदराबाद की माधवी के लगभग दोनों हाथ. प्रणय की प्रेगनेंट बीवी इस हादसे की गवाह है और माधवी का पति नवदीप. हमला नवदीप पर किया गया था, पर माधवी उसे बचाने में शिकार हो गई. दोनों मामलों में बेटियों के पिता दोषी हैं.
पहले में पिता के गुंडों ने हमला बोला था, दूसरे में खुद पिता ने. कारण एक था- लड़के की जाति उनकी जाति से कुछ कम थी. लड़की अपनी जाति से ‘नीचे’ की जाति वाले से शादी करना चाहती थी. मामला इज्जत का था. बेटियों की इज्जत, समाज-परिवार की इज्जत. उस पर बट्टा लगाने का डर समाया तो पलटकर वार कर दिया.
ऐसे ऑनर किलिंग के मामले लगभग हर रोज होते हैं. मशहूर पॉलिटिकल थियोरिस्ट कांचा इलैय्या के शब्दों में ‘हम इसे कास्ट बेस्ड मर्डर नहीं कहते’. हां, ये मर्डर होते कास्ट के बेस पर ही हैं. ऑनर यानी सम्मान के नाम पर किलिंग. हत्या की एक शालीन वजह. वजह चाहे कितनी घिनौनी हो. क्राइम इसी जाति के खिलाफ हो रहा है, जिसे समाज हाशिए से बाहर आने नहीं देना चाहता.
पिछले दिनों आरक्षण की बहस में किसी ने कहा था, समय बदल रहा है. हम छुआछूत नहीं करते. इस पर एक कार्टून भी दिखाया था कि किस तरह अनुसूचित जाति-जनजातियों का टैग लगाए एक मुटियाये से आदमी को चम्मच से दूसरा शख्स खाना खिला रहा है. खाना खिलाने वाले की हड्डियां निकली हुई है- वह देश का प्रतीक है. वह पतलू उस मुटियाये आदमी से पूछ रहा है, तू कब तक खाता रहेगा!! मतलब अनुसूचित जातियां, जनजातियां कब तक आरक्षण की मलाई चाट-चाटकर थुलथुल होती रहेंगी. बेशक, कास्ट हमारे लिए सबसे ज्यादा मायने भी रखती है, लेकिन हम उसे नकारना भी चाहते हैं. अनुसूचित जातियों, जनजातियों के खिलाफ हमारा बायस इस कार्टून में साफ दिखाई देता है.
प्रणय या नवदीप जैसे लड़के हमारी बेटियों के करीब भी कैसे आ सकते हैं, हम सवर्ण हैं. सवर्ण यानि सुंदर वर्ण. यानि सुंदर रंग, जाति. अपनी औकात वे कैसे भूल सकते हैं. पीछे 100 करोड़ से ज्यादा कमाने वाली मराठी फिल्म ‘सैराट’ देखी थी. पर इस फिल्म को हम लगभग हर महीने देश के किसी न किसी हिस्से में देख ही लेते हैं. परदे पर परशेया-आर्ची की दशा पर थोड़ा घड़ियाली आंसू बहा लेते हैं. फिल्म खत्म तो वापस उसी खोल में लौट आते हैं. ‘नीचे’ की जातियों का शोषण परंपरा है. हजारों सालों से होता है, हम थोड़े करते हैं. शोषण चलता रहता है. पूर्वाग्रह रूप बदलते रहते हैं. हम सदियों बाद भी ज्यों के त्यों बने रहते हैं.
दुनिया बदली है. अमेरिका के एंटी मिसजनेशन कानून अब खत्म हो चुके हैं. मतलब, नस्ल के आधार पर शादी और आत्मीय संबंधों को क्रिमिनलाइज करने वाला कानून अब मौजूद नहीं है. कभी ब्लैक आदमियों को व्हाइट औरतों से रिश्ता रखने पर लिंचिंग का शिकार बनाया जाता था, बकायदा कानून के तहत. लोग इसमें मजे लेते थे. अब ऐसा नहीं है. दूसरे विश्वयुद्ध के बाद इस कानून को खत्म कर दिया गया. अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा ऐसे ही संबंधों की पैदाइश हैं.
यूं नस्ल भेद और जाति भेद दोनों की विशिष्टताएं अलग-अलग हैं. दोनों के इतिहास भी. नस्लीय भेद में जातीय भेद की तरह छुआछूत नहीं किया जाता. ब्लैक रसोइए का बना खाना आप चाव से खाते हैं. लेकिन अनुसूचित जाति, जनजाति की महिला के हाथ का पका खाना खाने से प्राथमिक स्कूल के बच्चे भी इनकार कर देते हैं. ब्लैक्स के साथ छुआछूत सोशल स्ट्रक्चर का हिस्सा नहीं. लेकिन जातीय भेद हमारे एवरीडे प्रैक्टिस का हिस्सा है. यह और भी खतरनाक है.
ये खतरे औरत के लिहाज से और तकलीफदेह हो जाते हैं. जैसे कि बी.आर. अंबेडकर कहते थे, जातिगत उत्पीड़न और लिंग आधारित उत्पीड़न, दोनों आपस में जुड़े हुए हैं. कोलंबिया यूनिवर्सिटी में 1916 में एक भाषण ‘कास्ट इन इंडिया’ में उन्होंने कहा था कि भारत में अपने ही गोत्र में शादियां की जाती हैं और यही वजह है कि जाति भेद इस कदर फैला हुआ है. वह सगोत्र शादियों को जाति व्यवस्था का एसेंस कहते थे.
यानि जब आप अपने ही गोत्र में शादी को बढ़ावा देते हैं तो इसका मतलब यही है कि आप जाति के बाहर शादी के लिए राजी नहीं. इस तरह आप औरत की सेक्सुएलिटी को भी कंट्रोल करते हैं. औरतों को सेक्सुएलिटी को मॉनिटर करके हम जाति व्यवस्था को मजबूत करते हैं. या जाति व्यवस्था के मजबूत रहने के लिए औरतों की सेक्सुएलिटी को कंट्रोल करना बहुत जरूरी है.
जाति, धर्म के नाम पर औरतों की आजादी छीनने वाले इस सोच को पुख्ता करते हैं. औरत की आजादी इसलिए दिक्कत करती है. जब वह आजाद होने की कोशिश करती है तो प्रतिरोध और दमन दोनों होता है. जहां उसका शारीरिक दमन नहीं होता, वहां उसके सवालों का दमन होता है. एक औरत की यौनाकांक्षा का दृश्य झेल नहीं पाते हम. छाती धधकने लगती है. उसकी फड़फड़ाहट से घबराकर नोंच दिए जाते हैं उसके पंख. हैदराबाद में ऐसा ही हुआ. आगे भी होगा, होता रहेगा. जरूरत यही है कि हम आइना साफ करें. झांके और सच का सामना करें.
(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)